AMIT SAGAR

Inspirational

4.7  

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अनसुने किस्से-1

अनसुने किस्से-1

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दोस्तो बात 1974 की‌ है जब हमारे देश में अचानक ही इमरजेंसी लगने के कारण कई सरकारी महकमो में कुछ तब्दीलियाँ करनी पड़ी थीं । इन तब्दीलियोँ के कारण बहुत से लोगों की नौकरियाँ दाँव पर लग चुकी थी , और अपनी- अपनी नौकरीयाँ बचाने के लिये लोगो ने उस समय ना‌‌ जाने क्या कुछ नहीं किया था । अफसर लोगो से सिफारिशे कीं , उन्हे रिश्वत का लालच दिया , उनके सामने अपने बीवी - बच्चो की दुहाई दी , उन्हे भगवान का वास्ता दिया , पर उनके सारे जतन फिजूल ही रहे , क्योकि सरकारी फरमान के आगे अफसर लोग भी बेबस थे । हालाँकि उनमें से कई पैसो के लालची अफसरों ने झूठा दिलासा देकर बहुत लोगो से धन भी ऐंठा था । नौकरी मिलने की ‌आस के विस्वास पर सरकार द्वारा सताये लोगो से अफसर लोग जो कुछ कहते थे वो उनको करना पड़ रहा था । हद तो तब हो गई जब धन के अपार चट्टे लगने के बाद कुछ दरिन्दे अफसर अब तन की भी माँन करने लगे थे । कहते हैं शराफत की इन्तेहाँ और लालच की हद जब अपने अन्तिम चरण में पहुँच जाती है तब कोई ना कोई मसीहा जन्म लेता है । पर यह कलयुग है साहब और इस घौर कलयुग में कोई भी मसीहा भगवान की गौद से उतरकर नहीं आयेगा , यहाँ तो जब कोई ईमानदार आदमी अपनी  ईमान की अगिंठी पर पाप को जला देता हैं वही मसीहा बन जाता है । और ऐंस ही एक मसीहा हमारे मुरादाबाद रेलवे में मौजूद थे जिनका नाम श्री प्रेम कुमार भागी था , जो कि  ब्र‍ान्च सेक्रेटरी की पोस्ट पर कार्यरत थे । 1964 में उनकी शादी हो गयी थी, और अभी उनके पास दो बेटियाँ हैं । 

एक तरफ जहाँ निचली पोस्ट वाले रिश्वत से अपनी जैबे गरम कर रहे थे , घरों पर चाँदी की परते चढ़वा रहे थे , महंगे होटलो मे जाकर अव्वल नम्बर की शराब , शबाब औेर मुर्गे -मुसल्लम से अपनी शाम को रंगीन बना रहे थे । वहीँ दुसरी ओर इतना उँचा औहदा होने पर भी हमारे सेक्रेटरी साहब एक केप्सटन की सिग्रेट पीने से पहले भी दस बार सोचते थै । जी हाँ , जनाब को सिग्रेट की लत थी , और कभी कभी शराब भी पी लिया करते थे , पर अपनी लत को उन्होने अपने इमान पर कभी हावी ना होने दिया । हमारे सेक्रेटरी साहब दुसरो को कष्ट देकर खुद का शौक पूरा करने वाले लोगों में से ना थे , वो खुद को कष्ट देकर अपना शौक पूरा करना भलि भाँति जानते थे । इस इमरजेंसी के दौरान अगर सेक्रेटरी साहब चाहते तो अपना घर सोने की ईँटो से बनवा सकते थे , पर जिसने सारा जीवन मुफलिसी के दर्द को सहन किया हो उसके लियें पाप की कमाई से मिले हुए एशो-आराम , हराम होते हैं  , यह पाप का धन जहरीलें नाग का फन होता हैं , जो कि ईमान डगमगाने पर इन्सान को धीरे धीरे डसता रहता है । 

सेक्रेटरी साहब के नीचे वाले भी और ऊपर वाले भी धड़ाधड़ रिश्वत ले‌ रहे थे । रिश्वत की इस अन्धी और नंगी दौड़ में हर कोई आगे निकलने की कौशिश रहा था । पर इस दौड़ में दौड़ने वाले नामुरादी लोगो के बैगेरत इरादो पर तब पानी फिर गया जब उन्हे यह पता चला कि किसी की भी खोई हुई नौकरी मिलना अब नामुमकिन है । कहते हैं वक्त पलटते दैर नहीं लगती , कल जहाँ रिश्वत के पैसो से महफिले जम रहीं थी , नाचने वालियों के सामने एक दुसरे के सिर पर पैंसे लुटाये जा रहा थे , वहीँ आज एक दुसरे के सिर पर जुते बरसाये जा रहें हैं । कल जहाँ हलीम - ‌हलवे और मलाई मुर्गे खाये जा रहे थे , वहाँ आज खाने को गालियाँ मिल रहीं थी । वहीँ हमारे सेक्रेटरी साहब कल जहाँ ईमान धरम की दाल रोटी खाकर मस्त थे , वहीँ आज उससे भी बढ़कर चैन-ओ-सुकून की साग सब्जी खाकर मदमग्न थे । 

जिन लोगो ने नौकरी वापस पा‌ने के लालच में अफसरो को रिश्वतें दी थी  वो अब हताश होकर अपना दिया हुआ पैसा वापस माँग रहे थे । गरीबो की लानते और गालियाँ सुनने से बचने के लियें अफसर लोगो को ऑफिस में छुपने की जगह कम‌ पड़ रही थी । दफ्तरो मे उस दौरान काम कम और हाये हगांमे ज्यादा हो रहे थे । यह हाय हगांमे‌ दिन भर चलते थे और हर दिन चलते थे । अफसरो के रिश्वत खाये हुए पश्चाताप भरे चेहरे और गरीबों की टुटी हुई आस के रोते हुए चेहरे हमारे सक्रेटरी साहब से देखे ना गये क्योकिं ईन्सान अच्छा हो या बुरा दुख दर्द का एहसास सबको बराबर होता है , और इसी दर्द की समस्या के समाधान हेतु हमारे सेक्रटरी साहब उन नौकरी छुटे हुए लोगो का हक दिलाने के लियें उन लोगो को साथ लेकर सड़क पर उतर आये । इस दौरान कुछ भूखँ हड़ताले हुई , कुछ लाठी चार्ज हुए , कुछ वाद-विवाद हुए और अन्त में हमारे सेक्रेटरी साहब को चौदाह दिन के लियें जेल की हवा भी खानी पड़ी , पर यह हमारे देश और इस युग की कोई नई बात नहीं थी , यहाँ जब जब किसी ने अच्छाई और सच्चाई का साथ दिया है , उसके साथ कुछ ना कुछ बुरा तो होता ही है । खैर , हमारे मुरादाबाद का यह किस्सा हाईकमान तक पहुँच गया और  इस किस्से की जाँच पड़ताल हुई । सरकार को उन नौकरी छुटे हुए लोगो के दर्द का  एहसास हुआ और उन्होने सभी की नौकरियाँ वापिस दे दी । सभी लोग अपनी अपनी नौकरियाँ पाकर खुश थे , यह खुशी हमारे सेक्रेटरी साहब के प्रयत्नो का फल था , जो कि सब बड़े चाव से खा रहे थे । 


1982 में हमारे सक्रेटरी साहब को पुत्रफल की प्राप्ती हुई , जी हाँ साहब के घर बेटे ने जन्म‌ लिया । वक्त धीरे धीरे आगे बढ़ रहा था , साहब बेटे को वो सबकुछ सीखाना चाहते थे जो उन्होने खुद सीखा था । सादगी , सच्चाई , ईमान्दारी और सदाचार से जीवन यापन करने में उन्हे एक विशेष आनन्द प्राप्त होता था , और इस आनन्द को सिर्फ महसूस किया जा सकता है , बयाँ नहीं किया जा सकता । सेक्रेटरी साहब के बेटे को विरासत में ईमान के अलावा और कुछ और ना मिल सका ।  

बेटे के लियें एक तरफ पिता की सच्ची बातो के सुर थे , दुसरी तरफ खुद की चाहतोे के ताल थे, और तीसरी तरफ समाज की रगींन दुनिया के राग थे , इस सुर ताल और राग की  चमक धमक से बेटा कभी बहक रहा था , कभी फिसल रहा था । जैंसे जैंसे बेटा बड़ा हो रहा था वैसे वैसे बाप बेटेे में थोड़ा मरभैद होता जा रहा । बेटे ने बाप से सीखा तो बहुत कुछ पर जिस दौर मैं वो जी रहा था उसमे रुत्बे से ज्यादा रुपयो को महत्ब दिया जाता है , और यही सब कुछ देखकर बेटे का  मन हमैशा विचलित रहता था । 

जिन लोगो को खोई हुई नौकरी वापिस मिली थी वो सभी लोग अच्छी तरह जानते थे कि सेक्रेटरी साहब ने कभी रिश्वत नहीं ली फिर भी उन नौकरी मिले लोगो मे से 23 लोगो ने चार लाख साठ हजार रुपये इकट्ठा किये और सेक्रेटरी साहब से कहते हैं कि यह रिश्वत नही है यह हमारी खुशी है जो हम सब लोग आपके साथ बाँटना चाहते हैं । सेक्रेटरी साहब ने उन पैसो में से एक सिग्रेट की डिब्बी मँगवायी और दस मिनट में सारी सिग्रेट पी गये , एक साथ दस सिग्रेट पीने से साहब को खाँसी उठने लगी , यह देख सभी लोग अचम्भित रह गये उन 23 लोगो मे से किसी एक ने पूँछा साहब आप तो रोज केवल एक ही सिग्रेट पीते हो आज दस की दस एक साथ पी गये , आपको कुछ नुकसान हो गया तो ? सेक्रेटरी साहब ने कहा आप लोगो ने मुझे इतने सारे पैसो के एक साथ दर्शन करवा दिये मेरे लियें यही बहुत बड़ी बात है , रही बात इनको रखने की तो भैया दस रुपये की सिग्रेट पीने से मुझे खाँसी हो गयी अगर मैंने इन चार लाख साठ हजार की सिग्रेट पी ली तो पक्का मर ही जाउंगा , पर मैं अभी मरना नहीं चाहता , हाँ अगर आप लोग मुझे मारना चाहते हैं तो यह सारा रुपिया मेरी झोली में डाल दो । 

सेक्रेटरी साहब की बात सुनकर सब के मुँह पर ताला सा लग गया , साथ ही सबके चेहरे मुरझा गये , जबकि साहब के चेहरे पर एक अलग ही लालिमा थी । शाम को जाकर जब यह बात सेक्रेटरी साहब ने अपने परिवार बालो को बताई तो पत्नि और दोनो बेटियों के चेहरे पर एक अनमोल खुशी थी , साहब के चेहरे पर गर्व छलक रहा था , पर बेटे के चेहरे पर चार लाख साठ हजार के हसीन सपनो की चमक थी जो कि पहले ही टूट चुके थे । 

2003 में साहब का रिटार्यमेंट हुआ , जो पैसा मिला वो धीरे धीरे पत्नी की बाईपास सर्जरी में लग गया , अब साहब और साहब की फैमली सिर्फ और सिर्फ पैंसन पर निर्भर थी । बेटे ने ग्रेजुएशन तो कर लिया पर अच्छी नौकरी ना पा सका । बेटे को जितनी तनख्वा मिलती उससे बीस दिन तो अच्छे से कट जाते पर बाकी के दस दिन बेटा अभी भी बाप पर ही निर्भर था ।

और अन्त में एक दिन हमारे मुरादाबाद रेलवेय मण्डल के सेक्रेटरी साहब हमैशा के लियें दुनिया छोड़कर चले गये । बेटे के काँधो पर बाप की अर्थी तो थी पर आँखो में आँशु की जगह महीने के उन दस दिनो की चिन्ता थी जो पिता के देहान्त के बाद अब तंगहाली से गुजरने वाले थे । 

यह हमारे मुरादाबाद की एक सच्ची कहानी है , जो ना तो किसी को याद है , और ना ही किसी की यादों में है , ना किसी किताब में है , और ना ही किसी किस्से में है । यह कहानी तो हमारे सक्रेटरी साहब के बेटे के दिल के किसी कोने मे पड़े बन्द ताबूत में दफन थी जो मेरे व्यवहार के कारण मुझ तक आ पहुँची और मैं इसे आप तक पहुँचा रहा हूँ ।



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