एक नीड़ एक पंछी
एक नीड़ एक पंछी
अमिता ने चौक कर देखा -घड़ी पाँच बजा रही थी। तो आज भी दीपा कॉलेज से अभी तक नहीं आयी। प्रायः वह ठीक समय पर ही घर पर आने की आदी थी पर इधर कुछ दिनों से रोज़ देर हो रही थी। अमिता इसका कारण न जानती हो ,यह बात नहीं।इधर किराये के मकान में एक नए पड़ोसी आये हैं।
उन्हें ठीक अर्थों में नए नहीं कह सकते क्योंकि पहले से थोड़ी जान -पहचान है। इस जान -पहिचान पर वर्षों की परत जम चुकी है ,जो अब धुल धुलकर पुनः ताज़ा सी बनती जा रही है। इन्हीं पड़ोसी का लड़का है नीरद। डॉक्टरी का छात्र है,चतुर्थ वर्ष में है। छुट्टियों में यहाँ आया हुआ है। दीपा नीरद की छोटी बहिन मीना से काफ़ी हिल मिल गई है और कॉलेज से लौटते हुए उसी के साथ थोड़ी देर बैठकर गपशप करके यहाँ आती है।
केवल मीना से मिलने की बात होती तो ठीक था ,अमिता इसको लेकर चिंतित नहीं होती पर दीपा का नीरद की ओर जो मौन आकर्षण बढ़ता जा रहा है इसी को लेकर अमिता चिंतित है।
यह नीरद उसे कभी पसंद नहीं रहा। काला काला नीरद चपटी सी नाक। अमिता को अपनी दीपा पर अभिमान था। चम्पक सा रंग ,गुलाबी छटा लिए गाल ,बड़ी बड़ी रतनारी ऑंखें,लंबे - लंबे काले घने बाल ,जैसे सब कुछ विधना ने अवकाश के क्षणों में गढ़ा था।
नीरद से व उसके माता- पिता से अमिता का पहिला परिचय तब हुआ था जब अमिता के पति समस्तीपुर में थे और वे लोग भी वहीं थे। उस समय दीपा पॉंच साल की रही होगी और नीरद क़रीब नौ वर्ष का।
अमिता अपनी दीपा की तरफ देखती तो उसका मुख प्रसन्नता से भर जाता था । यह दीपा उसकी प्यारी सी बच्ची। फूलों सी मुस्कुराती थी। सुंदर सजी सजायी गुड़िया सी लगती । उधर नीरद यूँ ही फिरता था। मैले कुचैले गन्दे से कपड़े, पॉंव में जूते तक नहीं, नाक बहती रहती। उसकी मॉं ध्यान कहॉं तक रखती , हर समय वह धूल में खेलता, दो मिनट में कपड़े ख़राब कर लेता।
नीरद की मॉं कहती-“ मिसेज़ सिन्हा ! गुड़िया तुम्हारी बड़ी प्यारी है, इसे मैं अपने गुड्डे से ले लूँगी। “
तो अमिता हँसकर उत्तर देती-“ अच्छा है, घर बैठे वर मिल गया ।” पर मन ही मन जल फुक जाती। जल कर राख हो जाती। यह नीरद काला - कलूटा गंदा लड़का ! क्या इस लाड़ली दीपा के लिये है ! इसे तो कोई इसी के जैसी काली कलूटी कन्या चाहिये।
नीरद की मॉं मिसेज़ वर्मा कहतीं-“ आप तो बच्ची को बहुत अनुशासन में रखती हैं। इतनी कड़ाई नहीं बरतनी चाहिये। “
अमिता कहती-“ कड़ाई थोड़ी बहुत तो रखनी पड़ती है। नहीं तो बच्ची की आदत ख़राब हो जाती है।”
अमिता की एकमात्र संतान यही दीपा थी। उसने दीपा का सर्वांगीण विकास अपनी शक्ति से भी अधिक चाहा था। एक से एक खिलौने मंगाकर दिए थे। अक्षरज्ञान कराने के लिए नई से नई ,आकर्षक से आकर्षक पुस्तकें ख़रीदी थीं। कोई भी बढ़िया सा खिलौना बाज़ार में देखती तो फ़ौरन दीपा के लिए ख़रीद डालती।
पति मिस्टर सिन्हा एक बार मना भी करते तो वह कहती-“ यही तो अकेली मेरी बच्ची है ,इसके लिए भी कुछ न करेंगे तो फिर पैसे का क्या करेंगे।”अपनी दीपा को पलकों में सहेजकर रखा था अमिता ने।
और वास्तव में उसके सपनों को सार्थक किया था दीपा ने। उस पर अमिता को ही नहीं ,अन्य किसी को भी ,जो उसे देखता अभिमान हो सकता था। बगिया में खिला सुगंधित फूल दुनिया की राहों से अनजान भोली भाली ख़ुशबू चारों ओर फैला रहा था। आप ख़ुशबू से गमकता औरों को ख़ुशबू से गमकाता । उसकी मालिन उसे देख देख कर बलिहार हुई जाती थी ।सोचती थी कि किसी योग्य हाथों में ही जाएगा यह पुष्प ,जहॉं यह इसी तरह सुगन्ध फैलाता रहे, इसे कॉंटों का भान न हो।
पर सहसा जैसे सपने टूट गये। इतने वर्षों बाद आज फिर पुरानी पहचान नई हुई। फिर भी पहिले का तिरस्कृत नीरद उसे नहीं भाया। केवल थोड़ा पढ़ लिख गया है। कहॉं नफ़ासत से पली- बढ़ी दीपा कहॉं यह गँवार नीरद। बात करने का ठीक ढंग नहीं। अल्हड़ मस्त।
मनोविज्ञान की एक से एक पोथियॉं पढ़ डाली थीं अमिता ने दीपा के लिए। बच्चों की ठीक से देखभाल पर कितनी ही पुस्तकें देख डाली थीं। जबकि मिसेज़ वर्मा बेफिक्र थीं। उन्हें न कुछ चिंता थी ,न परेशानी। आखिर चार -पाँच बच्चों में ,वे भी ऊपरा तली के ,वे किस -किस को सँभालती ? उन्होंने एक दो आया रख छोड़ी थीं ,वही उनके बच्चों को देखती थी।
मिसेज़ वर्मा को सुरुचि का भी इतना ध्यान नहीं था। चारों -पॉंचों बच्चों की एक सी पोशाक बनवा देतीं। नीले लाल पैण्ट, उस पर चारखाने की क़मीज़ । क़मीज़ भी बेढंगी सिली रहती। कभी कॉलर बंद होकर उस पर टाई नहीं लग सकती थी। पैण्ट की क्रीज़ ग़ायब रहती। पैण्ट क्या , पाजामा बनी रहती। उस पर धूल भरे बच्चे। देख देख कर मिसेज़ सिन्हा कुढ़तीं। कभी कभी मिसेज़ वर्मा से कह भी देतीं-“ आप बच्चों की केयर नहीं लेतीं। बेलगाम घोड़े से बढ़ रहे हैं। “
मिसेज़ वर्मा मस्त थीं। वे कहतीं-“ बड़े होने पर पढ़ने -लिखने पर अपने आप अक़्ल आयेगी ,कौन परेशानी मोल ले। “
अमिता गर्व अनुभव करती कि अपनी दीपा कि वह कितनी केयर लेती है। उतनी केयर बहुत कम मॉं अपने बच्चों की ले पाती हैं। दीपा अब बड़ी होकर एम. ए. में पढ़ रही थी । वह हमेशा प्रथम आती। कॉलेज की वाद- विवाद प्रतियोगिता में ,नृत्य -गान में सब में भाग लेती। सुगठित शरीर, सुकोमल अंग सौष्ठव सब मिलकर उसे मनोहर कान्ति दे रहे थे।
उसके लिए उपयुक्त वर कैसा हो इसके लिए अमिता का मानस कल्पना में आकाश में कुलाचें भरता रहता। यह समस्या इस तरह सुलझेगी यह वह सोच भी नहीं सकती थी। उसकी दीपा- परियों की रानी क्या नीरद के योग्य है ? वह नीरद जो अमिता की नज़रों में हेय रहा ? अब भी जिसका व्यक्तित्व अमिता को नहीं भाता।
‘आने दो’ - अमिता ने अपने को समझाया, दीपा से पूछूँगी ।
आज दीपा को सात बज गये शाम के आने में। अमिता खीझी - खीझी थी।
आते ही दीपा बोली-“ मामा ! देर हो गई। मीना अपने साथ खींचकर पिक्चर ले गई। और सब भी थे। नीरद भी था मामा ।बड़ी अच्छी पिक्चर थी। “
फिर वही नीरद- -नीरद— । अमिता क्षण भर रुकी, फिर दीपा से कहा-“ रानी बेटी दीपा ! तुम में मैंने अपने सपने देखे थे ,बहुत हद तक उन्हें पूरा पाकर गर्व का भी अनुभव करती हूँ । मेरी नन्ही कली आज बड़ी हो गई है ,तो उसका आगे का जीवन सुखपूर्ण हो, यह मुझे ही देखना है।”
फिर थोड़ा रुककर अमिता बोली-“नीरद के बारे में तुम्हारा क्या ख़्याल है ? केवल पढ़ रहा है डॉक्टरी में, नहीं तो अन्य कोई ख़ास बात उसमें नहीं।”
दीपा सिर झुकाये रही, फिर कहा-“ मैं क्या कह सकती हूँ । पर नीरद के बारे ने आपके विचार उदारता पूर्ण नहीं हैं। वह पहले की बातें,अब बचपन की बातें रह कर ,बीत चुकीं। अब उससे मिलकर देखो ,आप प्रसन्न होंगी। “
दीपा चली गई । अमिता थकी सी खड़ी रही। फिर सोफ़े पर बैठ गई।
वह बचपन की बातें बीत गईं ! कैसा कुछ चुभता है मन में ,जैसे उनके सारे प्रयासों पर कोई पानी फेरे दे रहा हो। जैसे मानसरोवर की मराली को कोई बगुला लिये जा रहा हो और वह असहाय सी देख रही हों। उन्हें लगता ही नहीं कि इतने वर्ष गुजर गये।एक लंबा अरसा बीत गया । दीपा भी बड़ी हो गई और नीरद भी। और यह बड़ा -बड़ा नीरद ,बदला - बदला नीरद जैसे अब भी अपनी हंसिनी के लिए उनको नहीं भा रहा है।
पर दीपा की अनुरक्ति तो स्पष्ट है। एक दो बार मीना की माँ भी इस बार संकेत कर चुकी हैं कि वे दीपा को अपनी बेटी बनाना चाहती हैं। मीना भी चिड़िया जैसी फुदक कर कहती है कि उसके नीरद भैया के लिए दीपा सी भाभी आनी चाहिए।
नीरद के लिये दीपा ! उसकी अपनी दीपा ! लगता है कि जैसे सौ हथौड़ों की एक साथ चोट पड़ी हो और उसका सिर भन्नाकर रह गया हो।
बचपन बीत जाता है। बच्चे बड़े हो जाते हैं ।अपना नीड़ वे स्वयं बनाते हैं। अमिता का हस्तक्षेप कहीं उसकी लालिता गुड़िया की आशाओं को तोड़ न दे। अमिता सोचती रही, सोचती रही। चारों ओर अंधेरा घिर आया। ओस भीगी रात की काली चादर फैलनी शुरू हो गई।
“ दीपा की खुशियॉं भरपूर रहें”- अमिता ने सोचा। “ वह नीरद को चाहती है तो नीरद को ही वरे। नीरद उसको वे ख़ुशियाँ दे सकेगा, जिनसे दीपा अभी अनजान है। “
सब कुछ समय की गति पर चलता है। पर उसके अपने वात्सल्य पूरित मन में सौ सौ कॉंटों की चुभन की जो वेदना उठती है, उसका वह क्या करे। चहकती बुलबुल अपनी इच्छा से ही वरण करे।