Jhilmil Sitara

Others

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मेरी कुर्सी

मेरी कुर्सी

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शादी के सात साल बाद भी मुझे (मीनल ) वो सम्मान नहीं मिला की मैं पूरे परिवार के साथ बैठ कर भोजन कर सकूँ। खाने की मेज की कोई कुर्सी कभी मेरे लिए खाली नहीं थी, होती तब जब मैं अकेली आखिर में खा रही होती।


स्कूल के दिनों से अध्यापकों को सम्मानित रूप से उनकी कुर्सी पर विराजमान देख मैंने भी मन में एक सपना संजोया था की, एक दिन मैं भी किसी पहचान को प्राप्त कर, सफल होकर अपने ऑफिस में बैठूंगी जहाँ मेरी कुर्सी सिर्फ मेरी होगी। मेरे ओहदे का प्रमाण होगी, मेरी शान होगी। पढ़ने में अच्छी होने के बावजूद, उच्च शिक्षा हासिल करने के बाद भी मैं अपने सपने नहीं पूरी कर पाई क्यूंकि, पारिवारिक सहयोग नहीं था। घरवालों को मेरे लग्न की फ़िक्र थी, सपनों की कोई परवाह नहीं थी।


मैं बैठी कुर्सी पर जब, मेरे सामने मेरा होने वाला संभावित पति था। मैं नौकरी करने के अरमान से दूर पत्नी होने के लिए इंटरव्यू दे रही थी और पसंद कर नियुक्त भी कर ली गई एक ही मुलाक़ात में अजनबी की जीवन संगिनी बनने हेतु। फिर बैठी सजी - धजी दुल्हन बनकर जयमाला की कुर्सी पर। उस दिन लगा इतने रंगों - रौशनी के आगे शायद मेरी अलग पहचान का सपना भी धूमिल हो जायेगा अगर मैं इनकी चमक के आगे देखने की अपनी दृष्टि खो दूंगी आज। मन ही मन निश्चय किया जारी रखूंगी कुछ बनने की चाहत मैं। 


जब अपने घरवालों ने ही ध्यान नहीं दिया मेरी मेहनत पर, इकलौती ख़्वाहिश पर तब इनको क्या दोष दूँ जिन्होंने मुझे चुना ही था सिर्फ देखभाल के लिए इस घर और परिवार की, आए हुए मेहमानों की खातिरदारी के लिए, त्योहारों की तैयारी कर रौनक बढ़ाने के लिए, घर का कोना - कोना चमकाने के लिए, गरमागरम खाना परोसने के लिए, मौसमी अचार बनाने के लिए और सबके जागने तक खड़े रहने के लिए। कुर्सी तोह मेरे नसीब में था ही नहीं जैसे चैन से बैठने के लिए भी नहीं।


सोचती हूं शायद मैंने कोशिश नहीं की अपने कदम अपनी पहचान बनाने की ओर नहीं बढ़ाये। मगर, अपनों के सहयोग के बिना कैसे मुमकिन होता ये भला। मेरे पति ने यह जानते हुए की मैंने कितनी पढ़ाई की है और मैं उनके जरा से साथ देने पर आत्मनिर्भर बन सकती हूँ उन्होंने कभी एक शब्द इस बारे में नहीं कहा, ना सोचा ना पूछा। जब कोई मेहमान या रिश्तेदार ऐसी आई जो घर के अलावा बाहर भी कार्यरत थी मैं जब उनसे बात करने में दिलचस्पी दिखाती या कार्य करने के प्रति रुझान जाहिर करती मुझे रसोई का रास्ता दिखा दिया जाता था। मेरी तारीफ़ पकोड़े और मिठाइयों पर शुरू होकर खाने की लज़ीज़यत पर खत्म हो जाती। बहुत तारीफ़ होती तो घर की साफ़ - सफाई और घरवालों की सम्भली सेहत तक और मेरा किरदार समेट दिया जाता। ससुराल वालों को लगता मेरे कदम भी बाहरी ओर निकल पड़े तोह घर की सुख शांति खो जाएगी। समय पर धुले कपड़े नहीं मिलेंगे, चाय - नाश्ता नहीं मिलेगा, गर्म फुल्के नहीं मिलेंगे और बहु के सिर में दर्द रहना भी शुरू हो जायेगा घर - बाहर का काम करके। जबकि, सब आसान हो सकता है अगर परिवार वाकई परिवार की तरह हो और सब मिलजुलकर एक दूसरे का साथ दे और हाथ बंटाये। मगर, एक के भरोसे जीने की आदत बना लेना यहाँ आम बात है। जो बाद में घुटन बन जाती है उस अकेली जान के लिए जो बीमार होकर भी खुद को आराम नहीं करने देती, कोई प्यार से ख्याल रखना तो दूर हाल तक नहीं पूछता और घिसट - घिसट कर ज़िन्दगी जीने की आदत हो जाती है।


सपने, पसंद और अपने बारे में सोचने की आदतें खत्म हो जाती हैं और रह जाता है सिर्फ निभाते जाने का ख़्याल जो दिनचर्या की तरह शुमार हो चलता जाता है। ऐसे में सालों गुजर गए और सास - ससुराल गुजर गए, बच्चे अपनी - अपनी राह चले गए और पति ने बिस्तर पकड़ लिया और मैं अकेली उस कुर्सी पर बैठी बचे दिन काट रही हूँ। 


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