AMAN SINHA

Tragedy

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AMAN SINHA

Tragedy

दौड – मौत से ज़िंदगी की ओर

दौड – मौत से ज़िंदगी की ओर

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मैं विकास। मुझे आज भी वो दिन बिल्कुल शीशे की तरह याद है, १५ अप्रिल २००३ सुबह के साढे नौ बजे थे। मैं अभी सुबह का नाश्ता कर रहा था क्युंकि आज मुझे  नौकरी पर जल्दी जाना था। दिन सोमवार का था और मुझे आज किसी भी हालत में गद्दी पर जाना हीं था। बीते शनिवार मेरी मालिक के साथ ज़रा सी कहा-सुनी हो गयी थी जिसके कारण मुझे आखिरी चेतावनी दी जा चुकी थी। छोटे व्यापारी के गद्दी (कपडे का छोटा सा दुकान जहाँ सेठ गद्दी पर अपनी तशरीफ़ जमाये बैठता है) में काम करने वाला हरएक आदमी यह बात जानता है कि वहाँ काम करना कितना कष्टकारी है। वैसे तो मेरी आदत थी कि मैं हर रोज़ समय से पहले हीं अपने काम पर पहूँच जाता था। कभी भी देर नही करता था। मगर एक दिन पहले ही मेरे लोकल ट्रेन का पास खत्म हो गया था और उसे रिन्यु करवाने के कारण मुझे दस मिनट की देरी हो गयी थी। बस इसी दस मिनट की देरी के कारण ही मुझे मेरे सेठ ने बहूत खरीखोटी सुनायी और शर्मिंदा भी किया। यह भी कहा कि इसके बाद जिस दिन भी मैं देरी से पहूंचा मुझे नौकरी से निकाल दिया जायगा। बीते शनिवार की इस घटना से मैं इतना डरा हुआ था कि आज यानी कि १५ अप्रिल को मैं अपने रोज़ के समय से आधे घंटे पहले ही काम पर जाने के लिये तैयार हो गया।

माँ ने खाना दिया और मैं खाने बैठा हीं था कि हमारे पडोस की एक चाची दौडी-दौडी हमारे घर पर आ पहूंची। मेरी माँ को देखते हीं फूट-फूट कर रोने लगी और कहने लगी कि "कोई उसकी बेटी को बचा ले"। उसे इतनी घबराई हुई हालत में देखकर माँ भी थोडा सा डर गयी कि ना जाने क्या बात है? बेचारी इतनी डरी हुई थी कि उसकी जुबान हीं लटपटा जा रही थी। वो क्या कहना चाह रही थी और क्या कह रही थी माँ के समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था। तभी उसकी मकान मालकिन भी दौडी-दौडी आयी और कहने लगी कि "उसकी बेटी लम्बी-लम्बी सांसे भर रही है। ऐसा लगता है कि जैसे उसे सांस लेने में तक़लिफ हो रही है"। माँ फौरन मेरे पास आई और कहा कि मैं उसे लेकर हस्पताल भागूं। उस समय मैंने अपने थाली से पहला निवाला उठाया ही था लेकिन माँ की बात सुनकर मेरे हाथ का निवाला वापस सीधे थाली में जा गिरा। अपने जुठे हाथ को माँ के आंचल से पोंछते हुए मैं बाहर की तरफ भागा।

चाची के तीन बच्चे थे, और तीनों हीं लडकी। अभी-अभी कुछ दिनों पहले ही वो अपने पति के साथ यहाँ रहने के लिए आयी थी। उसके पति पहले से ही यहाँ रहते थे। यहाँ वो भी नौकरी करते थे, बिल्कुल मेरी ही तरह, एक गद्दी में। चाची अभी-अभी गाँव से आयी थी और मेरी माँ से कुछ दिनों मे हीं उन्होने एक रिश्ता जोड लिया था। वो माँ से हीं अपनी सारी बातें बताया करती थी। अपने मकान मालकिन से उसकी इतनी नहीं बनती थी जितनी मेरी माँ से बनती थी। ....खैर उनके पति के नौकरी का समय मुझसे भी पहले शुरु होता था। सुबह सात बजे हीं चले जाते थे और रात को आने का कोई निश्चित समय नहीं था। पिछले आठ दिनों से उनकी तीसरी बच्ची बीमार थी। बहुत ज्यादा बीमार। मगर पैसों की कमी के कारण, या फिर ऐसा कहें कि समय पर पगार ना मिलने के कारण अभी तक वो अपनी बच्ची का इलाज नहीं करवा पाये थे। हमें यह तो मालूम था कि उनके बच्ची की तबियत ख़राब है मगर बात इतनी गंभीर है नहीं पता थी। वरना माँ खुद ही उसे कुछ पैसे दे देती ताकि वो अपने बेटी का इलाज़ करवा सके। माँ ऐसी हीं थी।

चाची की बच्चों का हमारे घर में आना जा ना लगा ही रहता था। मैं उस समय ब मुश्किल २० साल का हीं रहा होउंगा। मुझे वो सभी भैया-भैया कहकर बुलाती थी। इसीलिये जब माँ ने मुझे हस्पताल जाने को कहा तो मै सिर के बल भागने को तैयार हो गया। उस समय मेरे दिमाग में यह बात आयी हीं नहीं कि आज गद्दी पर नहीं जाने की वजह से मेरी नौकरी भी जा सकती है। जैसा कि मैने कहा कि चाचा जी सुबह-सुबह ही नौकरी पर चले जाते है तो उनका उस समय घर पर होना मुमकिन हीं नहीं था। और फिर उस क्षण इन सभी बातों के लिये समय भी तो नहीं था। मैं और माँ दोनों हीं भाग कर उसके कमरे में जा पहुँचे तो देखा कि उनकी सबसे छोटी बच्ची जिसकी उम्र अभी दो-ढाइ साल जी थी सांस लेने में जूंझ रही थी। माँ ने नज़दिक जाकर देखा तो भी कुछ समझ नहीं आया। एक तो किराये का छोटा सा कमरा उसपर से उस कमरे में ना तो रौशनी की आने जाने का रास्ता था और ना हीं हवा का कोई ताजा झौंका हीं आ या जा सकता था। माँ को लगा कि शायद यह सब कमरे की घुटन के कारण हो रहा है। ऐसा समझ कर माँ ने बच्ची को गोद मे उठाया और कमरे के बाहर आ गयी।

बाहर लाने के बाद जब माँ की नज़र उस बच्ची पर पडी तो उसके पैरों तले ज़मीन हीं निकल गयी। बच्ची सिर से लेकर पैर तक पूरी तरह से पिली पड चुकी थी। आंखों की पुतलियाँ छोड कर ऐसा कोई भी अंग नहीं था जो हल्दी के जैसा पिला ना पडा हो। माँ को समझते देर नहीं लगी कि बच्ची पीलिया से ग्रसित है। मगर इस बीमारी में कभी भी सांस की तकलिफ होते हुए नही सुना था। चाची बेचारी गाँव की गवारन (यहाँ कम सूझ-बूझ और इलाजी समझ को दर्शाया गया है) किसी भी तरह की बीमारी को ना हीं समझती थी और ना हीं जानती ही थी। उसे अभी तक यही लग रहा था कि बच्ची को ठंड लग गयी है और इसी लिये उसे गर्म कपडों से ढंक कर हल्दी वाला दूध पिला रही थी। मुझे पता नहीं कि पीलिया में हल्दी या दूध ज़हर का काम करता है या नहीं मगर उस समय जिन लोगों ने भी यह सुना तो यही कहा कि अंजाने में माँ ने बच्ची को ज़हर दे दिया था। अब उसने जो भी किया किया मगर बच्ची में अभी भी जान बाकी थी और अगर उसे सही समय पर इलाज मिल जाता तो शायद उसकी जान बच सकती थी। यही सोच कर मैं उसे लेकर भागा। मगर मुझे नहीं पता था कि जो मैं करने जा रहा हूँ वो सीधे-सीधे मौत से दौड लगाने के जैसा था।

जिस क्षण मैंने यह फैसला लिया कि मैं उसे लेकर हस्पताल जाउंगा उसी क्षण से मेरे चारों तरफ के वातावरण में एक अजीब सा बदलाव होने लगा। आज भी जब कभी उस बारें मे बात करता हूँ तो लगता है जैसे उस दिन मैंने सीधे यमदूत से पंगा ले लिया था। कहते है कि सभी के मरने का समय निश्चित होता है और सही समय आने पर मौत को कोई भी टाल नहीं सकता। उस दिन मैं अंजाने में ही मौत के रास्ते का कांटा बन रहा था। आम दिनों में हमारे घर के सडक पर हर आधे मिनट में कोई आटो या कोई रिक्शा या फिर कोई तीन पहियों वाली सवारी मिल हीं जाती है। हमें कभी भी सवारी के लिये राह नहीं देखना पडा, मगर उस क्षण के बाद माहौल ऐसा बदला कि मैं क्या बताऊँ? जैसे हीं मैं घर से निकल कर सडक पर आया तो एक आटों वाला वहाँ से निकला। मैंने उसे आवाज लगायी, अपने पूरी ताक़त से आवाज़ लगाई। इतने ज़ोर से मैं कभी भी आवाज़ नहीं लगाता, कभी नहीं, किसी को भी नहीं। मगर उस आटो वाले को जैसे मेरी आवाज़ सुनाई नही पडी। उसने मेरी तरफ देखा, मुस्कुराया और फिर आगे निकल गया।

मुझे उसका यह व्यवहार बिल्कुल भी समझ में नहीं आया। मेरे पास समय नहीं था कि मैं किसी दुसरे वाहन का दरवाजे तक आने का इंतज़ार करूं तो मैं मुख्य सडक की तरफ भागा। मुझे दूर से दिख रहा था कि तीन आटो वहाँ खडे हुए थे और सवारी का इंतज़ार कर रहे थे। मैंने सोचा कि मुझे एक ऑटो तो मिल ही जायेगा। अब आप बस आंखे बंद करके इस माहौल को देखने की कोशिश किजिए। मेरे चलने के स्थान से आटो की दूरी बहूत ज्यादा रही होगी तो १०० मिटर से ज्यादा हो ही नही सकती। मुझ जैसे लडके को वहाँ तक दौडकर जाने में तीस सेकेंड से ज्यादा लग हीं नहीं सकता। पर उस समय जैसे वो १०० मिटर एक किलोमिटर से भी ज्यादा लग रह था और ३० सेकेंड ३० मिनट के बराबर। जैसे ही मैंने दौडना शुरु किया तब से लेकर मेरे सडक तक जाने के बीच हीं वो तिनो आटों पुरी तरह से भर कर वहाँ से रवाना हो गयी। अंतिम आटो में तो आठ लोग बैठे थे। पता नहीं क्युं मगर उनमे से हरेक यात्री एक बार मेरी तरफ जरूर देखता और एक अजीब सी हंसी भी देता। सभी अंजान थे मगर ऐसे देख रहे थे जैसे मैंने कोई बहूत हीं बेवकूफी भरा काम किया हो। मैं सडक तक तो आ गया मगर वहाँ उस समय एक भी वाहन नज़र नहीं आ रहा था।। कसम से एक भी नहीं। दूर दूर तक एक भी नहीं। इधर बच्ची की हालत मेरे गोद में आते ही और तेज़ी से बिगडने लगी थी।

अब मैं क्या करूँ? तभी मेरी नज़र मेरे एक दोस्त पर पडी जो कि अपनी साइकल पर सवार हुए कहीं जा रहा था। मैंने उसे रोका अपने साथ चलने को कहा। बेचारा मेरा सबसे अच्छा दोस्त था और मेरे एक ही बात पर बिना कुछ पूछे ही चल पडा। मगर उसके भी होटों पर एक अजीब सी मुस्कान थी। उस समय मैं समझ नहीं पा रहा था। हम दोनों अक्सर हीं एक दुसरे के साथ साईकिल पर बैठ कर घूमा करते थे। कभी वो चलाता तो कभी मैं। मगर उस दिन मेरे बैठेते हीं वो बोला – "भाई आज तो बहूत भारी लग रहा है, मुझसे नहीं चलाया जायेगा"। किस्मत देखिये इससे पहले की मैं उसे गालियाँ देता और हम आगे बढते साइकिल का टायर फट गया। यह देखकर उसे इतनी हँसी आयी पूछिये मत। मैं मगर जरा भी नहीं हंसा, बल्कि जो गालियाँ मैंने दो मिनट पहले अपने मन में दबा लिये थे उन्हें खुल कर बाहर आने दिया। वो इसका जवाब देता उसके पहले हीं मैंने एक रिक्शे वाले को रोक लिया। बिना उसे बताये कि हमें कहाँ जाना है मैं उसपर सवार हो गया। और शायद मैंने उस समय यह सही भी किया क्युंकि जब उसने बच्ची की हालत देखी तो जाने से इंकार करने लगा। मेरे एक ज़ोरदार डपट से हालांकि वो फिर चलने के राज़ी हो गया।

हमारे निवास स्थान से साधारण सरकारी हस्पताल की दूरी करीबन तीन किलोमिटर होगी। और हस्पताल से ही सटकर रेलवे स्टेशन भी है। मेरी सोच यही थी कि पहले बच्ची को करीबी हस्पताल में ले जाते है और इलाज़ करवाते हैं फिर अगर जरूरत पडी तो उसके पिता को बुलाकर उसके सुपुर्द कर दूँगा। आगे की वो देखें। तीन किलोमोटर की इस सफर को एक रिक्शा से पुरा करने में बीस से पच्चीस मिनट लगते है। मगर उस दिन वो रिक्शेवाला जाने कौन से नशे में था कि उससे रिक्शा खींचा हीं नही जा रहा था। ऐसा लगता था जैसे कि किसी अंज़ान शक्ति ने उसकी सारी ताक़त चूस लिया हो। वो भी परेशान था कि यह सब हो क्या रहा है? फिर भी हम स्टेशन के तक तो चले हीं आये। हमे उतारते हीं उस रिक्शे वाले ने चैन की सांस ली। ऐसा लगा जैसे कि उसके कंधे से कोई बहूत बडा बोझ उतर गया हो। रिक्शे से उतरने के बाद मुझे इस बात का होश आया कि हडबड मे मैंने पैसे तो लिये हीं नहीं। मेरी जेब में बस तीस रुपये पडे हुए थे जिसमे से पन्द्रह रुपये मैंने रिक्शे वाले को थमा दिये। आप यकिन नहीं करेंगे कि जो रिक्शा वाला मुझे और उस बच्ची को बैठा कर अपनी रिक्शा खींच नहीं पा रहा था उसने अगले हीं पल में मुझसे दुगुने वजन वाली दो महिलाओं को अपने रिक्शे पर बिठाया और इतनी आसानी से वहाँ से चलाते हुए निकला जैसे उसने रुई की दो बोरियाँ सवारी के तौर पर बिठायी हो। गज़ब!!

खैर मैं हस्पताल की तरफ बढा। आज हस्पताल में इतनी भीड थी कि पूछो मत। ऐसा लग रहा था कि जैसे इलाके के सारे लोग आज एक साथ ही बीमार पड गये है। जहाँ भी देखो एक मरीज बिल्कुल उसी हालत में वहाँ पडा हुआ था जैसे कि मेरे गोद में वो बच्ची। मैं घबरा गया कि अगर इस बच्ची को जल्द से जल्द इलाज़ नहीं मिला तो इसकी हालत और भी बिग़ड जायेगी। मैं उस हालत में पागलों की तरह हस्पताल के एक छोर से दुसरे छोर तक डाक्टर की तलाश में भागने लगा। जाने कितने लोगों को मैंने ठोकर मारी होगी, जाने कितनों के पैरों को अपने जुते से दबाता हुआ भाग रहा था कुछ पता नहीं। मगर एक बात जो मुझे चौंका रही थे कि मै जिसके भी पास से गुजरता वो मुझे देखकर एक अजीब सी हंसी हंसने लगता। मानो जैसे सब मुझसे कह रहें हो तुम्हारा इसे बच्ची को लेकर कहीं भी भागना बेकार है। मगर मैं नासमझ, कुछ भी मेरे पल्ले हीं नहीं पड रहा था। किसी तरह से एक डाक्टर साहब मिले मगर वो भी इतने व्यस्त थे कि मेरी बात सुनने को तैयार हीं नहीं थे। मगर इस व्यस्तता में भी वो मुझे देखकर मुस्कुरा जरूर रहे थे।

मुझे क्रोध तो बहूत आ रहा था मगर मैं कुछ भी कह सकने की हालत में नहीं था। इस समय मेरे सामने बस उस बच्ची को बचाना हीं सबसे जरूरी काम था। जब बहूत देर तक डाक्टर ने उसे देखने में कोताही बरती तो मै उसपर चीख पडा। जो भी मेरे जी में आया उसे बोल डाला। पर आश्चर्य, इसपर भी डाक्टर ने कुछ कहा नहीं बस हंसता ही रहा। हाँ मुझे परेशान देखकर उसने बस इतना कहा – "इसका इलाज़ यहाँ नहीं हो पायेगा, इसे जिला हस्पताल ले जाओ। इसके पास समय बहूत कम है। तुम चाह कर भी इसे बचा नहीं पाओगे"। मुझे उसकी बातों में सलाह कम और चुनौती या चेतावनी ज्यादा लगी। मगर कह तो वो सही रहा था। जहाँ मैं इस समय था वहाँ से जिला हस्पताल कम-से-कम पांच किलोमिटर पर था। यहाँ से वहाँ जाने में कम-से-कम एक घंटे का समय तो लग हीं जाता। इधर मेरे गोद में बच्ची की हालत पहले से और ज्यादा बिग़डती जा रही थी। मेरी उमर उस समय इतनी भी नहीं थी कि मैं किसी समझदार और अनुभवी व्यक्ति की तरह संयम से काम लूँ। मेरा सब्र छुटने लगा। मेरे सामने हीं रेलवे स्टेशन था। रेल से यह दूरी पंद्रह मिनट की थी। जिला हस्पताल दो स्टेशन के बाद ही था। मगर समस्या यह थी कि मैं अकेला उसे लेकर कैसे जाऊँ? चाची का अभी तक कोई पता नहीं था और ना हीं चाचा जी हीं आये थे।  

बस मेरा दोस्त वहाँ आ चुका था। उस समय मेरे मन की स्थिति कैसी थी उसे समझाने के लिये मेरे पास कोई शब्द नहीं है। बस भगवान से यही कह रहा था कि किसी तरह से मुझे जिला हस्पताल तक पहूंचा दे। हम टैक्सी भी नहीं कर सकते थे क्युंकि ना तो मेरे पास इतने पैसे थे और ना हीं मेरे दोस्त के पास। तभी मुझे चाची आती हुई दिखि। उसके साथ उसके एक पडोसी भाईसाहब भी आये हुए थे। उनके पास मोबाईल था जिससे वो लगातर बच्ची के पिता से बात कर रहे थे। उसके पिता अभी अपने मालिक से अनुरोध कर रहे थे कि वो उन्हे जाने की इजाजत दे मगर पता नहीं क्युं उसका मालिक उसे छोड ही नहीं रहा था। मुझे फोन पर चाचा जी के गिडगिडाने की आवाज़ और उसके मालिक के चिल्लाने की आवाज़ साफ-साफ सुनाई पड रही थी। तभी मुझे लगा के जैसे मेरे गोद में पडी बच्ची भारी होती जा रही है। अचानक से ही उसका वजन बढने लगा था। पहले मुझे लगा कि थकावट के कारण मुझे ऐसा लग रहा है मगर कुछ देर में ही यह बात तय हो गया कि सच मे बच्ची का हीं वजन बढ रहा था। पता नहीं क्युं और कैसे?

मैंने भाईसाहब से कहा कि अगर उनके पास पैसे है तो हम टैक्सी पकड कर चलें मगर उन्होने अपनी विविशता मुझे बताई कि उनके पास भी इतने पैसे नहीं है। अब तो बस सिर्फ रेलवे का ही रास्ता बचा था। मैंने बच्ची को उसके माँ के सुपुर्द किया और भागा ट्रेन का टिकट लेने। जब मैं हस्पताल आ रहा था उस समय टिकट खिडकी एकदम खाली थी। चारों खिडकियों मे एक भी आदमी नहीं था। मगर अब जब मैं टिकट लेने गया था तो चारों ख़िडकी में जाने कहाँ से लोगों का जमावडा आ गया था। उस समय हर कोई हडबडी में दिख रहा था। आश्चर्यजनक रूप से वहाँ खडा हरेक आदमी आज अपना मंथली बनवा रहा था। चारों खिडकी मे से किसी में भी एक भी औरत नही दिखी जिससे मैं सहानुभुति की आशा करूं। आम दिनों में अगर आप अपनी परेशानी किसी को बताते हैं तो वो आपको खुद के आगे जाने की अनुमती दे दी देते है मगर उस दिन किसी का भी मन नहीं पिघला। मेरे नज़रों के सामने से चार ट्रेनें निकल गयी और मैं टिकट की लाइन में लगा रहा। इस बार हर एक आदमी जब मेरे पास से गुजरता तो गुस्से में नज़र आता जैसे कह रहा हो – ये जो भी तु कर रहा है मत कर।

किसी ने मूँह से नहीं कहा मगर उनकी आंखें मुझे यही समझा रही थी। किसी तरह से मुझे तीन टिकट मिल गये। मैं प्लैटफार्म की तरफ भागा मेरे उन लोगों तक पहूंचते हुए भी के ट्रेन गुजर गयी। मगर उसके बाद अगले तीस मिनट तक एक भी ट्रेन नहीं आयी। एक भी नहीं। पता नहीं क्या माज़रा था मगर पुरे तीस मिनट तक एक भी ट्रेन नहीं आयी। हम सब दो नम्बर प्लैट्फार्म पर खडे थे और अचानक इस बार ट्रेन ने चार नम्बर पर आने का फैसला किया। मैं इस बर तैयार था दो टिकट उनको पकडा कर और बच्ची को अपने गोद में लेकर मैं और मेरा दोस्त भागे चार नम्बर की तरफ। ट्रेन आयी और आकर वहीं जम गयी। मतलब कि अगले तीन मिनट तक चली हीं नहीं। इधर बच्ची अब आगे से ज्यादा शांत लग रही थी। ना तो रो रही थी और ना ही हिल हीं रही थी। बस कभी कभी अपने होट चटपटा लेती थी। मतलब कि ज़िंदा थी, और मुझे यही चाहिये था। जिस दूरी को तय करने में ट्रेन को दस मिनट से ज्यादा का समय नहीं लगता उस दूरी को उस दिन चालिस मिनट लग गये। ट्रेन की इतनी थकी हुई और मरी हुई चाल मैने ना उसके पहले कभी देखी थी और ना ही उसके बाद कभी देखी।  

ऐस लग रहा था कि जैसे वो भी यही चाहती थी कि आज मैं इसे इलाज़ ना दिलवा सकूं। ट्रेन के डिब्बे में मौजूद सभी लोग एक दुसरे से बात करते हुए तो ठिक हीं थे मगर जब भी मेरी तर्फ देखते तो उनके आंखों में गुस्सा नज़र आता। अभी तक मैं सभी बाधाओं को पार करके जिला हस्पताल के सामने आ चुका था। ट्रेन से उतर कर हमें सडक की दूसरी तरफ जाना था। दूसरी तरफ जाने के लिये एक फूट ओवर ब्रिज़ का इस्तेमाल करना था। और कोई दुसरा रास्ता था भी नहीं। दूसरी तरफ करीबन दो सौ मिटर की दूरी पर हस्पताल था। पहली बार मुझे कुछ ऐसा दिख रहा था जो मुझे साहस दे रहा था। वो बिज़ बिल्कुल सूनसान थी, ना तो कोई आदमी और ना हीं कोई जानवर हीं। एक कुत्ता तक नही था उसपर। मैंने बच्ची को लेकर दौड लगाई। चढाई ज्यादा नहीं थी मगर जाने क्युं मेरे पैर बढ हीं नही रहे थे। ऐसा लग रहा था कि जैसे किसी ने मेरे पैरों को जकर कर रक्खा हो। मेरे कंधे पर अचानक हीं एक बोझ सा लगने लगा। मैं फिर भी भाग रहा था। भागते भागते मेरे पैरों से चप्पल टूटकर निकल गया। अप्रिल की उस तपती धूप में मैं लगभग बारह बजे के आस पास काली चिकनी सडक पर नंगे पैर एक बच्ची को गोद मे लिये भागे जा रहा था।

मेरे पिछे मेरा दोस्त था जो मेरे टूटे चप्पल को अपने हाथों मे लिये मेरे पिछे भाग रहा था। उसके पिछे वो भाई साहब और उसके पिछे उसकी माँ। अभी तक मैं ब्रिज़ के बिल्कुल बीचोंबीच पहूँच चुका था और मुझे हस्पताल का द्वार साफ-साफ दिखाइ दे रहा था कि तभी बच्ची ने मेरे गोद में हीं पेशाब कर दिया। उसके पेशाब से निकला गहरा पिला पानी मेरे कपडो से होता हुआ मेरे पैर तक जा पहूँचा। मेरे सफेद गंजी पर एक गहरा दाग पड गया। और फिर इसके अगले ही पल में जैसे मेरे कंधे का बोझ एक दम से हल्का हो गया। मेरे पैरों मे बिजली सी तेज़ी आ गयी। और मैं कुछ पल में हीं हस्पताल के अंदर जा पहूंचा। इस बार भी एक बदलाव महसूस हो रहा था, जो भी लोग मेरे पास से गुजरते उनके आंखों मे मुझे पछतावा दिखने लगा था। अब ना तो कोई हंस रहा था और ना हीं कोई क्रोधित हीं हो रहा था। सबके नज़र में मुझे एक शोक और सांत्वना दिखाई पड रही थी। इस बार मुझे डाक्टर भी तुरंत मिल गया और उसने बच्ची को देखते हीं कहा – "यह तो मर चुकी है"। मुझे उसकी बात पर यकिन नहीं हुआ, मैं चीख पडा, कहा डाक्टर साहब ज़रा सही से देखिये ना, अभी-अभी तो इसने मेरे गोद में ही पेशाब किया है। अभी कैसे मर सकती है?

मगर डाक्टर ने मेरे कंधे पर हाथ रखकर कहा – "हाँ इसने अभी-अभी ही दम तोडा है। यकिन नहीं है तो यह लो मेरा यंत्र और खुद हीं इसकी धडकने और सांसे सुन लो"। वही बेड पर पडी बच्ची को देखकर मुझे ऐसा करने की भी हिम्मत नहीं हो पा रही थी मगर फिर भी खुद को यकिन दिलाने के लिये मैंने यह किया। सच में उसकी सांसे रुक चुकी थी। उसके दिल की हरक़त बंद हो चुकी थी। चैन से आंखे बंद किये हुए वो बच्ची दस मिनट पहले ज़िंदा और अब मर चुकी थी। मेरे हीं गोद में उसने अपनी आखिरि सांसे ली थी। उसका मासूम सा भोला सा चमकता सा चेहरा आधे घंटे के अंदर काला और मुरझाया सा लगने लगा था। मेरे लिये यह मानना आसान नहीं था। हर पल मुझे यही लग रहा था कि जैसे वो अभी हिलेगी और रोयेगी। मगर जब एक घंटे के बाद उसके कान के पास मैंने चिंटियों को जमा होते देखा तो समझ गया कि मैं मौत से हार गया था। इस दौड में मैं दस मिनट लेट हो चुका था। 

हस्पताल से बच्ची का शव मिलने में चार घंटे लगे। इतने में उसका पिता भी आ गया। आगे का काम उसने ही देखा। मैं अपने होश में नहीं था, वहाँ क्या हो रहा था कुछ भी पता नहीं। कुछ देर बाद मेरे दोस्त ने मुझे झकझोर कर उठाया और कहा कि बच्ची का शव दे दिया गया है। उसे दफनाने जाना है। मुझमे इतनी हिम्मत नहीं थी कि मैं इस काम में उनका साथ देता मगर चुकि बच्ची मेरे गोद मे मरी थी तो मेरा साथ जाना जरूरी था। हम उसे लेकर कब्रस्तान गयें। वहाँ डोम से मिलकर कागज़ी कार्यवाही की। इस पुरे दौरान वो बच्ची फिर से मेरे ही गोद मे थी। मेरे हाथ पैर काँप रहे थे। उस छोटी सी उमर मैं वो कर रहा था जिसे करने में बडे-से-बडे हिम्मत वाले की भी आत्मा कलप जाये। डोम ने गड्ढा बनाया और उसके बाप को बुलाया मगर उसका बाप शोक और विलाप के कारण यह काम करने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था। अंतत: यह काम भी मुझिको करना पडा। वो पल आज भी मैं भूल नहीं पाता। उस मासूम सी बच्ची को मैने अपने हाथों से मिट्टी के सुपुर्द कर दिया। घर आया तो माँ मेरी हालत देख कर परेशान हो गयी। मैं शोक में था, हारा हुआ और खुद को दोषी मान रहा था। माँ के लाख समझाने पर भी मैं खुद को किसी भी तरह से मना नहीं पा रहा था। मुझे लगा कि यह सब मेरा ही दोष है। मैं क्युं बिना टिकट के ट्रेन पर नहीं चढा। अगर ऐसा करता तो शायद वो बच्ची ज़िंदा बच जाती।

माँ समझाती रही और मैं रोता रहा। मुझे शोक और डर से निकालने के लिये माँ ने वो कपडे जला दिये जिसमे उस बच्ची ने आखिरि बार पेशाब किया था। वो जानती थी कि जब भी मैं उसे देखुंगा मैं विचलित हो जाउंगा। अगले दो हफ्ते तक खाने का एक भी निवाला मेरे गले से नहीं उतरता। जब भी खाना खाने बैठता बस चाची की वही करुण पुकार सुनाइ देती। लगभग दो साल तक मुझे उस एक पल का एहसास सताता रहा। समय के साथ गहरे से गहरा घाव भी भर जाता है। मुझे भी थोडा समय लगा मगर मैं इससे बाहर आ गया। पर एक बात मैंने उस दिन जो महसूस किया वो यह था कि उस दिन मैं और मौत दोनों एक दुसरे को हराने की पुरज़ोर कोशिश मे थे। उसने हर मुमकिन कोशिश की कि मैं उसे बचा ना सकूं और वो जीत गया। आज मुझे यह महसूस होता है कि घर से निकलने से लेकर उस ओवर ब्रीज़ पर चढने के बीच जितनी भी मुश्किलें आयी थी वो सब काल का किया धरा था। जो भी लोग मुझे मिल रहे थे चाहे वो रिक्शे वाला हो या फिर पहले हस्पताल का डाक्टर या फिर टिकट काउंटर पर खडे लोग सब काल का ही रूप था। मैं जीत हीं जाता मगर उसने अपना समय पुरा कर लिया था। मौत से कोई जीत नही सकता, कभी नही, किसी हाल में नही। उसका समय और स्थान तय है। कौन कब, कैसे, कहाँ, किसके सामने जायेगा सब कुछ तय है जिसे बदला नहीं जा सकता।  



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