आत्मकथा अंश:आमी से गोमती तक:
आत्मकथा अंश:आमी से गोमती तक:
उस पार न जाने क्या होगा !
पाठकों को मैं पहले ही यह बता चुका हूँ
कि ‘बच्चन’ जी मेरे प्रिय लेखक-कवि बन
चुके थे। उनसे अपनी अंतरंगता बढ़ती चली
गई थी । उनसे जुड़ने पर मुझे आनन्द आया
और दुःख भी । आनन्द इसलिए कि उनसे
पत्राचार करते हुए मानो मैंने साहित्य संसार का
आसमान छू लिया हो और दुःख इसलिए कि
उनके देहावसान के बाद उनके कुछ अन्तरंग
लोगों ने मुझे छला, निराश भी किया । ......
लेकिन उसकी चर्चा आगे करूंगा । अभी तो
कुछ अपनी और बहुत कुछ अपने जीवन की
राम कहानी !
वर्ष 1972 में जब मैं ग्रेजुएट में था उस समय मेरी बड़ी बहन विजया (जिन्होंने हिन्दी में पी.एच.डी.भी कर लिया था ) का विवाह गोंडा में श्री सुरेश चन्द्र उपाध्याय, प्रसिद्ध वकील, के लड़के डा.तारकेश्वर उपाध्याय जियालाजिस्ट से तय हो गया । वैसे इसके पहले और भी ढेर सारे कुलीन परिवार के लडकों की कुंडलियाँ खंगाली गईं लेकिन असीमित दान- दहेज के नाम पर बात बन नहीं रही थी । मेरे पितामह इस सम्बन्ध से थोड़ा नाराज़ भी हुए क्योंकि वे बस्ती या उसके आसपास के जिलों में अपने घर की कन्या नहीं देना चाहते थे और उपाध्याय परिवार में तो कतई नहीं । उनकी बस्ती जिले में ब्याही गई बेटियाँ बीमारी की हालत में ससुराल वालों की बदहाल परवरिश के चलते कम उम्र में चल बसी थीं । लेकिन ऐसे सम्बन्ध तो पहले से तय हुआ करते हैं और 22 मई 1972 को विजया-तारकेश्वर का विवाह गोरखपुर में धूमधाम से सम्पन्न हुआ । तीन दिन की बरात रुकी थी ।
मेरे पितामह पंडित भानुप्रताप राम त्रिपाठी और दादी श्रीमती पार्वती देवी ने कन्यादान किया क्योंकि दहेज़ के लेन -देन वाली यह शादी पिताजी के उसूलों के खिलाफ थी । घर की पहली शादी थी और परिजनों का उत्साह देखते बन रहा था । पिताजी बहुत मुदित थे क्योंकिपढ़े लिखे परिवार में शादी हो रही थी । मुझे याद
है कि पिताजी ने लगभग एक शोध पत्र की तरह बारातियों के लिए अभिनन्दन पत्र छपवाया था जिसमें दोनों परिवारों के बारे में महत्वपूर्णजानकारियां भी दी गई थीं । कुछ मोहक शब्द
आज भी याद हैं – जैसे;" हे आत्मीय समधी जी , अतिथि देवो भव की वैदिकी अनुगूंज से अनुप्राणित आज अपनी लघुता में सम्पूर्ण शहर के स्नेह के साथ आपके पावन निर्देशन में अपने प्राणों के सरगम आत्मजा को अशेष विश्वास के साथ समर्पित करते हुए हम आनन्द विह्वल हैं । आदरणीय अभ्यागत! आपने पधार कर हमारे तंडुल को स्वीकार कर हमें गौरव दिया है . .अवश्य ही हमारी अभ्यर्थना में कुछ
अभाव रहे होंगे पर पुजारी की श्रद्धा का प्रयास उसका विभावपूर्ण थाल नहीं अंतस की अमित पुजापा है."..आदि ।
इसी तरह जब मैं विधि स्नातक का कोर्स
कर रहा था और आपातकाल के दौरान वर्ष
1975 में पिताजी की गिरफ्तारी सहित तमाम
नाटकीय घटनाओं के बाद मेरे बड़े भाई
डा.सतीश चन्द्र त्रिपाठी का विवाह 6 जुलाई
1975 को विन्ध्याचल मंदिर के मुख्य पुरोहित
मिश्र परिवार के पं.विजय शंकर मिश्र की कन्या वीना से विध्याचल में सम्पन्न हुआ था । इन दोनों विवाहों का दान- दहेज़ के लेन - देन के कारण पिताजी ने लगभग बायकाट किया था और पितामह और दादी जी की अगुआई में ये सम्पन्न हुए थे ।
भाई साहब के विवाह के कुछ महीने पहले ही पितामह और दादी ने हम दोनों भाइयों का जनेऊ संस्कार विन्ध्याचल में ही सम्पन्न कराया था,उसमें भी पिताजी ने हिस्सा नहीं लिया था ।
वर्ष 1973 में जब मैं बी.ए.कर चुका था तब मुझे सेवा में जाने के दो-तीन अवसर मिले थे ।
एक ''दैनिक जागरण'' गोरखपुर के सम्पादकीय में काम करने का और दूसरा उ.प्र.सरकार के सूचना विभाग में अनुवादक कम सहायक सूचना अधिकारी बनने का और तीसरा भारतीय खाद्य निगम में जन सम्पर्क अधिकारी बनने का । उन दिनों के सर्वाधिक सर्कुलेशन वाले वाराणसी से छपकर आनेवाले अखबार ''आज'' के बाज़ार को गोरखपुर से ''दैनिक जागरण'' प्रकाशित करके हथियाने के लिए पूर्णचन्द्र गुप्त डेरा डाले हुए थे । गोरखपुर से छपने वाला ''हिन्दी दैनिक'' अच्छी सम्पादन टीम के अभाव में अपने अंतिम दिन गिन रहा था । उसकी सर्कुलेशन निल थी और सिर्फ सरकारी गजेट और विज्ञापन ही उसमें छपते थे । तदर्थ तौर पर ह्रदय विकास पाण्डेय ने ''दैनिक जागरण'' गोरखपुर के डमी अंकों के सम्पादन का काम शुरू कर दिया था और
वे और पूर्णचंद्र गुप्त,योगेश गुप्त,मुन्नालाल
पत्रकार आदि मिलकर अपनी सम्पादकीय
टीम बनाने के लिए प्रयासरत थे। याद नहीं है
कि किसने मुझे भी प्रयास करने को कहा था
और मैं बेतियाहाता स्थित उसके प्रेस में जाने
लगा था । मुझे एक टेबिल कुर्सी दे दी गई थी
और टेलीप्रिंटर से निकले समाचार को काट-
छांट कर प्रेस लायक बनाने का काम मैंने शुरू
भी कर दिया था । दो या तीन दिन बाद मुझे
मालिकान ने बुलाया और नरेंद्र मोहन के नाम
एक सीलबंद लिफाफा देते हुए कहा गया कि
फाइनल एप्वाइन्टमेंट के लिए मुझे अपने खर्च
पर उसके मुख्यालय कानपुर जाकर एक हफ्ते
तक वहां ट्रेनिंग लेनी है । पत्रकार बनने का
इतना उत्साह और उमंग था कि मैं कानपुर चला
गया और वहां किसी परिचित के घर अतिथि
बनकर पूरे हफ्ते सर्वोदय नगर जाता रहा ।
सुबह नाश्ते के बाद मैं दफ्तर चला जाता था
और शाम तक थका हारा लौटता था। वहां प्रेस
की ओर से दो तीन चाय अवश्य मिल जाती
थी । वहां पता चला कि जागरण संस्थान ट्रेनी जर्नलिस्ट के रूप में तीन सौ रूपये महीने पर
आफर देती है और एक साल बाद नियमित
वेतन स्केल में रख लेती है । चलते समय
एडिटोरियल इंचार्ज किन्हीं सत्यदेव शर्मा जी ने
मुझे पास कर दिया और मालिक नरेंद्र मोहन से
मिलकर एक संस्तुति पत्र ले लेने को कहा । मैंने
वैसा ही किया और वापस गोरखपुर आ गया ।
यहाँ एक बार फिर जब मैं पूर्ण चन्द्र गुप्त की
टीम (उनके साथ मुन्ना लाल थे) के सामने
हाज़िर हुआ तो उन्होंने विशुद्ध बनिया के रूप में
मुझे दो सौ पचास रूपये महीने पर काम करने
का आफर दिया । मैंने उनसे तीन सौ रूपये की
मांग की जिसे उन्होंने लगभग ठुकरा दिया ।
मुन्नालाल जी ने बीच बचाव की मुद्रा में मुझे
ऑफर स्वीकार लेने को कहा तो मैं भड़क उठा ।
इस एक हफ्ते पन्द्रह दिन में ''हिन्दी दैनिक'' बंद हो गया था और उसके सम्पादकीय टीम के कुछ नाकारा लोग मात्र एक सौ रूपये महीने
की नौकरी पर ''दैनिक जागरण'' में आ गए थे । पूर्णचन्द्र गुप्त उसी का फायदा उठा रहे थे ।
मुझे नौकरी की शौकिया आवश्यकता थी न कि
मैं भूखा मर रहा था । मुझे इस बात का दुःख
था कि जब मैंने हफ्तों कानपुर रहकर इनकी
इच्छा पूरी करके नौकरी की मांग की है तो ये
क्यों सौदेबाजी कर रहे हैं । कानपुर में ये लोग
तीन सौ दे रहे हैं तो गोरखपुर में क्यों नही ? मैंने
उनकी इस बनियागीरी पर फटकार भी लगाईं थी
और कमरे से निकलते समय उनका यह व्यंग
भी सुना था कि ''लगता है कि तुम परिवार के
बिगड़े लडके हो !'' उन्हीं के पुत्र योगेन्द्र मोहन
ने भी मुझे मेरी क्षमताओं से पहचान लिया था
और वे चाहते थे कि मैं जागरण से जुड़ जाऊं । लेकिन उनकी चलती नहीं थी ।
आगे चल कर ''दैनिक जागरण'' गोरखपुर प्रबन्धन को ऎसी ही परिस्थितियों के झंझावात से गुजरना पड़ा , महीनों तालाबंदी रही लेकिन वे अपने छल -बल से सर्वाइव कर गए और आज गोरखपुर ही क्या लगभग पूरे उ.प्र.में उनका डंका बज रहा है ।आज न तो पूर्णचन्द्र हैं,न धीरेन्द्र मोहन लेकिन उनकी पत्रकारिता की बनियागीरी की परम्परा शाश्वत चली आ रही है ।
अब इसी क्रम में अपनी दूसरी और तीसरी नौकरी के ऑफर के बारे में भी बताता चलूं ।
हुआ यह कि 1974-75 में ही उ.प्र.सूचना विभाग में सूचना अधिकारियों के लिए सीधी नियुक्ति का विज्ञापन निकला । उस समय गोरखपुर में जिला सूचना अधिकारी के रूप में त्रिपुरारी भास्कर नियुक्त थे और मेरी साहित्यिक और पत्रकारिता सम्बन्धी उपलब्धियों को ध्यान में रखते हुए उन्होंने मुझे भी सुझाव दिया था कि मैं आवेदन करू। मैंने आवेदन कर दिया था । कुछ सोर्स भी लगा दिए।
सूचना निदेशालय लखनऊ में साक्षात्कार तो
अच्छा हुआ लेकिन मेरी नियुक्ति नहीं हो सकी । जिस सोर्स का सन्दर्भ मैं दे रहा हूँ वह इतना
प्रभावकारी था कि कुछ ही महीनों में मेरे पास
उ.प्र.सरकार के राजचिन्ह मछली बना हुआ
नियुक्ति पत्र हाथ आया जिसमें मुझे बरेली के
जिला सूचना अधिकारी कार्यालय में सहायक
जिला सूचना अधिकारी/अनुवादक के पद
पर कार्यभार ग्रहण करने का आदेश था । मन
ललचा उठा लेकिन एक तो कम उम्र थी दूसरे
वेतन बहुत कम था। इसलिए मैंने ज्वाइन नहीं
किया ।
इन्हीं कालखंड में गोरखपुर में 1968 में इंदिरा गांधी द्वारा स्थापित फर्टिलाइजर फैक्ट्री ने अपने लिए पी.आर.ओ. की वेकेंसी निकाली थी । मैंने भी अप्लाई कर दिया था । उन दिनों गोरखपुर की यह अकेली औद्योगिक विशाल भूखंड में स्थापित इकाई थी । सिर्फ इंटरव्यू पर चुनाव होना था और लगभग दो दर्जन मुझ जैसे नौजवान अपनी सुपात्रता का दावा लेकर
इंटरव्यू में पहुंचे। बढ़िया आवभगत हुई और
भव्य जलपान मिला ।मेरा इंटरव्यू भी ठीक ही
हुआ था लेकिन वहीं इस बात की अफवाह
उड़ चुकी थी कि पेट्रोलियम मिनिस्ट्री से किसी
के लिए सिफारिश आ चुकी है। फलस्वरूप
सबके दावे सबके पास धरे रह गए।
लेकिन जैसा ‘बच्चन’ जी कहते हैं-
'' मन का हो तो अच्छा, ना हो तो और भी अच्छा क्योंकि वो रब की मर्जी है!'' इसलिए जो हुआ अच्छा ही हुआ क्योंकि बाद में 10 जून वर्ष 1990 से इस फैक्ट्री पर काल मंडराने लगा,उस दिन अमोनिया गैस रिसाव के चलते एक इंजीनियर की मृत्यु हो गई और फैक्ट्री से उत्पादन बंद कर दिया गया। वर्ष 2002 में सभी को वी.आर.एस. दे दिया गया।
अब उस नौकरी की बात जो मेरे संग - साथ 36 वर्षों तक बनी रही । वर्ष 1977 के अप्रैल महीने की 29 वीं तारीख ...मुझे अच्छी तरह याद है कि मैं उस दिन लगभग 11 बजे अपने गाँव से गोरखपुर आ रहा था । घर की गली में ही मेरी मुच्छड़ पोस्टमैन राय साहब से मुलाक़ात हो गई और उसने बड़े तपाक से कहा –‘अरे साहब आपकी एक रजिस्ट्री आई है । ’मैं हतप्रभ ! मैंने उत्सुकता से डाक ली , लिफ़ाफ़े पर एक नज़र डाला तो पाया कि ख़ाकी रंग के मीडियम साइज़ के उस लिफ़ाफ़े पर भारत सरकार की मुहर On India Govt. Service लगी है और भेजने वाले स्टेशन डाईरेक्टर,आल इंडिया रेडियो, इलाहाबाद थे।
मन खुशी से बल्लियों उछलने लगा लेकिन इसे
जाहिर नहीं होने दिया। घर पहुंचा तो पिताजी
कचहरी जा चुके थे । अम्मा को इस खुशखबरी
को बताया और नहा- धोकर लगभग एक तीस
बजे कचहरी पहुँच गया । मैंने पिताजी से कहा
कि बस अब मुझे मेरी मनचाही नौकरी मिल
गई है। आप मेरा मेडिकल आदि करवा दीजिए,
किसी राजपत्रित अधिकारी से चरित्र प्रमाणपत्र
दिलवा दीजिए और मुझे रवाना होने की आज्ञा
दीजिए । संयोग देखिए , पिताजी के चेंबर में उसी समय उन दिनों अखिल भारतीय विद्यार्थी
परिषद् के युवा नेता (और अब माननीय
राज्यपाल,हिमांचल प्रदेश)श्री शिव प्रताप शुक्ला का आगमन होता है और पिताजी उन्हें सी.एम.ओ. के यहाँ जाने और मेरा मेडिकल सर्टिफिकेट बनवाने का परामर्श देते हैं। उन दिनों छात्र नेताओं का बड़ा दबदबा था। हम दोनों रिक्शे से जिला अस्पताल पहुँचते हैं और सी. एम. ओ.साहब चायपान कराने के साथ मेरे मेडिकल की औपचारिकता आनन फानन में
पूरी कर देते हैं। ....अब वापस कचहरी। इस
बीच मुंशी श्रीनिवास सिंह को भेजकर पिताजी ने
इलाहाबाद (अब प्रयागराज) के लिए त्रिवेणी
एक्सप्रेस में मेरा थ्री टायर में रिजर्वेशन भी करा दिया था। अब पिताजी एक सत्र न्यायाधीश श्री उमेश चन्द्र मिश्र के चेंबर में मुझे लेकर जाते हैं
और मुझे उनका दिया चरित्र प्रमाण पत्र मिल
जाता है। औपचारिकताएं पूरी.... अब अपनी
ज़िंदगी के एक नए अध्याय की शुरुआत
तीर्थराज प्रयाग से होनी है । रात की ट्रेन है और इलाहाबाद अकेले जाना है । मन में धुकधुकी
..गोरखपुर छोड़ने की पीड़ा अलग से ...।
परिवार में सभी इस समाचार से प्रसन्न
थे ।
छोटे भाई दिनेश चन्द्र त्रिपाठी उन दिनों
सेंटएंड्रयूज कालेज से बी.एस.सी.कर रहे थे।
गोरखपुर विश्वविद्यालय में बाटनी में रिसर्च कर
रहे बड़ेभाई साहब प्रोफ़ेसर एस. सी. त्रिपाठी ने
रिक्शे से रेलवे स्टेशन ले जाकर तमाम हिदायतों
के साथ मुझे ट्रेन में बिठाया। पिताजी ने मेरे रहने
और खाने- पीने के लिए अपने श्वसुर (मेरे
नाना जी) जस्टिस हरिश्चन्द्र पति त्रिपाठी,गंगा
आश्रम,15 कमला नेहरू मार्ग,इलाहाबाद के
लिए पत्र दे दिया था। रात ट्रेन में लगभग बेचैनी में बीती ....और, अब मैं रामबाग रेलवे स्टेशन पर उतरकर रिक्शेवाले को हाथी पार्क / हिन्दू हास्टल चलने को बोला। अब मै उनके सम्मुख
उपस्थित था। ...हाथ में पिताजी का पत्र, एक
अटैची और एक छोटा होल्डाल ।
जज साहब (नाना जी) उन दिनों हाईकोर्ट इलाहाबाद के न्यायाधीश पद से तुरंत तुरंत रिटायर हुए थे। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के भवन के सामने , हिन्दू हास्टल से लगा लगभग दस एकड़ में फैला उनका भव्य मकान, बहुत बड़ा लान और कई नौकर चाकर। वर्ष 1977 का कुम्भ मेला सकुशल सम्पन्न कराने की ज़िम्मेदारी कुम्भ मेला अधिकारी के रूप में निभा रहे मेरे आई.ए.एस. मामा जी श्री सुशील चन्द्र त्रिपाठी भी उन दिनों वहीं थे। सबसे छोटे मामा सुधीर चन्द्र त्रिपाठी आई.ए.एस.की तैयारी कर रहे थे और एक और मामा श्री प्रकाश चन्द्र त्रिपाठी उच्च न्यायालय में वकालत कर रहे थे । जज साहब बाहर ही बरामदे में बैठे सुबह की चाय पी रहे थे। प्रणाम - आशीर्वाद के बादउन्होंने आने का कारण पूछा । मैंने पिताजी का पत्र झट से आगे बढा दिया । इस बीच मेरे लिए भी चाय आ चुकी थी।
''अच्छा! तो तुमको नौकरी मिल गई है ! ''...थोड़ी देर के मौन के बाद वे आगे बोले –''देखें तो तुम्हारा एपाइन्टमेन्ट लेटर ! '' मैंने झट से अटैची खोली और पेपर्स आगे बढ़ा दिए । वे उसे पढ़ने लगे ...इसके बाद फिर मौन ।
''क्लास थ्री ..नान गजेटेड?....अच्छा ?'' वे हलके स्वर में बोल रहे थे । मैंने समझ लिया
कि मेरी इस नौकरी से वे बहुत प्रसन्न नहीं हुए
जबकि मेरे लिए कचहरी के नरक में डूबने -
उतराने से लाख गुना अच्छा यह आफर था । नौकरी चाहे वह क्लास थ्री की हो या नान गजेटेड !कम से कम मनचाही है , सरकारी तो है ? थोड़ी देर में नौकरी सम्बन्धी पेपर मेरे हाथ में वापस आ गए । मुझे उन्होंने अपने ऑफिस कम लाइब्रेरी में डेरा डालने का आदेश सुना दिया था । नौकर ने उसी में एक चारपाई डाल दी , एक स्टूल रख दिया । सुबह के लगभग दस बज चुके थे और मैंने नहा धोकर नाश्ता करके नाना - नानी आदि का पैर छूकर प्रस्थान कर दिया ।
मुझे नहीं पता था कि वहां का आकाशवाणी केंद्र किधर है और उनसे पूछने में डर लग रहा था । किसी ने बता रखा था कि हाथी पार्क से यू. पी. एस. सी.वाली सड़क पर नाक की सीधाई में चलते जाना,चलते ही जाना । मैंने रिक्शा लेना मुनासिब समझा और अब मैं दयानन्द मार्ग के आखिरी छोर पर स्थित आकाशवाणी इलाहाबाद के गेट पर हाज़िर था । दो हिस्सों में बंटी हुई यह बहुत पुरानी बिल्डिंग थी।गार्ड को अपने आने का कारण बताया तो उसने अन्दर जाने दिया ।
मैं अब अपने जीवन के एक नये अध्याय में प्रवेश कर रहा था जिसके साथ मेरे ढेर सारे आत्मगन्धी संस्मरण जुड़ने वाले थे । ढेर सारे लोग जीवन में प्रवेश करने वाले थे ।
परिवार और घर- द्वार से निकल कर मैं अब एक अनजानी, अचीन्ही दुनिया में प्रवेश कर रहा था यह उत्कंठा लिए कि उस पार ना जाने क्या होगा ?
(क्रमशः...अगले अंक में )