Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Others

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Rajesh Chandrani Madanlal Jain

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काश! काश! 0.31…

काश! काश! 0.31…

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नवीन अब जल्द से जल्द नेहा को वापस लाने के लिए व्यग्र था। उसने कुछ बातें याद की थीं, यथा - जिस दिन उसने रिया से छेड़छाड़ की थी उस दिन कौनसे कपड़े एवं जूते पहने थे, उसके तथाकथित मित्र ने किन बिस्तर, कपड़ों में अपनी बुलाई कॉलगर्ल के साथ रंगरेलियां मनाई थी। 

अब नवीन नहीं चाहता था कि वह गलत हरकत फिर करे। उसने घर में अच्छी सफाई (डीप क्लीनिंग) करते हुए, अपने मन में बैठे अंधविश्वास के कारण इन सभी कपड़े गद्दों आदि को, एक पुरानी बदहाल धर्मशाला को दान कर दिया था। 

यद्यपि नवीन के बुरे कृत्य के लिए जिम्मेदार उसकी मानसिक विकृति थी। मगर इन निर्जीव वस्तुओं पर अपनी अय्याश प्रवृत्ति का आरोप रख कर, उन्हें त्यागना उसे संतोष दे रहा था। 

नवीन इस बार तय अवधि खत्म होते ही पहली शाम, नेहा एवं बच्चों को अपने साथ लिवा लाने, के लिए कृत संकल्पित था। उसने उस दिन ऑफिस से छुट्टी लेकर शयनकक्ष को ऐसे सजाया था जैसे कि आज वह नई दुल्हन के साथ रात बिताने जा रहा है। 

उस शाम वह मन को गुदगुदाते अपने विचारों में खोया, गौरव के घर पहुँच गया था। नेहा ने बताया - नवीन अभी मैं जाने की तैयारी नहीं कर पाई हूँ। क्या रविवार को हमारा चलना ठीक नहीं होगा?

नवीन को उतावली थी उसने सहमत नहीं करते हुए कहा - नेहा, यह घर कौनसा शहर के बाहर है। अभी तुम मेरे साथ चलो, जो कुछ अभी छूट जाएगा, तुम किसी दिन तसल्ली से यहाँ आकर ले लेना। 

बच्चे प्रसन्न और उत्साहित थे। वे वापस अपने घर पापा के साथ रहने के लिए उत्साहित थे। नेहा अनमनी थी। उसे गर्विता की देखरेख की चिंता हो रही थी। 

गौरव और गर्विता दोनों समान रूप से दुखी थे। पिछले चार माह में दीदी का साथ होना उनकी प्रथम पसंद एवं आवश्यकता हो गई थी। यद्यपि उन्हें यह अच्छी बात लग रही थी कि दीदी एवं नवीन जीजू का रिश्ता टूटने से बच गया था। 

यह एक अत्यंत सुखद बात होती है कि जिस जगह एक व्यक्ति का आगमन अन्य के लिए आशंका और विषाद का कारण प्रतीत होता है उसी व्यक्ति का वहाँ से लौटना उन्हीं लोगों को अखर रहा होता है। 

चार माह पहले भाभी गर्विता के लिए, नेहा दीदी ऐसी ही अवांछित आगंतुक (अतिथि) थी। उसे अपने घर लंबे समय के लिए आया देख कर वह आशंकित हुई थी। बीते चार माह में परिस्थितियों ने ऐसी करवट ली थी कि आज उन्हीं नेहा दीदी के जाने की कल्पना, उसे अपना सर्वस्व सा चले जाता लग रहा था। वह सोच रही थी कि दीदी उसके बच्चे के प्रसव तक तो कम से कम और साथ रह जातीं। 

नेहा की यह कदर ही अकेली अच्छी बात नहीं थी। चार माह पहले वह, पति आश्रिता, एक लाचार गृहिणी की तरह भाई के घर शरणागत हुई थी। इन चार माह में भाग्य और ईश्वर ने उसका ऐसा साथ दिया था कि वह महाविद्यालय में केमिस्ट्री की लेक्चरर के रूप में एक वर्किंग वीमेन हो गई थी। उसने अपने व्यक्तित्व का शारीरिक ही नहीं अपितु मानसिक कायाकल्प भी कर लिया था। नेहा अब आत्मविश्वास से भरी, अपनी आयु से कुछ वर्ष छोटी दिखने वाली युवती हो गई थी। 

अपने पथभ्रष्ट हो रहे पति नवीन को दृढ़ता से सबक सिखाने के बाद अब उसकी हैसियत यह हो गई थी कि नवीन, आगे कभी उसे हल्की असहाय समझ कर, उसके साथ हेय व्यवहार करने का साहस नहीं कर सकता था। गौरव के घर से डिनर करने के बाद नेहा परिवार, विदा हुआ तब गर्विता की आँखों से अश्रु झर झर बह रहे थे। 

बच्चों का यूँ तो सोने का समय हुआ था मगर अपने घर में लौट के आने की खुशी में नींद उड़ गई थी। कुछ देर खूब धमाचौकड़ी मचाने के बाद ही वे सोए थे। तब नेहा अपने शयनकक्ष में आई थी। उसे यह देखकर आश्चर्य हुआ था कि यहाँ सेज पुष्पों से ऐसी सजाई गई थी जैसे कि इस पर नवविवाहित युगल शयन के लिए आने वाला है। 

नवीन के, पत्नी नेहा से संबंध को साढ़े चार माह से अधिक का समय हो गया था। वह अब और धैर्य नहीं रख पाया था। नेहा के मन में अब भी रुखाई पूरी तरह से मिट न सकी थी। इतने अरसे से पति सुख नहीं मिलने पर भी, वह इसके लिए जरा भी उत्साहित नहीं थी। 

कदाचित वह इस तरह की नारी थी जिसे पति से शारीरिक से अधिक मानसिक सुख की अपेक्षा थी। अर्थात् उसमें नवीन जितनी कामुकता नहीं थी। फिर भी उसने पति पर दया दिखाते एवं निष्क्रिय सी रहते हुए, नवीन जो चाहता था वह कर लेने दिया था। 

साथ का जीवन कुछ बदलावों के साथ, एक ढर्रे पर फिर चलने लगा था। नेहा जॉब पर जाती थी। अतः घर में कुक और बच्चों के स्कूल के बाद, डे केयर में रहने की व्यवस्था कर ली गई थी। 

कॉलेज में प्राचार्य से किए प्रॉमिस को याद रखते हुए रविवार को नेहा ने होटल विज़न पैलेस में अपने कॉलेज सहकर्मियों, नवीन के फ्रेंड्स और कुछ पड़ोसियों को आमंत्रित करते हुए एक पार्टी दी थी। 

ऋषभ और मुझे भी आमंत्रण मिला था। वहाँ नवीन की उपस्थिति की कल्पना से मैं जाना नहीं चाहती थी। तब ऋषभ ने मुझे समझाया - 

रिया किसी एक बात की कटुता को इतने समय तक स्मरण रखना, अपने ही आनंद लेने के पलों को कम करता है। अब आप भूल जाओ कि नवीन ने कोई हरकत की थी। उचित समझो तो अवश्य ही उसके सामने अतिरिक्त सावधान रहा करो। 

मैं इस प्रकार की नारी नहीं थी जो मन में भरी वितृष्णा के बाद भी ऊपर से सामान्य रह पाऊँ। फिर भी मेरे साथ ऋषभ का होना, मुझमें आत्मविश्वास संचारित कर देता है। मुझमें गुण ग्राहकता भी है कि मैं ऋषभ की दी गई प्रेरणाओं के अनुरूप व्यवहार कर पाऊँ। 

पार्टी को हमने एन्जॉय किया था। वहाँ यह एक अविस्मरणीय बात हुई थी कि स्पीकर पर सृजन ने नेहा के प्रशंसा में यह कहा - “यद्यपि मेरी कोई बहन नहीं है। अगर मेरी कोई बहन होती तो उसे मैं नेहा जैसी होते देखना पसंद करता।” 

यह सुनकर मेरे मन में किसी दिन उठा वह संदेह मिट गया जिसमें मैं, नवीन की मेरे साथ की गई करतूत जैसी बात, सृजन-नेहा के बीच में हो सकने को लेकर आशंकित हुई थी। 

पार्टी में ऋषभ, नवीन से हाथ मिलाते हुए मिले थे। मैं चाह कर भी उसे लेकर अपनी अप्रियता प्रकट होने देने से रोक नहीं पाई थी। मैंने उसे अनदेखा किया था। 

तब मुझे नवीन के मन में उठते विचार का आभास नहीं था। जो उस समय सोच रहा था - 

“अगर मेरी दुनिया वह होती जिसमें मैं, नितांत अकेला होता तो उदर पोषण से सुखी, भूख से दुखी, शारीरिक चोट से पीड़ा एवं स्वस्थ होने पर प्रसन्न रहा करता। मगर जब जग का स्वरूप ऐसा है जिसमें मुझे, अन्य प्राणियों का संयोग-वियोग मिलता है। इससे मैं अनेक गुणा, सुखी, दुखी, प्रसन्न और पीड़ा में होता हूँ। तब मुझे लगता है कि काश! मेरा व्यक्तित्व वह होता कि मैं, अन्य सभी के सुख और प्रसन्नता का कारण बना करता … “


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