चौकोर
चौकोर
रास्ता तो वही था, जिससे होकर हर रोज गुजरते थे हम। गाते - गुनगुनाते हुए, बातें करते हुए, लहराते हुए, एक - दूसरे का कसकर हाथ थामे हुए, कभी तेज कदमों के साथ तो कभी थम - थम कर एक - दूसरे को गुदगुदाते हुए। लोग भी पहचाने हुए थे लगभग सारे उस वक़्त अपने - अपने रोजमर्रा के कामों के लिए इस रास्ते से गुजरते हुए नज़र आते थे। कभी - कभी कोई प्यारी सी मुस्कान के साथ गुजरता तो कोई हाथ हिलाकर शुभ प्रभात करते हुए। सबकुछ इतना सुहाना और सामान्य - सा बन गया था की हम भी इसके आदि बन चुके थे। शोरगुल और चहल - पहल के बीच भी हम बड़ी आसानी से ढल जाते हैं जब आना - जाना हर दिन का होता है। और हर दिन ही मैं अपने 7 साल के बेटे को स्कूल बस तक छोड़ने इस मोड़ पर आती थी जहां चार रास्ते मिलते थे। दुकाने लगी थीं रोड़ के किनारों पर, कुछ ठेले, कुछ रिक्शे कुछ टैक्सीयाँ हर दिन ही होती थीं इस चौकोर मोड़ पर।
आज तक कभी मेरा बेटा मेरा हाथ छुड़ाकर किसी गुब्बारे वाले के पीछे नहीं भगा ना कभी हाथ छुड़ाकर स्कूल बस की तरफ दौड़ा और ना कभी मैंने बस में चढ़ने तक उसका हाथ छोड़ा फिर आज ये कैसी मनहूसियत हुई जो एक लापरवाह इंसान ने रास्ता पार करते हुए हम दोनों को बेरहमी से अपनी कार से उड़ाकर बिना रुके, बिना मुड़े, बिना अपना अपराध जाने, बिना जाने की हम जिंदा हैं या उसकी कारगारी कामयाब हो गई। निकल गया वो आगे, बहुत आगे भाग गया। मगर, ये उसकी जीत तो कदापि नहीं हो सकती जो किसी का जीवन पूरी तरह तबाह कर जाये।
मैं जरा दूर रास्ते से जा गिरी थी, सिर पर चोट आयी थीं और पैर भी चोटिल गया था मेरा। मगर, होश में जल्द ही आ गई थी मैं शायद इस ख्याल नहीं होश पूरी तरह जाने नहीं दिया की, मेरा बच्चा तो ठीक है ना.........??? चारों तरफ देखा तो लोग हमें घेरे खड़े थे। जो आते - जाते हुए इतने वक़्त में पहचानते थे वो रो भी रहे थे, एम्बुलेंस अभी आयी नहीं थी। मगर, मेरी नज़र शून्य हो चुकी थी अपने बच्चे को लहूलुहान अपने पास रखा हुआ देख कर। वो शांत पड़ चुका था, कोई सुगबुगाहट उसके शरीर में नहीं थी। मेरा हाथ उसे छूकर देखने से पहले ही कांप रहा था, मैं रोना नहीं चाहती थी क्यूँकि, उसे खोने तक का ख्याल आने नहीं देना चाहती थी किसी हाल में, मैं ही क्या कोई माँ अपने बच्चे को ऐसी हालत में देखने की कल्पना भी नहीं करना चाहती कभी। मैंने, आख़िर उसके सीने पर अपना सिर रख दिया और सुनने लगी उसकी धड़कने चुपचाप। अपनी सिसकियाँ रोकर, अपनी तेज साँसों को थामकर, अपने मुँह पर जोर अपनी हथेली रख आवाज़ दबाकर, आँसूओं का सैलाब रोके।
नहीं...... नहीं...... ये नहीं हो सकता....... मुझे सबकुछ सुनाई दे रहा है, गाड़ियों की हॉर्न की आवाज़, भींड की आवाज़, मोड़ पर रूकते - भागते लोगों की आवाज़, दूर जाती ट्रैन की आवाज़, सायरन की आवाज़, कुत्तों के भोंकने तक की चौकोर तक पहुंच रही आवाज़ सुनाई दे रही थी। बस सुनाई नहीं दे रही थी तो वो थी मेरी बच्चे की धड़कनें। उसकी साँसों की आवाज़ाही की कोई कंपन नहीं थी। वो निढाल पड़ा था मेरी गोद में। एम्बुलेंस में किसी तरह हमें बिठाया गया। किसी ने उस कार वाले का नंबर दे दिया जिसने आज तबाह कार दिया था मेरा जहां सारा - का - सारा। कैसे दिखाई नहीं दिया उस जल्दबाजी के मारे इंसान को की, इस सड़क पर और भी लोग हैं जिनकी अपनी जिन्दगी है, काम है। व्यवस्ता होने के बावजूद सब उसकी तरह बेफिक्र और मतलबी नहीं हैं। जीवन का मोल समझने वाले भी हैं यहाँ जो सब्र से, तसल्ली से चलते हैं ताकि उनके कारण किसी और की हँसती - खेलती दुनियाँ ना बिखर जाये।
मैं क्या करूंगी जी कर जब मेरा चिराग ही मेरी आँखों के सामने बुझ गया। उसकी कितनी बालाएं लिए मैंने जिससे उसे किसी की नज़र ना लगे, कितनी मन्नतें मांगी उस बिन पिता के सिर्फ मेरा सहारा बनकर रह रहे मासूम की खातिर। फिर ऐसा कैसे हो गया... मैं उसके साथ क्यूं नहीं मर गई....। अब क्या कोई बात मुझे जीने की आशा दे पाएगी, कैसे उसके बिना मैं खाउंगी, मुस्कुराऊंगी। पंद्रह दिन अस्पताल में रहने के बाद मैं वापस अपने मकान पहुँचा दी गई। अब ये घर मेरे बच्चे के बिना मकान भी नहीं खंडहर रह गया था। उसके छोटे से चौकोर कमरे के कोने में बैठी एक - एक चीज को निहार रही हूँ जिसे मैंने बड़े जतन से अपने बच्चे की पसंद के हिसाब से सजाया और लगाया था। ये जीता जागता और खिलखिलता हुआ कमरा आज निर्जीव हो चुका है। किसी में कोई प्राण नहीं बचा, सब निष्क्रिय और निषप्राण हो चुके हैं।
उस चौकोर मोड़ पर अब सन्नाटा पसरा है मेरे लिए। जैसे मेरी जीवन में व्याप्त है अब ये ख़ामोशी सदा के लिए।