हीरालाल गड़ेरिया भाग--३
हीरालाल गड़ेरिया भाग--३
रोज की तरह शाम को अंधेरा होने से पहले हीरालाल भेड़ों को लेकर जंगल से वापस आया और सभी को उनके मालिकों के घर पहुंचाकर अपने घर पहुंचा।वह दरवाजे पर ही था कि उसे अंदर से अपनी धर्मपत्नी के रोने की आवाज सुनाई दी। पहले तो उसे अपने कानों पर यकीन ही नहीं आया फिर जल्दी से झोपड़ी के अंदर गया तो उसका वहम् विश्वास में बदल गया। बेटी जुगनी को गोद में रखकर वह सचमुच रो रही थी।यह देखकर एकबार तो वह दहल ही गया ,पर वह हीरालाल था।इतनी जल्दी वह घबराने वाला नहीं था। अपनी भेड़ें हांकनेे वाली पतली सी लाठी को झोपड़ी की दीवार से टिकाते हुए उसने पूछा---
"क्या हुआ भाग्यवान क्यों रो रही हो.?
पति को सामने देखकर उसके चेहरे पर हौसले की परछाईं दिखी।रोना बंद कर उसने बताया--
"कितनी देर कर दी तुमने आज आने में मैं कब से राह देख रही हूं तुम्हारी।देखो जुग्गी का बदन कितना तप रहा है दोपहर से ही।"
हीरालाल ने बेटी का बदन छूूूकर देखा।बदन तो सचमुच तवे के समान तप रहा था।उसने पत्नी से कहा----
"पगली.!! तो रोती काहे को है।मैं अभी वैद्य जी से दवाईयां लेकर आता हूं।तबतक तुम इसे चारपाई पर बुलाकर गीले कपड़े की पट्टी इसके माथे पर लगाती रहना।बंशी वाले सब ठीक करेंगे।"
कहकर वह जाने लगा कि उसे याद आया, वैद्य जी मुफ्त में तो दवाई देंगे नहीं ।कुछ पैसे साथ में ले लेने से अच्छा होगा।
"कुुछ रूपये हैं तो दे दो। दवाइयां और थोड़ा राशन पानी भी लेता आऊंगा।"
"वहीं संदूक में रखे हैं ले लो"
हीरालाल ने लकड़ी के पुराने संदूक खोलकर रूपये निकाले पर दवाई और राशन के लिए पर्याप्त नहीं थे।होता भी कहां से महीने का आखिरी समय चल रहा था और वैसे भी गरीब के संदूक में रूपये होते ही कितने हैं।खैर जो था वो लेकर वह द्रुतगति से गंतव्य की तरफ बढ़ा।
इधर हीरालाल के जाने बाद लीलावती उसके कहे अनुसार जुगनी के बुखार का उपचार करने लगी।बुखार तो थोड़ा कम हुआ पर लीलावती की बेचैनी जरा भी नहीं। चाहती थी जल्द से जल्द उसकी लाडली ठीक हो जाये।थोड़ी ही देर में हीरालाल दवाई लेकर आया और जुगनी को एक खुराक खिलाकर राहत की सांस ली।----क्रमश:
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