समंदर
समंदर
गहन अंतहीन सी अभिलाषायें लिए,
जोरों पर हैं…ऊंची उठती तरंगें,
अथाह खारापन हृदय तल में समेटे,
ये समंदर इतना खामोश क्यों है,
जिसमें वर्षा भी घुलकर इतराती हैं,
नदियाँ मिलकर मौज पाती हैं,
विस्तृत होकर प्रेम से बाँहें फैला,
ये समंदर माफिक महाकोश कौन है
रेत पर मिल जाते शंख-सीप अपार
गर्भ में ढोये अथाह रत्न भण्डार,
इंद्रधनुषीय जीवन क्रीडारत इसमें,
समंदर माफिक तिमिकोष कौन है,
स्वयं ही अभिभूत खुद में मौन,
गर्वित भी है अमिट जीवन पर,
वो बहता टकराता फेन उगलता,
खुद को तराशने को है तत्पर,
फिर भी आघातों से कम्पन पाता,
ये समंदर इतना फरामोश क्यों है,
जब अंतर्मन उसका धड़क उठता,
विनाशलीला करने चल पड़ता भभकता,
जब उफान भरता दिशा विहीन होकर,
कहाँ नहीं फ़ैल जाता वेग भरकर,
ये समंदर इतना खानाबदोश क्यों है,
बरबादी का मंज़र वो ज़लज़ला दिखाता,
शांत समंदर त्राहि त्राहि मचाता,
शांत कर देता भागती ज़िन्दगी को,
द्वीप के द्वीप खंडहर बना जाता,
एक हुक क्रंदन करती है फिर...अरे!
समंदर में इतना आक्रोश क्यों है,