हरि शंकर गोयल "श्री हरि"

Crime Thriller

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हरि शंकर गोयल "श्री हरि"

Crime Thriller

कातिल कौन , भाग 15

कातिल कौन , भाग 15

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जिला एवं सत्र न्यायालय का कमरा खचाखच भरा हुआ था । मीडिया पर्सन्स और आम जनता उमड़ पड़ी थी इस केस की बहस सुनने और देखने के लिए । खुद वकीलों की फौज भी उतर आई थी हीरेन दा जासूस का चमत्कार देखने के लिए । उनमें उत्सुकता थी कि इस दुर्लभ केस को हीरेन दा कैसे सॉल्व करते हैं ? वे क्या क्या सबूत और दलीलें देते हैं जिससे एक हारे हुए केस को जीता जा सके । बिल्ली के पंजों से चूहे को छुड़ाना आसान काम है मगर इस केस में सक्षम, अनुपमा और अक्षत को बचाना लगभग नामुमकिन है । सब लोग यह कयास लगा रहे थे कि यह कोई नया जासूस है जिसे जासूसी करना ही नहीं आता है । यदि आता तो एक पिटे हुए केस को हाथ में नहीं लेता । कुछ लोग यह भी कह रहे थे कि जासूसी क्या होती है , यही बताने के लिए हीरेन दा ने यह केस अपने हाथ में लिया है । अब जासूसी के जलवे देखना और साथ में यह भी देखना कि थानेदार मंगल सिंह की इस भरी अदालत में कैसे धज्जियां उड़ती हैं ? जितने मुंह उतनी बातें । लेकिन सबके चेहरे पर उत्सुकता जरूर थी । 


सरकारी वकील नीलमणी त्रिपाठी अपनी अकड़ में अमचूर हो रहे थे । उन्हें बड़ा गुमान था कि उन्होंने कोई केस आज तक हारा नहीं है । उनकी दलीलों के सामने दूसरा वकील टिक ही नहीं पाता था । उनकी काबिलियत का लोहा जज साहब भी मानते थे । जो केस उनके हाथ में आ गया समझो, उसमें उनकी जीत पक्की हो गई । उनको देखकर उनके सामने वाला वकील दुम दबाकर भाग जाता था । जैसे कि उसने कोई जिन्न देख लिया हो । अदालत के गलियारों में नीलमणी त्रिपाठी के केसों के किस्से अक्सर सुनाई दे जाते थे । जिस तरह फिल्म "दामिनी" में अमरीश पुरी यानि कि "चड्ढा वकील" के सामने कोई वकील टिक नहीं पाता था उसी तरह नीलमणी त्रिपाठी का जलवा भी जबरदस्त था । "बार" में भी उनका भरपूर दबदबा था । वे बार एसोसिएशन के कई बार अध्यक्ष रह चुके थे । जब उनको पता चला कि इस केस में बचाव पक्ष की ओर से हीरेन दा जासूस आ रहे हैं तो उनके होठों पर एक उपेक्षापूर्ण मुस्कान खेलने लगी थी जैसे वे कह रहे हों कि ऐसे न जाने कितने जासूसों की धज्जियां उन्होंने इसी कोर्ट में उड़ाई हैं । हीरेन दा में ही ऐसे कौन से सुर्खाब के पर लगे हैं ? आज देख लेंगे उसे भी । वे मन ही मन गा रहे हों जैसे "आ देखें जरा, किसमें कितना है दम" ? 


उनके पास में ही थानेदार मंगल सिंह बैठा हुआ था जो रह रहकर अपनी मूंछों पर ताव दे रहा था । मंगल सिंह वकील नीलमणी त्रिपाठी की सहायता के लिए ही बैठा था । वैसे तो वह अमूमन किसी केस में बैठता नहीं था पर इस केस से उसे कुछ अधिक ही लगाव था । या तो उसे अपने काम से इतना प्रेम था कि वह अपने केस को हर हाल में जीतना चाहता था या फिर उसका मन अनुपमा की सुन्दरता में ही रच बस गया था, जिसके कारण वह इस केस में कुछ अधिक ही रुचि दिखा रहा था । हकीकत तो मंगल सिंह या भगवान ही जानते थे पर यह बात अवश्य थी कि वह चाहता था कि इस केस में इन तीनों को सजा अवश्य हो । 


मंगल सिंह पुलिसिया रौब में घमंड से चूर था । उसे लगता था कि अब सक्षम , अनुपमा और अक्षत को दुनिया की कोई भी ताकत बचा नहीं सकती है क्योंकि केस की छानबीन उसने की है । उसने एक महीने के अंदर ही चार्ज शीट पेश कर दी थी । समस्त गवाह और सबूत जुटा लिए थे । उसके द्वारा इतने त्वरित गति से किये गये अनुसंधान के लिए पुलिस अधीक्षक ने उसे विशेष तौर पर सम्मानित भी किया था । यद्यपि उसे मन ही मन दुख भी हो रहा था कि अनुपमा जैसी अनिंद्य सुंदरी उसके कारण आजीवन जेल में रहेगी । उसे अंदाजा था कि यद्यपि कत्ल की सजा फांसी होती है किन्तु कोर्ट एक महिला को मृत्युदंड देने के बजाय आजीवन कारावास की सजा ही सुनाएगी । पहले भी ऐसा ही होता आया है । उसे मलाल था कि उसके हाथों एक हुस्न परी की दुर्गति होने जा रही थी मगर वह तो अपनी ड्यूटी कर रहा है । इसमें उसका क्या दोष है ? अनुपमा ने गुनाह किया है तो उसे सजा भी मिलनी ही चाहिए । उसे सक्षम और अक्षत में कोई खास दिलचस्पी नहीं थी । उसे तो इस बात का दुख था कि अब उसे यदि "सौन्दर्य की देवी" के दर्शन करने होंगे तो उसे जेल में आना ही पड़ेगा और "सौन्दर्य की देवी" के दर्शन किये बिना उसे चैन कैसे मिलेगा ? 


भीड़ में अचानक सुगबुगाहट हुई । लोग खड़े हो गये थे । दरवाजे पर कोलाहल होने लगा । धक्का मुक्की होने लगी थी । पुलिस को हलका बल प्रयोग करना पड़ा था । मीडिया पर्सन्स अपने अपने कैमरे लेकर दरवाजे पर टूट पड़े थे । ऐसा लगा जैसे किसी जानवर की लाश पर सैकड़ों गिद्ध टूट पड़े हों । आजकल मीडिया का यही हाल है । सबसे तेज , सबसे आगे रहने की दौड़ में ये लोग "गिद्ध" बन गये हैं और पत्रकारिता न जाने कहां पीछे छूट गई है । एक कुख्यात पत्रकार ने तो संसद पर हमले को लेकर यह कहा था "Yes, we are vultures" . किसी के मान अपमान से इन्हें कोई सरोकार नहीं है । इन्हें तो बस TRP की चिन्ता है । पैसे और TRP के लालच में नैतिकता स्वाहा हो गई है । 


जैसे ही दरवाजे पर सक्षम , अनुपमा और अक्षत को लेकर पुलिस आई तो सभी मीडिया पर्सन्स के कैमरे चमक उठे । उनमें फोटो लेने की होड़ लग गई थी । सब लोग एक दूसरे पर चढे जा रहे थे । इतनी अमर्यादा आजकल पत्रकारों और वकीलों में ही होती है । कभी कोई जमाने में यह अमर्यादा नेता और पुलिस में दिखाई देती थी लेकिन वक्त बदला तो अमर्यादा के झंडाबरदार भी बदल गये । 


सक्षम ने अपने चेहरे को अपने हाथों से छुपाने की कोशिश की तो एक पत्रकार ने कहा "जब कत्ल किया था तब शर्म नहीं आई तो अब चेहरा छुपाने का नाटक क्यों कर रहा है" ? बेचारा सक्षम वहीं पर पानी पानी हो गया था । एक पत्रकार को क्या ऐसा कहना चाहिए ? क्या उसका अपराध प्रमाणित हो गया है ? लेकिन पत्रकारों को इससे क्या मतलब ? वे जो चाहे , जैसा चाहे लिख सकते हैं , कह सकते हैं और अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर किसी का भी चरित्र हनन कर सकते हैं । और मजे की बात यह है कि उनके इस दुष्कृत्य का सुप्रीम कोर्ट समर्थन भी करता है । जब कभी किसी पत्रकार के विरुद्ध कोई अभियोग देशद्रोह का भी चलता है तो भी सुप्रीम कोर्ट उन्हें बार बार बचाता रहता है । क्या सुप्रीम कोर्ट भी चाहता है कि इस तरह लोगों का मान मर्दन होता रहे ? देश के विरुद्ध षड्यंत्र होते रहें ? 


अनुपमा के तो पैर ही इतने भारी हो गये थे कि वे उठ ही नहीं रहे थे । उसने अपने चेहरे पर अपनी साड़ी का पल्लू डालकर खुद का बचाव कर लिया था । एक पत्रकार कहने लगा "हमने तो सुना था कि आप जैसी हसीना और कोई है ही नहीं इस शहर में । यदि एक बार इस नायाब हुस्न के हमें भी दर्शन हो जाते तो हम भी धन्य हो जाते ? हमने कौन सा अपराध किया है मैडम जो हमसे परदा कर रहे हो ? एक झलक इधर भी दिखला दो तो इस अदालत के कमरे में भी उजाला हो जाए" । 


अनुपमा ने जब यह सुना तो उसका चेहरा क्रोध से लाल हो गया । उसकी आंखों से चिंगारियां निकलने लगी । मुठ्ठियां तन गई थीं उसकी । वह सोचने लगी कि काश ! वह ऐसे लोगों के जबड़े अपने सैण्डल से तोड़ सकती ? लेकिन वह मजबूर थी । जब किसी पर किस्मत की मार पड़ती है तो सब लोग उस पर पत्थर फेंकने लग जाते हैं । जनता इसी तरह अपने भाव प्रकट करती है । लोग दूसरों पर पत्थर फेंकने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं । जिनके घर शीशे के होते हैं वे भी दूसरों के घरों पर पत्थर फेंककर आनंदित होते हैं । आज का दिन इन लोगों के लिए पत्थर फेंकने का है । देखते हैं कि इनके पत्थरों से कितना लहू बहता है ? वह सिर नीचा किये चुपचाप झेलती रही और अंदर कोर्ट में आ गई । 


अक्षत के चेहरे से अभी भी मासूमियत छलक रही थी । आंखों में पश्चाताप के आंसू थे । फांसी की सजा होने का डर था या अनुपमा भाभी की बेइज्जती होने का मलाल था , पता नहीं पर उसका चेहरा पूरी तरह से उतरा हुआ था । कैमरे उसका फोटो क्लिक करने लगे । कहीं कोई गाने लगा "तू पागल प्रेमी आवारा , अब बन गया है तू हत्यारा । तुझे उम्र कैद होगी रे । तू है एक प्रेम रोगी रे" । लोग उस पर थू थू करने लगे थे "देखने में कितना सीधा साधा और भोला भाला है पर है एक खतरनाक अपराधी । जिस थाली में खाया उसी में छेद कर दिया । अरे, तूने तो अच्छों अच्छों को फेल कर दिया । अपने भाई समान मकान मालिक का घर उजाड़ते हुए तुझे जरा सी भी शर्म नहीं आई" ? लोगों के ताने सुन सुन कर अक्षत को रोना आ गया । वह वहीं पर फफक फफक कर रोने लगा । 


तीनों आरोपियों को कड़ी सुरक्षा में कोर्ट में लाया गया और उन्हें आरोपियों के खड़े होने की जगह पर खड़ा कर दिया गया । उनके आगे पुलिस कर्मियों ने एक मानव दीवार बना ली थी । आजकल किसी का कोई भरोसा नहीं, कब हमला कर दे ? इस देश में दो खूंखार गैंगस्टर्स को एक साथ शूट कर दिया था अभी कुछ दिनों पूर्व । मीडिया वाले बता रहे थे कि शूटर्स पत्रकार बनकर आये थे । हालांकि उन दोनों कुख्यात बदमाशों के मर जाने के समाचार से जनता बहुत खुश हुई थी । किसी किसी ने तो उस दिन "दशहरा" भी मना लिया था । जनता का यह मानना है कि ये लोग कुख्यात बदमाश पुलिस और न्यायपालिका की मिलीभगत से ही तो बनते हैं । जब 30-30 सालों तक किसी को सजा नहीं हो तो न्यायपालिका से लोगों का भरोसा उठना स्वाभाविक ही है । इसी तरह एक और गैंगस्टर का कत्ल भी भरी कोर्ट में हो गया था । उसके हत्यारे वकील बनकर आए थे । उस समाचार को सुनकर लोगों को फिल्म "अंधा कानून" के उस दृश्य की याद आ गई जिसमें फिल्म का एक नायक भरी अदालत में जज के सामने ही खलनायक का कत्ल कर देता है । यह न्यायपालिका के सोचने की बात है कि जनता के बीच से उसका विश्वास ध्वस्त क्यों हो रहा है ? उसे यह समझना चाहिए कि जब न्यायपालिका न्याय देने में असफल रहती हैं तो जनता खुद न्याय करना शुरू कर देती है । 


पुलिस चौकन्नी थी कि कहीं जनता कानून अपने हाथ में ना ले ले इसलिए चप्पे चप्पे पर सुरक्षा के पुख्ता बंदोबस्त थे । चारों ओर अजीब सी सुगबुगाहट थी । पता नहीं क्या होगा ? सबके चेहरों पर जिज्ञासा थी । क्या इन तीनों को सजा होगी या फिर ये तीनों बरी हो जाऐंगे ? 


इतने में एक दरबान हाजिर हुआ और पूरे अदब के साथ खड़े होकर जोर से बोला "सावधान ! जज साहब पधार रहे हैं" । तब समस्त लोग अपने अपने स्थान पर सावधान की मुद्रा में खड़े हो गये । अदालत में पूर्ण सन्नाटा छा गया था । पीछे वाले दरवाजे से जज साहब "अवतरित" हुए । उन्होंने एक बार सामने खड़े हुए लोगों को इस अंदाज से देखा जैसे कह रहे हों "हम आजकल के इस धरती के भगवान हैं । यह ध्यान रखना तुम सब लोग" । उनकी आंखें गर्व से चूर हो रही थीं । भाव भंगिमा में रावण जैसी अकड़ थी । जिस तरह कोई जमाने में राजे महाराजे झरोखा दर्शन देते थे वही भाव जज साहब के चेहरे पर थे । 


अदालत की कार्यवाही शुरू हो गई । दरबान ने आवाज लगाई "सरकार बनाम अनुपमा वगैरह" । सब लोग अलर्ट हो गये । आज पहला ही केस अनुपमा वगैरह का लग गया था इसलिए लोगों ने चैन की सांस ली । 


सरकारी वकील नीलमणी त्रिपाठी खड़े हो गये और "डायस" के सामने आ गये । बचाव पक्ष की ओर से कोई वकील खड़ा नहीं हुआ तो जज साहब को बड़ा अखरा । "कौन है आरोपियों का वकील" ? उन्होंने चारों तरफ निगाहें दौड़ाई मगर कोई नजर नहीं आया । तब सरकारी वकील बोले "योर ऑनर, बचाव पक्ष को भी पता है कि उनके केस में कोई दम नहीं है इसलिए उनका केस लड़ने को कोई वकील तैयार ही नहीं हुआ । ले देकर एक जासूस का नाम सामने आया था मगर लगता है कि वह भी बिना लड़े ही भाग गया है" । और बड़े ही तिरस्कार पूर्ण तरीके से नीलमणी त्रिपाठी हंसे । उनके हंसते ही पूरी अदालत में हंसी का ठहाका गूंज उठा । जज साहब के अधरों पर भी मुस्कान तैर गई । 


(अगले अंक में आप पढेंगे कि क्या हीरेन दा अदालत में उपस्थित होता है या नहीं ? अदालत में क्या कार्रवाई होती है) 



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