अनकहाअधिक रह जाता है-आत्मकथा !
अनकहाअधिक रह जाता है-आत्मकथा !
शिवमंगल सिंह सुमन की एक कविता है – “ बात की बात”, जिसमें वे लिखते हैं-
“इस जीवन में बैठे - ठाले ऐसे क्षण भी आ जाते हैं,जब हम अपने से ही अपनी बीती कहने लग जाते हैं। तन खोया - खोया सा लगता, मन उर्वर सा हो जाता है। कुछ खोया सा मिल जाता है कुछ मिला हुआ खो जाता है। लगता सुख दुःख की स्मृतियों के कुछ बिखरे तार बुना डालूं, यों ही सूने में अंतर के कुछ भाव - अभाव सुना डालूं।कवि की अपनी सीमाएं हैं, कहता जितना कह पाता है, कितना भी कह डाले लेकिन, अनकहा अधिक रह जाता है ...! ”
सचमुच अगर आप अपने जीवन का लेखा - जोखा प्रस्तुत करने चलें तो बहुत कुछ अनकहा रह जाता है क्योंकि सुधियों के समुंदर में डुबकी लगाना आसान तो है लेकिन सकुशल स्मृति रूपी रत्नों के साथ बाहर आना मुश्किल है। कुछ ऐसा ही अनुभव इन दिनों हो रहा है “आमी से गोमती तक “की अपनी आत्मकथा लिखने के दौरान !
ज़िंदगी एक कठिन परीक्षा है जिससे होकर गुज़रना आसान नहीं होता है। हाई स्कूल, इंटर, बी.ए और एल.एल.बी. की परीक्षा तो एक समयबद्ध और पूर्व निश्चित कोर्स की थी लेकिन ज़िंदगी की ..? न तो उसकी समयबद्धता है और ना ही उसका कोई निश्चित कोर्स।ऐसा आपने भी अनुभव किया होगा।
मैं अब विश्वविद्यालय पहुंच चुका था।वर्ष 1973 से लेकर वर्ष 1976 तक की अवधि मैंने वहीं बिताई।बी.ए.उत्तीर्ण करने के बाद एल.एल.बी.में दाखिला ले लिया।बी.ए.में जिस साल दाखिल हुआ उसी साल से छात्रसंघ के चुनाव की घोषणा हुई।पिछले कई सालों से सर्कार ने बैन कर रखा था। मैंने भी छात्रसंघ और डेलीगेसी में स्नातक वर्ग के छात्रों का दो वर्षों तक प्रतिनिधित्व किया और छात्र राजनीति के ककहरे सीखे।वर्ष 1971-72 में मेरे सम्पादन में पहली बार विश्वविद्यालय छात्रसंघ की वार्षिक पत्रिका प्रकाशन प्रारम्भ हुआ।
उसके बाद मेरे मित्र श्री प्रदीप कुमार गुप्त के सम्पादन में वर्ष 1972-73 में और फिर डा.चितरंजन मिश्र के सम्पादन में वर्ष 1982-83(विश्वविद्यालय के रजत जयंती वर्ष में ) में ऎसी पत्रिका छपी और बंद हो गई। आजकल हिमांचल प्रदेश के राज्यपाल पद सुशोभित कर रहे राज्यपाल श्री शिवप्रताप शुक्ल जो मेरे गाँव की और के हैं, उन दिनों मेरे साथ थे और उनका विशेष सहयोग मुझे मिला था। विश्वविद्यालय प्रशासन के लिए छात्रसंघ की यह पहल एक अलग ही अनुभव दे गया था और मुझे व्यक्तिगत रूप से बुलाकर प्रोफेसर आर. पी. रस्तोगी (पूर्व वी. सी., बीएच.यू.) और प्रोफेसर एन.के.सान्याल ने चाय पर बुलाकर बधाई दी।विश्वविद्यालय की साहित्यिक गतिविधियों में मैं भाग लेता रहा। उन दिनों राजनीति के धुरंधर समाजवादी मधु लिमये,नेपाल के भू.पू.प्रधानमंत्री बी. पी. कोईराला, एन.सुब्बा राव आदि को नजदीक से जानने का अवसर मिला।
आजकल हिमांचल प्रदेश के राज्यपाल पद सुशोभित कर रहे राज्यपाल श्री शिवप्रताप शुक्ल उन दिनों मेरे साथ छात्रसंघ में कार्यकारिणी समिति के सदस्य थे।मुझे याद है कि छात्रसंघ पत्रिका – 1 में उनकी एक काव्य रचना भी छपी थी,शिव प्रताप “सेवक” के नाम से जिसका शीर्षक था – “मानव” .....जिसकी कुछ पंक्तियाँ थीं- “ ह्रदय रो उठा उनका भी क्रंदन सुनकर,पर यह क्या है दहल उठा उनका भी जीवन।”
यह भी संयोग देखिए कि गोरखपुर में ब्राम्हण – ठाकुर संघर्ष की पटकथा भी उन्हीं दिनों( 1970 से 1980 के दशक में ) लिखी जा रही थी। मकान पर कब्जा, सरेराह लूट-पाट और हत्या,फिरौती,खुलेआम हिंसा का तांडव ...यह सब देखकर इसे “क्राइम कैपिटल ऑफ़ नार्थ इण्डिया” कहा जाने लगा था।बी.बी.सी. की सुर्ख़ियों में रहने लगा यह शहर। दोनों ग्रुप के पर्दे के पीछे रहने वाले लोगों ने छात्र राजनीति को भी प्रभावित करना शुरू कर दिया था। छात्रसंघ के अध्यक्ष रहने के बाद जातिगत दबाब बनाते हुए रेलवे आदि के ठीका लेने वाले हरिशंकर तिवारी, कल्पनाथ राय,दयाशंकर दुबे,रवीन्द्र सिंह, बलवंत सिंह, अम्बिका सिंह,ओमप्रकाश पासवान,वीरेन्द्र शाही,राधेश्याम सिंह,अमर मणि, रंग नारायण पाण्डेय के क्रम में अनेक युवा सुर्ख़ियों में बने रहे थे।1985 में गोरखपुर के वीर बहादुर सिंह के मुख्यमंत्री बनने के बाद जब इन पर लगाम लगनी शुरू हुई तो इन्होने राजनीति का दामन पकड़ा और पहले विधायक और फिर मंत्री भी बने।
वर्ष 1995 से 1998 तक श्रीप्रकाश शुक्ला नामक यंग एंग्रीमैन का वर्चस्व रहा और उसके ढेर होने के बाद से ही सच मायने में गोरखपुर का यह जातिवादी दावानल शांत हो सका है। हालांकि राख में दबी आग की तरह जातिवाद का ज़हर अभी भी इस शहर में विद्यमान है। गनीमत यह रही कि मैं जिस दौर में छात्रसंघ की राजनीति में उतरा उसने समाज को नेता तो दिया लेकिन उनका कोई क्रिमिनल बैकग्राउंड नहीं रहा। जैसे – जगदीश लाल, अरुण कुमार श्रीवास्तव,अवधेश कुमार उपाध्याय,राज मणि पाण्डेय राम सिंह, शीतल पाण्डेय, शिव प्रताप शुक्ला,गनपत सिंह, राजधारी सिंह ..आदि।
विश्वविद्यालय की अपनी पढ़ाई के दौरान मेरा गाँव आना - जाना जारी रहा। उन दिनों बात – बात पर छात्र आन्दोलन हुआ करते थे और प्रशासन द्वारा उसे शांत करने का सरल उपाय यूनिवर्सिटी परिसर में पी.ए .सी.बल को उतार देना और उसे बंद कर देना होता था।हास्टल खाली हो जाता था और छात्र बेकार हो जाया करते थे। मैं उन दिनों का उपयोग साहित्यिक पुस्तकें पढ़ने और अपने लेखन के लिए भी करता था
आप इसे चाहे बुरा कह लें या भला, युवावस्था से ही मेरी यह धारणा रही है कि देह से गुज़रे बिना प्यार सम्भव नहीं है। अगर वह देह से इतर है तो उसे हम “प्लेटोनिक लव” की ही संज्ञा दे सकते हैं..और कुछ नहीं। एक और महत्वपूर्ण बात यह कि प्यार की प्रकृति कंजूस जैसी नहीं होती है। वह तो जब चाहो लुटा देने वाली चीज़ है। जो एक दूसरे के प्रति समर्पण या निष्ठा की बात करते हैं वे या तो झूठ बोलते हैं,आत्म संतुष्टि के लिए कहते हैं या भ्रम के शिकार हैं। और अब आज के उस दौर में तो भूल ही जाया जाय जब खुलेआम “लिव इन रिलेशन” को समाज मान्यता प्रदान कर चुका है। मैंने इन दोनों प्रकृति के प्यार को जिया है और अपने अंतिम दम तक जीना चाहता हूँ। विश्वविद्यालय में तारा और नौकरी के शुरुआती दौर में धीरा नामक युवतियां मेरी “प्लेटोनिक लव” थीं और जीवन में आई ढेर सारी जानी - अनजानी युवतियां-महिलाएं मेरा प्यार थीं। मुझे अपने जीवन के इस आखिरी दौर में न कोई गिला है, न शिकवा..मैंने जो जिया, भरपूर जिया।
श्री गोपाल दास नीरज के शब्दों में –
“ जब चले जायेंगे लौट के सावन की तरह,
याद आयेंगे प्रथम प्यार के चुम्बन की तरह।
ज़िक्र जिस दम भी छिड़ा उनकी गली में मेरा,
जाने शरमाये वो क्यूँ गाँव की दुल्हन की तरह।
कोई कंघी न मिली जिससे सुलझ पाती वो,
ज़िंदगी उलझी रही ब्रम्हा की दर्शन की तरह।
दाग मुझमें है कि तुझमें यह पता तब होगा,
मौत जब आएगी कपडे लिए धोबन की तरह।
हर किसी शख्श की किस्मत का यही है किस्सा,
आए राजा की तरह,जाए निर्धन की तरह।
जिसमें इंसान के दिल की न हो धड़कन ‘नीरज’,
शायरी तो है वह अखबार की कतरन की तरह। ”
हाईस्कूल से ही मैनें मुहल्ले के हम उम्र बच्चों को लेकर एक बाल वाचनालय “प्रगतिशील बाल वाचनालय” बनाया था और युवा होने पर उन्हीं के साथ मिलकर बना था एक संगठन बना “प्रगतिशील नवयुवक संगठन।” उन दिनों प्रगतिशील शब्द का उपयोग प्रचलन में था। मेरे अत्यंत निकट मित्र प्रदीप कुमार गुप्ता और मो.अज़हर हुसैन संगठन के पदाधिकारी थे। उसकी ओर से भी वर्ष 1970 में एक पत्रिका निकली थी – “आह्वान” जिसके सम्पादन का दायित्व मैंने निभाया था। पत्र-पत्रिकाओं में मेरी लिखी बाल कविता, कहानियाँ, लेख,परिचर्चाएं छपने लगी थीं जिसका क्रम आज तक बना हुआ है।युवावस्था से ही मेरी साहित्यिक रुझान के ये प्रमाण हैं।
मैं जब बी.ए. में था तो राजनीति शास्त्र के साथ हिन्दी और अंग्रेजी साहित्य भी मेरे विषय थे। अंग्रेजी तो नहीं किन्तु हिन्दी साहित्य में मेरी गहरी रूचि थी।इन्हीं दिनों मैनें लाइब्रेरी से ईशू करा कर हरिवंश राय बच्चन की लिखे कविता संग्रह और उनकी आत्मकथा का अध्ययन किया। ‘मधुशाला ‘ तो बार बार पढ़ डाली मैंने।
“ मुसलमान और हिन्दू हैं दो, एक मगर उनका प्याला।
एक मगर मदिरालय उनका, एक मगर उनकी हाला।
दोनों रहते एक न जब तक मस्जिद मन्दिर में जाते,
बैर बढ़ाते मस्जिद मन्दिर, मेल कराती मधुशाला।।”
लेकिन उनकी कविताओं से ज्यादा उनकी आत्मकथाओं ( “क्या भूलूं क्या याद करूँ –वर्ष 1969 और “नीड़ का निर्माण फिर- वर्ष 1970 )“ ने मुझ पर जादू का असर किया और उनके प्रति मेरा कौतूहल बढ़ता चला गया। आगे चलकर मेरे और उनके बीच अनेक रोचक पत्राचार हुए और उनके स्नेह का मैं आजीवन भाजन बना।उन्होंने उन्हीं दिनों मेरी अधूरी काव्य संकलन की पांडुलिपि के लिए अपना आशीर्वाद भेजा था जो आगे चलकर मेरे काव्य संकलन “काव्य किसलय” की शोभा बनी।उन्होंने लिखा था –
“ सम्मान्य बन्धु,
पत्र – सद्भावना के लिए धन्यवाद। प्रसन्नता है कि आपका काव्य संकलन प्रकाशित होने जा रहा है .आपकी कृति जन रंजन सज्जन प्रिय सिद्ध हो. अपने कवि के विकास एव अपने मंगल कल्याण के लिए मेरी शुभकामनाएं स्वीकार करें . स्वास्थ्य अनुकूल न होने से भूमिका लिखने में असमर्थ रहूँगा .कृपया क्षमा करें !..
सादर, - बच्चन। ”