जीवन डायरी..3 "सुन भी लीजिए"
जीवन डायरी..3 "सुन भी लीजिए"
कल खबर आई कि दिलीप साहब नहीं रहे.. सर्वप्रथम उन्हें विनम्र श्रद्घान्जलि..बहुत ही सुन्दर, प्रभावशाली, दिग्गज अभिनेता थे..इतने बड़े कलाकार थे.. करोड़ो चाहने वाले थे उनके.. तो जाहिर है कुछ तो करिश्माई होगा ही उनमें..पर मैने उनकी ज्यादा फ़िल्मे नहीं देखी तो शायद इसलिए हो.. या वो मेरे इरा के नहीं थे ..पर वह मुझे ज्यादा पसंद नहीं आये ... लेकिन मुझे शायरा बानो जी बहुत intresting लगती हैं कि किसी को चाहा, फ़िर उसे फ़ेरीटेल की तरह पाना...पति के साथ 22.साल उम्र का अंतर ,और पूरी शिद्दत से लगन से रिश्ता निभाना वो भी पति की बेवफ़ाई के बाद और इतना लम्बा जीवन बिना किसी औलाद के भी शौहर का साथ निभाना... और एक अभिनेता का जीवन था, स्वयं भी एक प्रसिद्ध अभिनेत्री थी, तो पता नहीं और भी कितनी परीक्षाएँ दी होगी l चलिए छोड़िए ..भगवान उन्हें दुख सहने की शक्ति प्रदान करे l
दिलीप साहब के बारे में सोचते सोचते पता नहीं क्यों मुझे.. "आनंद" फ़िल्म का वो सीन मुझे याद आ गया कि ..बाबू मोशाय! ये जीवन एक रंगमंच है और हम सब इसकी कठपुतलियाँ..और फ़िर उसके बाद अमिताभजी का संवाद जिसमें वो आनंद की मौत के बाद कहते हैं कि जब मैं तुम्हें सुनना नहीं चाहता था तो तुम बोलते रहते थे.. पर अब मैं तुम्हें सुनना चाहता हूँ अब बोलते क्यों नहीं...इस फ़िल्म में हीरो भी कही ना कही एक नीरस व्यक्ति के जीवन में हँसते मुस्कराते....बोलते सुनाते हुए उसकी जिंदगी को गुलज़ार कर देता है l ना चाहते हुए भी हीरो धीरे धीरे उसे सुनने लगता है ,हँसना सीख जाता है l और इस सीन के साथ ही मेरे दिमाग के डिब्बे में भी एक ही शब्द बजने लगा कि.. सुनना.... सुनना मतलब कि पूरे मनोयोग से ध्यानपूर्वक किसी को सुनना जिसे अंग्रेजी भाषा में कहते हैं जी listen
बस जी मेरे दिमाग की सुई इस शब्द पर अटक गई....तो फ़िर क्या था मेरे सारे "तर्क के घोड़े" इसी शब्द के इर्दगिर्द मँडराने लगे कि "सुनना कितना जरुरी है " अब आप कहेगे भई इसमें क्या विशेष लग गया जी आपको...वो क्या है ना
कि हम एक शिक्षक है,तो हमें इस सुनने की महिमा से दो- चार होना ही पड़ता है और कोई हमे सुनेगा नहीं तो.. हम शिक्षक है बेकार ! और दूसरी राज की बात ये है कि हम है घर में सम्पूर्ण रुप से छोटे !! अब आपका दूसरा प्रश्न!! ये सम्पूर्ण रुप से छोटे होने का क्या अर्थ है.. समझाते है.. कि हमारे ऊपर है 7 बड़े भाई -बहन...और ज्वाइन्ट फ़ैमिली में रहे तो उनमें भी हम छोटे थे l जो और छोटे हमारे बाद आये वो कुछ ज्यादा ही लेट आये तो, ये छोटे होने का तमग़ा ना बहुत दिनों तक रहा जी हमारे पास... तो हमारे कोटे में ना "सुनना " बहुत आया l सबसे उम्र में कुछ ज्यादा ही छोटे थे तो बोलने का मौका तो आया ही नहीं..सफ़ाईयाँ बहुत दी हैl नहीं...नहीं इतना सीधा भी मत समझिए ,आज्ञाकारी तो है हम ..पर गुस्सा आने पर अक्खड़, जिद्दी, लड़ाकू भी है l
मैं बात कर रही थी सुनने की.. मेरी दादी कहा करती थी कि जो सुनता है वो गुनता है.. मतलब कि सीखता है.. मेरा भी यही मानना है क्योंकि मैने अपने जिंदगी के ज्यादातर पाठ देख सुनकर ही सीखे l
जब आज कल की पृष्टभूमि में देखूँ..तो आजकल के बच्चे सुनना जानते ही नहीं है..ऐसा नहीं कि उनकी गलती है l यहाँ पर गलत हम है, क्योंकि लगता है आजकल के सभी अभिभावको ने बच्चों की हर इच्छा को पूरा करना, अपना ध्येय बना लिया है l उनके लिए बच्चों की इच्छा पूर्ण करना ही सर्वोपरि है l उनकी माँग उचित है या अनुचित उसके बारे में, सोचने का किसी के पास वक्त ही नहीं है l अपना प्रेम भी वस्तुओं के माध्यम से प्रदर्शित किया जा रहा है तो बस बच्चों को भी प्रेम की भावनाएँ कहाँ से समझ आयेगी.. जब आपने भौतिकता से जोड़ा था, तो उसी माध्यम से समझेगे ना l
आज बच्चों को भावनाओं का मेनेजमेन्ट सिखाने के लिए मनोवैज्ञानिक की सलाह की आवश्यकता पड़ती हैं.. और तुर्रा ये है कि....कहा ये जाता है कि हम बच्चों का कितना ध्यान रखते हैं l स्कुलों में, घरो में,कॉलेज में हर जगह बच्चों के सही मानसिक विकास के लिए विशेषज्ञों की फ़ौज होती हैं....प्रश्न बस इतना है कि..आखिर क्यों भला?? बताइए.. फ़िर भी इतना सब करने के बाद, बच्चों के जीवन में जरा सा भी कोई बदलाव होता है, तो वे अपने आप को सँभाल ही नहीं पाते l
अभी चंद दिनो पहले एक घटना कही पढ़ी.. कि एक बच्चे को उसके ज्यादा फ़ोन को उपयोग करते रहने पर उसकी माँ ने उसे एक चांटा जड़ दिया और फ़ोन वापिस ले लिया तो उस बच्चे ने आत्महत्या करली..अब बताइए क्या कहे इस पर ? हम भी बच्चे थे और हमे हमारे माता पिता के साथ साथ काका,चाचा,ताऊ,बुआ,फ़ूफ़ा,सर,मेडम,भाई बहन सबने मारा पीटा होगा यार.. पर हमे तो कुछ भी बुरा नहीं लगा... तब तो कोई विशेषज्ञो की टीम भी नहीं होती थी l
बच्चे के पास अच्छा स्कूल,अच्छे ट्युसन संस्थान,और बच्चे की रूचि के रूझान के लिए अच्छी हॉबी क्लासेस है l सब चुटकियों में हाजिर है.. साधन भर भरके दे रहे है पर जो सबसे ज्यादा जरूरी है वो है उसकी सहज रुचि, पसंद, अभिव्यक्ति उसकी किसी को पड़ी ही नहीं है l किसी को भी सुनना,सहना और समझना आता ही नहीं है क्योंकि कोई उन्हें भी तो नहीं सुनता,समझता l बच्चे सबसे ज्यादा अपने आसपास से और आपको देखकर ही सीखता है l पैदा होते ही उनके हाथों में मोबाइल और टी वी के सामने बैठा दिया जाता है, तो बताइए भला क्या सीखेगे l वो सिर्फ़ देखता है.. कुछ भी सुनता नहीं है l
मेरा रोज बच्चों से सामना होता है और मेरे पास आके एक से एक बिगड़े, गधे, नाकारा बच्चे.. बुरा मत मानियेगा.. ये मैं नहीं कह रही..उनके माँ बाप कहते हैं.. कि मैम बताइए क्या करे.. और आप मानेगे नहीं ..वो बच्चे मेरे पास आकर सुधर भी जाते हैं.. और मैं क्या करती हूँ ? कुछ भी नहीं सिर्फ़ उन्हें ध्यान से सुनती हूँ और उन्हें सुनते सुनते वो मुझ पर विश्वास करते है.. फ़िर वह वो करते हैं जो मैं कहती हूँ l
अब आप कहेगे कि ऐसा भी होता है क्या.. कुछ भी l
पर ऐसा ही है क्योंकि जब आप उन्हें सुनेगे तो जाहिर है आपको उनकी समस्याएँ,दुविधायें,परेशानी, जिज्ञासाओं के बारे में पता चलेगा और जब आप उनकी उन सभी बातें को समझने और परेशानी को दूर करने में मदद करेंगे तो वह आप पर सहज रुप से विश्वास भी करते है...और जब मन में विश्वास पैदा होता है, तो वह आपको सुनने भी लग जाता है l
उन्हें सुनना सिखाने के लिए आपको भी सुनना सीखना पड़ेगा l जब आप सुनना सीखते है तो आप में धैर्य का गुण अपने आप ही पैदा हो जाता है.. फ़िर धैर्य की उँगली पकड़े पीछे पीछे शान्ति और सहनशक्ति भी आती हैं l जब व्यक्ति किसी को सुनना शुरु करता है तो उससे जुड़ना भी शुरु करता है l जब जुड़ जाता है तो समझने भी लगता है l समझने के साथ,सह्र्दय बात मानने भी लगता है l इसलिए आज के जीवन में सबसे बड़ी आवश्यकता "एक दूसरे को सुनना ही " है l सुनना सीखेगे तो दूसरे की भावनाओं का सम्मान करना भी आ जायेगा l किसी का सम्मान करना आ गया तो आदर करना भी आ ही जायेगा l आदर करना आ गया तो उन्हें सुनना भी और सुनना सीख गए तो सहज रहना भी सीख ही जाओगे l देखिए बाबू मोशाय ने कहाँ से कहाँ पहुंचा दिया... "सुनने की महिमा" सिखा दी l