Ratna Pandey

Inspirational

4.3  

Ratna Pandey

Inspirational

किलकारी

किलकारी

24 mins
573


अदिति और विजय के विवाह को नौ वर्ष पूरे हो चुके थे लेकिन अब तक भी घर में बच्चों की किलकारियाँ नहीं गूँजी थीं। विजय के माता-पिता तो बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे कि वे कब दादा-दादी बनेंगे। अदिति और विजय ने क्या-क्या नहीं किया। शहर के बड़े से बड़े डॉक्टर को दिखाया। मंदिरों में जाकर माथा टेका लेकिन भगवान उनकी पुकार सुन ही नहीं रहा था। इसी तरह एक वर्ष और गुजर गया। धीरे-धीरे निराशा उनके जीवन में गृह प्रवेश करने लगी। अड़ोस-पड़ोस के छोटे-छोटे बच्चों को देखकर अदिति का मन भी ललचा जाता। कोई उसे भी माँ कह कर बुलाए, कोई उसकी गोदी में आकर लिपट जाए। वह भी अपने आँचल में लेकर किसी नन्हे को दूध पिलाए। अदिति उदास रहने लगी जो विजय महसूस कर रहा था और उसकी उदासी का कारण भी वह जानता ही था।


विजय सोच रहा था कि अदिति को संभालना होगा। यदि अभी भी उसे बच्चे की ख़ुशी नहीं मिली तो वह मानसिक तौर से बीमार हो जाएगी। रात भर विजय सो ना पाया यह सोचते हुए कि क्या करूँ? वह तो अपना दुःख सहन कर लेता था लेकिन अदिति नहीं कर पा रही थी। तभी लेटे-लेटे विजय के मन में विचार आया क्यों ना वे लोग किसी बच्चे को गोद ले लें।


अदिति से पूछने से पहले वह उठकर अपने पापा मम्मी के कमरे में गया और आवाज़ लगाई, "माँ उठो ना!"


विजय को अपने कमरे में इस वक़्त देखकर विमला घबरा गई। घबराई हुई आवाज़ में उसने पूछा, "क्या हुआ विजय, सब ठीक तो है ना?"


तब विजय ने कहा, "माँ मुझे आप लोगों से बहुत ही ख़ास मसले पर चर्चा करनी है। पापा को भी उठाओ।"


उसके पापा दीपक तो जाग ही रहे थे। यह सुनते ही वह उठ कर बैठ गए और उन्होंने कहा, "बोलो विजय क्या बात करना चाहते हो?"


"अदिति अभी सो रही है। मैं उसकी गैर हाज़िरी में यह बात करना चाहता हूँ।"


"हाँ बोलो विजय।"


"पापा हमारी शादी को दस साल पूरे होने को आ गए परंतु हम अभी तक आप लोगों को दादा-दादी बनने का सौभाग्य ना दे पाए। सब कुछ करके अब हम हार गए हैं। मैं तो फिर भी ऐसे ही जी लूँगा लेकिन मुझे अदिति की चिंता रहती है। उसका उदास चेहरा देखकर मैं भी दुःखी हो जाता हूँ। मुझे डर लगता है ऐसे में कहीं उसे मानसिक बीमारियाँ ना घेर लें। मैं चाहता हूँ कि अब हमें कोई बच्चा गोद ले लेना चाहिए, यदि आप दोनों इस बात से सहमत हों, आपको कोई एतराज ना हो। तब तो मैं अदिति से भी बात कर सकता हूँ।"


विमला ने पूछा, "विजय बेटा क्या अब कोई उम्मीद बाकी नहीं है?"


"नहीं माँ आपको क्या लगता है नौ साल का लंबा समय बीत गया। क्या अब भी आपको उम्मीद लगती है? अब तक यदि होना होता तो हो जाता। अब और ज़्यादा समय तक रास्ता देखना मुझे ठीक नहीं लगता।"

 

दीपक ने कहा, "मुझे तो इसमें कोई एतराज नहीं है बल्कि अच्छा ही है। वैसे भी हमारे देश में कितने ऐसे बच्चे हैं जो बेचारे अनाथाश्रम में रहते हैं। जिनके मां-बाप या तो उन्हें छोड़ देते हैं या बेचारे ख़ुद ही दुनिया छोड़ जाते हैं। ऐसे बच्चों में से यदि किसी एक को भी हमारा प्यार, हमारा साथ मिलता है, तो हमारे लिए यह बहुत ही ख़ुशी की बात है। क्या कहती हो विमला?"


"ऐसे तो मुझे भी कोई एतराज नहीं है। मैं तो सिर्फ़ यह पूछ रही थी कि क्या अब कोई उम्मीद की गुंजाइश नहीं?"


"विमला चलो माना, यदि हमारे घर भगवान बच्चा दे भी देते हैं तो भी क्या हुआ हमारे दो बच्चे हो जाएँगे। अब जब मन में आ ही गया है तो इस काम में हमें देरी नहीं करनी चाहिए।"


अपने माता-पिता की सहमति मिलते ही विजय ने कहा, "तो ठीक है मैं कल ही अदिति से भी बात कर लेता हूँ और . . . "


विमला ने बीच में ही टोकते हुए कहा, "क्या अदिति मान जाएगी?"


"हाँ माँ लगता तो है. सुबह पता चल जाएगा। चलो अब मैं जाता हूँ। आप लोग भी सो जाइए, रात काफ़ी हो रही है।"

 

विमला अदिति से बहुत प्यार करती थी। बच्चे के ना होने की बात पर कभी भी विमला ने उसे एक भी अपशब्द नहीं कहा। वह समझती थी कि इसमें हमारे दोनों बच्चों की कोई गलती नहीं है। यह सब भाग्य का खेल है। वह हर काम में भी अदिति को मदद करती थी।


दूसरे दिन रविवार था। अदिति ने सुबह सबके लिए नाश्ता तैयार किया। वह सब खाने के लिए डाइनिंग टेबल पर बैठे। तब विजय ने कहा, "अदिति हम लोग तुमसे कुछ बात करना चाहते हैं।"

 

"हाँ बोलो ना विजय क्या बात है," अदिति घबरा गई और उसकी आँखें विजय की आँखों को इस तरह देखने लगी मानो वह कह रही हों प्लीज़ कुछ ऐसा मत कह देना जिसे वह सहन ना कर पाए । अगले ही पल उसने सोचा, तीनों बात करना चाहते हैं। कहीं बच्चे को लेकर . . . या विजय का दूसरा विवाह . . .! कुछ ही पलों में कितना कुछ सोच लिया था अदिति के दिमाग़ ने।


"नहीं-नहीं यहाँ तो सभी मुझे कितना प्यार करते हैं।"


तभी विजय ने कहा, "अदिति कहाँ खो गई?"


अदिति चौंक गई, "नहीं कुछ नहीं, तुम क्या कह रहे थे?" 


"अदिति क्या हम अनाथाश्रम से बच्चा गोद ले-लें?"


अदिति ने ख़ुश होकर मुस्कुराते हुए कहा, "विजय मैं तो कब से इस इच्छा को अपने मन में दबाए हुए बैठी हूँ लेकिन कभी कहा नहीं यह सोच कर कि पापा और माँ को कैसा लगेगा?" 


विमला ने कहा, "अदिति बेटा यह तो बहुत ही अच्छा निर्णय है। हम दोनों तैयार हैं। रात को हमने आपस में बात की थी लेकिन इस पर आखिरी मुहर तो तुम्हें ही लगानी है। बेटा तुम यदि इसे ठीक समझती हो, और यदि तुम यह कर सकती हो तो हम आगे बढ़ सकते हैं।" 

 

"हाँ मैं क्यों नहीं कर सकती माँ?"


"बेटा यह एक कठिन तपस्या है। उसके बाद यदि तुम्हारी गोद भी भर गई तो उस बच्चे के साथ कभी भी अन्याय नहीं होना चाहिए।"


"हाँ माँ मैं उसे बहुत प्यार दूँगी उसी तरह जैसे मानो मैंने ही उसे जन्म दिया हो।"


"बस बेटा हम सब तुम्हारे मुँह से यही सुनना चाहते थे।"


अदिति की प्यासी आँखों में आँसू छलक आए। उसे देखकर सभी भावुक हो गए। अदिति ने अपने आँसू पोंछते हुए सभी को चाय देने के लिए केतली हाथ में उठाई। उस समय अदिति के हाथ काँप रहे थे। उसके हाथ से केतली लेते हुए विमला ने कहा, "लाओ बेटा मैं देती हूँ।" 


चाय की चुस्कियाँ लेते हुए अब उनके बीच यह सलाह मशवरा चल रहा था कि लड़का गोद लें या लड़की।


अदिति ने कहा, "मुझे तो कुछ भी चलेगा बेटा हो या बेटी, बस मेरी गोदी सूनी ना रहे।"


विजय ने कहा, "मैं बेटे बेटी में कोई फ़र्क़ नहीं समझता फिर भी मेरी इच्छा है कि हम बेटा लेकर आएँ।"


टेबल से सामान उठाते हुए विमला ने पूछा, "क्यों बेटा ही क्यों चाहिए?"


चाय की आखिरी चुस्की लेते हुए विजय ने कहा, "माँ मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि बेटी की शादी कैसे परिवार में होती है। कैसा जीवनसाथी मिलता है, बहुत ही चिंता का विषय होता है। आज भी दहेज के लिए लोग मुँह फाड़े खड़े ही रहते हैं। मॉडर्न हो गए हैं सारे पर दहेज प्रथा का साथ ना छोड़ पाए। यदि ऐसा कुछ घट जाता है तो फिर उस बच्ची का जीवन संकटों के बीच घिर जाता है। वह बच्ची फिर कभी पहले जैसी ख़ुश नहीं रह पाती।"


यह सुनते ही अदिति घबरा गई और उसके हाथ से चाय टेबल पर छलक गई । मेज पर गिरी चाय को साफ़ करते हुए उसने कहा, "नहीं बाबा मुझे भी डर लगता है, हम तो बेटा ही लेंगे।"


अंततः इसी निर्णय पर सभी की मुहर लग गई कि बेटा लेकर आएँगे। दूसरे दिन सुबह नहा धोकर तैयार होकर अदिति और विजय अनाथाश्रम पहुँच गए। वहाँ का पूरा मुआयना करने के बाद वह बहुत से बच्चों से मिले जो थोड़े बड़े हो चुके थे।


अदिति ने विजय से कहा, "विजय मुझे ऐसा बच्चा चाहिए जिसे मैं अपनी गोदी में लिटा सकूँ। बोतल से उसे दूध पिला सकूँ।" 


छोटे शिशु की तलाश में वह दोनों वहाँ से निकल गए। अपनी कार में बैठते हुए अदिति ने कहा, "विजय मैंने गूगल पर सर्च किया है। कुछ ही दूरी पर एक दूसरा अनाथाश्रम है जिसका नाम 'वारिस' है। चलो ना वहाँ चलते हैं।"


"ठीक है वहाँ भी चल कर देख लेते हैं, हो सकता है वहाँ हमें हमारा वारिस मिल जाए।" 


'वारिस अनाथाश्रम' पहुँच कर उन्होंने रिसेप्शन पर अपनी एंट्री करवाई। अनाथाश्रम के नियम कानून बड़े ही सख्त होते हैं। कोई भी बिना इजाज़त के अंदर नहीं जा सकता। आख़िर बच्चों की सलामती का प्रश्न होता है। विजय अपने दस्तखत कर ही रहा था कि एक नवजात शिशु के रोने की आवाज़ उनके कानों में आई। अदिति उस तरफ़ देखने लगी जिस ओर से यह आवाज़ आ रही थी।

 

उसने पूछा, "मैडम यह आवाज़?"


"हाँ मिसेस अदिति यह हमारे यहाँ कल ही नया बालक आया है। मुश्किल से चार-पाँच दिन का ही होगा। कोई हमारे यहाँ रात को छोड़ गया था।"


"क्या मैं उसे देख सकती हूँ?"


"बिल्कुल देख सकती हैं। रमा जाओ इन्हें अंदर लेकर जाओ और इन्हें बच्चों से मिलवा दो।"


"जी मैडम जी, आइए मैडम आइए सर।"


"हाँ चलो," अदिति ने कहा।


वहाँ पहुँचते से जैसे ही अदिति ने उस बच्चे को देखा, उसके मुँह से अपने आप ही निकल गया, "विजय बस मुझे यही बच्चा चाहिए। मुझे और कुछ नहीं देखना है।" 


"ठीक है अदिति जैसी तुम्हारी इच्छा।"


उसके बाद उन्होंने वहाँ की संचालिका से बात की। विजय ने कहा, "मैडम हमें यह बच्चा चाहिए।" 


संचालिका ने कहा, "यह बच्चा कल ही आया है। हमें 15-20 दिन लग जाएँगे, इसे आपको देने में।"


"हाँ ठीक है, आप अपनी तरफ़ से पूरी कार्यवाही कर लीजिए। हमें क्या-क्या करना है वह भी बता दीजिए?"


"हाँ-हाँ आप यह फॉर्म भर दीजिए और नीचे आप दोनों को हस्ताक्षर करने होंगे।"


"जी ठीक है "


सभी औपचारिकतायें पूरी होने के बाद अदिति ने पूछा, " क्या मैं हर रोज़ मेरे बच्चे से मिलने आ सकती हूँ?"


"देखिए अदिति जी हमें उससे कोई एतराज नहीं है। बस हम 15 दिन इसलिए कह रहे हैं ताकि कहीं कोई अपना बच्चा कह कर, इसे लेने ना आ जाए। वरना आपको ज़्यादा तकलीफ़ होगी।"


माथे पर आई शिकन को नजरंदाज करते हुए अदिति ने कहा, "नहीं-नहीं प्लीज़ आप मुझे अनुमति दे दीजिए।"


"ठीक है आपकी इतनी ज़्यादा इच्छा है तो आप आ सकती हैं। मैं तो सिर्फ़ इसलिए कह रही थी कि कहीं आपको बाद में दुःख ना हो।"


"कुछ नहीं होगा, यदि लेना होता तो कोई उसे इस तरह छोड़ता ही क्यों?"


ख़ैर 20 दिन निकल गए और बच्चा अदिति और विजय को सौंप दिया गया।


अदिति ने प्यार के साथ उस बच्चे को उठाकर अपनी बाँहों में समेट लिया। इस समय उसे ऐसी अनुभूति हो रही थी मानो उसकी झोली में भगवान ने दुनिया भर की सारी ख़ुशियाँ बटोर कर डाल दी हों। प्यार उमड़-उमड़ कर आ रहा था। उसे ऐसा लग रहा था कि वह उस बच्चे को अपने आँचल में छिपा कर दूध से लगा ले। चाहे कोई कितना भी प्यार कर ले किंतु भगवान ने यह वरदान सिर्फ़ जन्म देने वाली माँ को ही दिया है। फिर भी वह बहुत ख़ुश थी । बच्चे के माथे को चूमते हुए उसने कहा, "देखो विजय कितना प्यारा है। इसे गोदी से नीचे उतारने का मन ही नहीं कर रहा।"


"रखो अदिति गोदी में रखो, तुम्हारा ही है ना यह। नाम क्या रखना है इसका?"


"घर चल कर माँ और पापा जी के साथ नाम सोचेंगे।"


"ठीक है"


वह घर पहुँचे तो विमला ने आरती की थाली लेकर उस बच्चे और अदिति का स्वागत किया। आरती उतारकर वह उन्हें अंदर लेकर आई। सब बच्चे को अपनी- अपनी गोद में ले रहे थे। घर पर उसकी ज़रूरत का सारा सामान आ चुका था।


विमला ने कहा, "अब हमें इस बच्चे का बहुत ख़्याल रखना है। उसे कभी किसी भी चीज की कमी नहीं होने देना।"


सब बहुत ख़ुश थे। घर में उसके आने की ख़ुशी में एक बड़ा सा आयोजन भी रखा गया। जिसमें सभी रिश्तेदारों और दोस्तों को बुलाया गया। आज उसका नामकरण संस्कार था। सबने मिलकर उसका नाम रखा पारस।


धीरे-धीरे समय की रफ़्तार के साथ-साथ पारस भी एक वर्ष का होने वाला था। तभी एक दिन अदिति की तबीयत गड़बड़ लग रही थी। विजय उसे डॉक्टर को दिखाने लेकर गया। डॉक्टर ने अदिति को देखने के बाद कहा, "बहुत ही आश्चर्य की बात है. . .," वह मन ही मन स्वयं ही बुदबुदा रहे थे शायद उन्हें ख़ुद पर विश्वास नहीं हो रहा था। उन्होंने बाजू के केबिन से अपनी पत्नी डॉ अर्चना जो कि गायनेक थीं, उन्हें बुलाया और धीरे-धीरे उनसे कुछ कहने लगे।


डॉक्टर अर्चना ने तुरंत ही अदिति को चैक किया। दरअसल वे विजय के फैमिली डॉक्टर थे। अर्चना ने चैक करने के बाद एक राहत भरी साँस लेते हुए अदिति से कहा, "बाहर आ जाओ।"


उसके बाद फिर डॉक्टर अर्चना ने अपने हाथ साबुन से धोते हुए कहा, "आप दोनों के लिए एक बहुत ही बड़ी ख़ुश ख़बर है।"


"क्या हुआ डॉक्टर?"


विजय और अदिति ने जो सपने में भी सोचना बंद कर दिया था, ऐसी ख़बर डॉक्टर ने उन्हें सुनाते हुए कहा, "आप दोनों अपना दिल थाम कर सुनना। अदिति माँ बनने वाली है।"


यह चमत्कार कैसे हो गया, भगवान ही जाने। पिछले दस साल में अब तो कोई उम्मीद ही नहीं बची थी। उस समय अदिति और विजय इस ख़बर को सुनकर ख़ुश होने से ज़्यादा आश्चर्यचकित हो रहे थे। उन्हें समझ ही नहीं आ रहा था कि कैसे रिएक्ट करें।


तभी डॉ अर्चना ने उनके हाथों में मिठाई का डब्बा देख लिया और मुस्कुराते हुए कहा, "अदिति मिठाई? क्या तुम जानती थीं?"


"नहीं डॉक्टर, यह मिठाई तो मेरे बेटे के घर आने की ख़ुशी में है।"


"बेटे के . . . कौन-सा बेटा?"


अपने मोबाइल में से पारस की तस्वीर दिखाते हुए उसने कहा, "डॉक्टर यह देखिए हमने इसे अनाथाश्रम से गोद लिया है और देखिए ना इसे आने को अभी वर्ष भी पूरा नहीं हुआ है और इसके क़दम ऐसे शुभ पड़े कि मैं . . . !" 


"यह तो बहुत ही ख़ुशी की बात है अदिति। तुम दोनों ने बहुत ही नेक काम किया है शायद इसीलिए भगवान ने तुम्हारी झोली में एक और संतान दे दी।"


उसके बाद डॉ अर्चना ने कुछ दवाइयाँ और बहुत सारी हिदायतें देकर उन्हें कहा, "ऑल द बेस्ट अदिति अपना ख़्याल रखना।"


"डॉक्टर सब ठीक तो है ना?" विजय ने प्रश्न किया।


"फिलहाल तो सब ठीक ही लग रहा है। हर माह चैकअप के लिए आते रहना होगा।"


"ठीक है डॉक्टर थैंक यू," कहते हुए विजय ने अदिति के हाथ से मिठाई का डब्बा लेकर डॉक्टर को दे दिया और कहा, "यह हमारे बड़े बेटे के घर आने की ख़ुशी में है डॉक्टर।"


बाहर निकलते समय अदिति और विजय बहुत ख़ुश थे। उन्होंने एक दूसरे को देखा पर बोल कुछ भी ना पाए। घर जाकर उन्होंने अपनी माँ और पापा जी को यह गुड न्यूज़ सुनाई। यह ऐसी ख़बर थी जिस पर एकदम से यक़ीन करना मुश्किल था।


विमला ने अचरज भरी नज़रों से कहा, "क्या तुम सच कह रही हो?"

 

"हाँ माँ बिल्कुल सच है।"


सभी की ख़ुशियों का ठिकाना ना रहा।


पारस को चूमते हुए विमला ने कहा, "कितना क़िस्मत वाला है तू। तुझे अकेले ना रहना पड़े इसका इंतज़ाम आते से ही कर दिया। कितने अच्छे क़दम लेकर घर में आया है।"


अब तो अदिति की देखरेख में पूरे समय विमला लगी ही रहती। उसके खाने-पीने से लेकर दवा तक हर चीज का ख़्याल वही रखती, बिल्कुल अपनी बेटी की तरह। अदिति पूरे नौ माह तक स्वस्थ रही। किसी तरह की कोई परेशानी के साथ टकराव नहीं हुआ और यह नौ माह का समय भी बीत गया।


अदिति को प्रसव पीड़ा शुरु होते ही तुरंत उसे अस्पताल लाया गया। विजय और घर के सब लोग आज थोड़े से तनाव में थे कि क्या होगा? कैसे होगा? सब ठीक से तो हो जाएगा ना। इसी तरह के कई सवालों से घिरे इंतज़ार कर रहे थे कि कब डॉक्टर आकर उन्हें अच्छी ख़बर सुनायेंगी। लगभग सात घंटे के लंबे अंतराल के बाद डॉक्टर आईं और कहा, "बधाई हो बेटी आई है।"


यह ख़बर उनके कानों को उस सुख का आभास करा गई, जिसकी उन्होंने आशा ही छोड़ दी थी। सब कुछ सामान्य था इसलिए जल्दी ही उन्हें अस्पताल से छुट्टी मिल गई।


विमला ने बच्ची को गोद में उठाकर चूमते हुए कहा, "क्यों ना इसका नाम हम पवित्रा रख दें। पारस और पवित्रा दोनों भाई बहन की जोड़ी बहुत अच्छी रहेगी।"


पवित्रा नाम सुनते ही अदिति ने कहा, "अरे वाह माँ आपने एक बार में ही इतना प्यारा नाम बता दिया कि अब और सोचने की ज़रूरत ही नहीं है।"


एक वर्ष के अंदर, दो बालक एक बेटा और एक बेटी को पाकर विजय का परिवार पूरा हो गया। वे सब दोनों बच्चों को बिल्कुल एक जैसा प्यार दे रहे थे। एक जैसे संस्कार दे रहे थे।


धीरे-धीरे समय आगे चलता गया, बच्चे बड़े होते गए। दोनों भाई बहन में बहुत ज़्यादा बनती थी। एक दूसरे के बिना वे रहते ही नहीं थे। मस्ती, लड़ाई, झगड़ा, प्यार, दुलार सब कुछ चलता रहता था। पवित्रा को पारस हमेशा छोटी कह कर ही बुलाता था।


स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद कॉलेज। पारस और पवित्रा में केवल एक ही क्लास का अंतर तो था। कॉलेज में पहुँचते ही पवित्रा को स्कूटर और पारस को बाइक मिल गई। उनके पास कभी किसी चीज की कमी नहीं होती थी। पारस का ग्रेजुएशन भी पूरा हो गया। वह कंप्यूटर इंजीनियर बन गया। इसी बीच उसने कई कॉम्पिटिटिव परीक्षाएँ भी दी थीं, कई जगह इंटरव्यू भी दिए थे।


उसे एक अमेरिकन कंपनी में नौकरी मिल गई। उसे अब अमेरिका जाना था। वह बहुत ख़ुश था। पूरा परिवार भी उसके लिए बहुत ख़ुश था। बस यदि दुःखी थी तो छोटी। वह पारस को अपने से दूर जाते देखकर अपने अकेलेपन से घबरा रही थी। वह पारस को बहुत चाहती थी। हमेशा दोनों साथ-साथ ही तो रहते थे।


एक दिन उसने कहा, "पारस भैया अब तुम हमेशा-हमेशा के लिए हमसे दूर चले जाओगे। वहाँ जाकर फिर कोई हमेशा के लिए वापस नहीं आता। बस दो-चार दिन या दो-चार हफ़्ते के लिए ही तुम भी आओगे। मैं तुम्हारे भविष्य और सफलता के लिए बहुत ख़ुश हूँ लेकिन इस दूरी के कारण बहुत दुःखी हूँ।"


"अरे पगली वहाँ सेटल होने के बाद तुझे और माँ पापा जी को भी वहाँ बुला लूँगा।"


"माँ पापा जी वहाँ आकर क्या करेंगे। वे तो अपनी मिट्टी छोड़कर कभी नहीं जाएँगे। हाँ घूमने ज़रूर आ जाएँगे पर हमेशा रहने के लिए कभी तैयार नहीं होंगे।"


"हाँ तू ठीक कह रही है पर इतना अच्छा अवसर मिला है तो जाना तो चाहिए ना?"


"हाँ बिल्कुल, यह बात तो सही है। सभी को कहाँ ऐसे सुअवसर मिलते हैं।"


पारस की जाने की तैयारियाँ जोर-शोर से चल रही थीं। विजय, अदिति और छोटी सब उसे मदद कर रहे थे। रात काफी हो गई थी। अब पारस के अलावा सभी सो चुके थे। पारस अपने कुछ सर्टिफिकेट्स ढूँढ रहा था। तभी वह उस कमरे में गया जहाँ वह यदा-कदा ही जाता था। यहाँ विजय की अलमारी में केवल उसकी ही फाइलें रहती थीं। पारस ने सोचा शायद पापा जी ने उसके सर्टिफिकेट्स वहाँ रख दिए होंगे। ऐसा सोच कर उसने वह अलमारी खोली और ढूँढने लगा।


तब उसे एक फाइल मिली जिसमें से उसे वह कागजात मिल गए जिसमें उसे अनाथाश्रम से गोद लिया गया था। उन्हें देखकर वह हैरान रह गया। उसे अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था। ना जाने कितनी बार उसने उस काग़ज़ को उलट-पुलट करके देखा। कितनी बार पढ़ा, उसे ऐसा लग रहा था मानो उलट पलट कर देखने से वह काग़ज़ बदल जाएँगे किंतु यह वो सच्चाई थी जो कभी मिट नहीं सकती थी। उसके बाद नम आँखों के साथ पारस ने उन्हें वैसे के वैसे ही वापस रख दिया।


अपने कमरे में वापस आकर पारस चुपचाप बिस्तर पर लेट गया। जब से उसने होश संभाला तब से लेकर अब तक के ना जाने कितने ही पल उसकी आँखों में दृष्टिगोचर हो रहे थे। इतना प्यार, इतना दुलार, बिल्कुल छोटी की तरह। माँ पापा जी ने कभी छोटी और उसमें अंतर किया ही नहीं। वह सोच रहा था यदि वह यहाँ से बाहर निकल गया तो माँ पापा जी अकेले हो जाएँगे। छोटी तो आज है कल ससुराल चली जाएगी, उसके बाद उनका क्या होगा।


तभी घर के बाहर के दरवाजे को ज़ोर-ज़ोर से खटखटाने की आवाज़ आने लगी। पारस जाग रहा था वह तुरंत ही उठकर गया और दरवाज़ा खोला। सामने ऊषा आंटी घबराई हुई खड़ी थीं। पारस को देखते ही वह बोलीं, "बेटा तुम्हारे अंकल को हार्ट अटैक आया है घर पर और कोई तो है नहीं, तुम जल्दी चलो प्लीज़।" 


"अरे हाँ आंटी आप चिंता मत करो," कहते हुए पारस ने विजय और अदिति को आवाज़ लगाई, "माँ पापा जल्दी उठो राकेश अंकल को हार्ट अटैक आया है।" 


वे दोनों भी उठ गए और वे ऊषा के साथ उनके घर पहुँचे। पारस ने अपनी कार निकाली और अस्पताल में फ़ोन भी कर दिया। बीच रास्ते तक पारस उन्हें ले आया। वहीं पर आधे रास्ते में उन्हें कार से निकाल कर एंबुलेंस में डाल कर अस्पताल ले गए। यह सब इतनी तेजी से हुआ सिर्फ़ इसलिए डॉक्टर राकेश की जान बचा पाए।


ऊषा धन्यवाद के मीठे शब्द बोलती जा रही थी। उसने कहा, "पारस बेटा आज जो तुम ना होते तो मैं अकेली क्या करती। राकेश तो यह दुनिया छोड़कर ही चले जाते। तुम मेरे लिए भगवान बन कर आए हो।"


"नहीं आंटी आप यह सब मत कहिए। अब तो अंकल ठीक हैं डरने की कोई बात नहीं है।"


अदिति ने ऊषा के आँसू पोंछते हुए कहा, "बस अब चिंता मत करो। हम यहाँ रुकते हैं तुम्हारे पास। पारस तुम घर जाओ बेटा, पवित्रा अकेली है।"


"जी माँ मैं जाता हूँ।"


कार चलाते समय पारस सोच रहा था, "जिसने उसे जीवन के इतने सुंदर सुनहरे पल दिए, उसके जीवन के हर पल को रंगीन बना दिया, उनसे दूर जाकर मैं उनके जीवन को बेरंग कैसे कर सकता हूँ। अब तक मुझे उनकी ज़रूरत थी लेकिन और कुछ वर्षों में उन्हें मेरी ज़रूरत पड़ेगी।"


घर आकर भी वह रात भर बेचैनी में इधर से उधर करवटें बदलता रहा। पूरी रात खुली आँखों से जागते हुए एक लंबे सपने की तरह गुज़री थी। जिसमें कभी उसे भूतकाल का बचपन याद आता। कभी वर्तमान और कभी आने वाला वह भविष्य जिसमें उसे उसके बूढ़े माँ पापा जी अकेले खड़े दिखाई देते। वह उसे पुकारते पर उनकी आवाज़ उसे सुनाई नहीं देती। वह उसे निहारते पर वह उन्हें देख नहीं पाता। वह अपनी बाँहें फैलाते पर वह लिपट नहीं पाता। आख़िरी में उनके आँसू दिखते जो वह पोंछ नहीं पाता।


सुबह नाश्ते के समय विजय ने पूछा, "पारस बेटा, तुम्हारी तैयारी पूरी हो गई। देखना कुछ छूट ना जाए, अब तुम्हारे जाने के केवल 5 ही दिन बाक़ी है।"


तभी पारस ने पानी का घूँट निगलते हुए कहा, "पापा जी मैं नहीं जा रहा।" 


अचरज भरे स्वर में, "क्या-क्या . . .,” कहते हुए विजय उठकर खड़े हो गए, " यह क्या कह रहे हो पारस तुम? क्या हो गया? तुम्हें समझ में भी आ रहा है तुम क्या कह रहे हो और क्यों नहीं जा रहे? रात तक तो सब ठीक था बेटा, अचानक क्या हुआ? सब जानते हैं तुम ने इसके लिए कितनी मेहनत की है। दिन रात एक कर दिया था तुमने।"


"पापा जी मन नहीं कर रहा। जैसे-जैसे जाने का समय नज़दीक आ रहा है वैसे-वैसे मन में धुकधुकी हो रही है, बेचैनी हो रही है। आपको छोड़कर जाने के लिए मन तैयार नहीं हो रहा।"


पारस की इस तरह की बातें सुनकर विजय ने कहा, "अच्छा होम सिकनेस के शिकार हो रहे हो तुम? जाओ बेटा, धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा।"


"वहाँ तो सब ठीक हो जाएगा पापा जी लेकिन यहाँ? आप और माँ अकेले हो जाओगे। देखो कल रात ही राकेश अंकल . . . "


"अरे बेटा ऐसा सब मत सोचो।"


" क्यों ना सोचूँ पापाजी! जब मैं छोटा था मुझे आप लोगों की ज़रूरत थी। बचपन में आपकी उंगली पकड़ कर चला। जवानी में आपके साये के नीचे रहा। पता नहीं पापाजी मुझे लग रहा है आने वाले समय में आपको भी तो मेरी उंगली की ज़रूरत पड़ेगी और तब मैं अपना हाथ आप तक नहीं ला सकूँगा। इससे ज़्यादा दुःख की बात और क्या हो सकती है। सुख तो उसमें होगा कि आप मेरी तरफ़ हाथ बढ़ायें और मैं आपको बिना इंतज़ार करवाए अपना हाथ आपके हाथों तक पहुँचा दूँ। मुझे नहीं चाहिए इतनी दौलत जो मुझे मेरे परिवार से ही जुदा कर दे। मुझे नहीं चाहिए ऐसी ज़िन्दगी जिसमें आप और माँ ना हों।"


"बेटा तुम भावनाओं में बह रहे हो। कुछ नहीं होगा, दूसरे बच्चे भी तो जाते हैं ना।"


"जाते होंगे पापा जी, जो सुख आपके साथ यहाँ रहकर मुझे मिल सकता है, वह लाखों करोड़ों कमा कर वहाँ मुझे नहीं मिलेगा। मुझे उस सुख से यह सुख ज़्यादा प्यारा है, जिसका सुखद एहसास मुझे हमेशा होता रहेगा।"


"आते जाते रहोगे ना बेटा, क्यों इतने सुंदर भविष्य को छोड़ देना चाहते हो?"


"पापा जी यहाँ क्या कमी है। हमारे पास सब कुछ तो है और फिर छोटी की शादी भी तो करनी है। उसके लिए लड़का मैं ही तो पसंद करुँगा। यदि कल को कभी उसे मेरी ज़रूरत पड़ जाएगी, वह मुझे आवाज़ लगाएगी सात समंदर पार से। उस समय यदि मैं आ ना पाया तो. . .? मेरा यह फ़ैसला अंतिम फ़ैसला है पापाजी और मैं इसे हरगिज़ नहीं बदलूँगा।"


"पारस बेटा क्यों ग़लत ज़िद कर रहे हो," कहते हुए विजय ने अदिति को आवाज़ लगाई, "अदिति देखो ना पारस क्या कह रहा है?"

 

"मैंने सब सुन लिया है विजय। देखो वह बड़ा हो गया है, उसे जो सही लगता है वो ही करने दो। यह निर्णय उसका ही अंतिम निर्णय होगा। फिर भी बेटा मैं भी यही कहूँगी कि चले जाओ। हमारी वज़ह से तुम्हारे जीवन में ब्रेक लगे, हमें भी तो अच्छा नहीं लगेगा ना?"


"ब्रेक कहाँ लग रहा है माँ, यहाँ भी बहुत अच्छा भविष्य बन सकता है और वह भी अपने पूरे परिवार के साथ। थोड़ा पैसा कम भी हो तो क्या फ़र्क़ पड़ता है।"


अदिति और विजय के लाख समझाने के बाद भी पारस ने अपना फ़ैसला नहीं बदला।


विमला भी पारस के इस फ़ैसले को सुनकर ख़ुश थी। वह अब तक काफ़ी बूढ़ी हो चुकी थी और दीपक उन्हें छोड़कर हमेशा के लिए जा चुके थे।


जब छोटी को यह मालूम पड़ा वह तो ख़ुशी से उछल पड़ी और उसने पारस के गले लग कर कहा, "भैया यह तो बहुत ही अच्छा हुआ। तुम्हारे बिना अकेले रहना? मैं बहुत दुःखी थी, तुम्हें कुछ नहीं कह रही थी। अब जब यह पता चला कि तुम भी नहीं जाना चाहते तभी मैंने अपनी यह बात तुम्हें बताई। अब हम सदा यहीं साथ-साथ रहेंगे।" 


"अरे पगली तू तो शादी करके भाग जाएगी मुझे छोड़कर।"


"नहीं मैं ऐसे लड़के के साथ शादी करूँगी जो इसी शहर में रहता हो।"


"ठीक है तो मैं इसी शहर में तेरे लिए तेरा हीरो ढूँढूँगा।"


रात में जब अदिति और विजय अपने कमरे में सोने के लिए गए तब विजय ने कहा, " अदिति आज मुझे वह दिन याद आ रहा है जब छोटे से, नन्हे पारस को हम घर ले आये थे और उसने तुम्हारी सूनी गोदी में लेट कर अपनी किलकारीयों से उसे भर दिया था। तुम्हारे आँचल में हँसता, खेलता, छुपता, छोटा-सा हमारा पारस ऐसे क़दम लेकर आया कि हमारा परिवार जो एक बेटी की कमी महसूस कर रहा था, वह इच्छा भी हमारी पूरी हो गई। हमारा परिवार उसके आने के बाद ही पूरा हुआ।"


अदिति ने कहा, "तुम सच कह रहे हो विजय। पारस हमारी जान है और हम पारस की जान। सच कहूँ तो उसके जाने की तैयारियाँ करते वक़्त भी मन के भीतर एक चुभन-सी हो रही थी, बेचैनी हो रही थी, एक दर्द दिल में हो रहा था। ऐसा महसूस हो रहा था, हम अकेले हो जाएँगे। यह बात सता भी रही थी कि पवित्रा की शादी हो जाएगी तो वह तो ससुराल चली जाएगी। कई तरह के ऐसे ख़्याल, ऐसे विचार मन मस्तिष्क में हलचल मचा रहे थे। एक बार बच्चे विदेश के मोह में पड़ जाते हैं तो फिर वापस कभी नहीं आते। वह वहीं के हो जाते हैं, यदा-कदा ही आना होता है।"


" पारस ने यह फ़ैसला क्यों लिया यह तो मैं नहीं जानता पर इतना ज़रूर जानता हूँ कि हमारा ख़ुद का खून भी अगर होता ना तो वह भी ऐसा सुनहरा अवसर हाथ से नहीं जाने देता। लोगों के बच्चे चले ही जाते हैं ना। दो-दो, तीन-तीन, साल तक वापस नहीं आते। बूढ़े माँ-बाप रास्ता देखते- देखते थक जाते हैं। आँखें टकटकी लगाकर निहारती रहती हैं। मन में हर पल ही इंतज़ार होता है। एक ऐसा इंतज़ार जो कभी-कभी तो ख़त्म भी नहीं होता और जीवन ख़त्म हो जाता है। जीवन सुनसान हो जाता है। कभी ना भरने वाला रिक्त स्थान आ जाता है। कभी-कभी तो मृत्यु के बाद कंधा देने तक बच्चे नहीं आ पाते। आना चाहते हैं पर कई बार हालात ऐसे बन जाते हैं कि जब तक वह आते हैं, इधर सब कुछ ख़त्म हो चुका होता है। मिलन की अधूरी आस के साथ ही कई बार माता पिता दुनिया छोड़ जाते हैं।"


"विजय तुम बिल्कुल ठीक कह रहे हो। विदेशों की इस माया नगरी के कई सुखद और कई दुःखद पहलू हैं। हमारे पारस ने उसका वह पहलू चुना है जिसमें हमारे जीवन का हर पल सुखद होगा।"

 

"हाँ अदिति पहले उसने हमारे सूने आँगन को अपने नन्हे कदमों की आहट दी। अपनी ख़ुशबू से हमारे घर आँगन को महका दिया और अब हमारे बुढ़ापे के आने वाले दिनों को संवारने के लिए इतना बड़ा त्याग भी कर रहा है। मैं जानता हूँ कि वह यह निर्णय केवल हमारे ही कारण ले रहा है।"


"पर अचानक विजय? ऐसा तो क्या हुआ होगा?"


"कुछ नहीं कल मिस्टर राकेश की तबीयत अचानक ख़राब हो गई, उनके तीन बच्चे हैं परंतु तीनों विदेश में उनसे कोसों दूर। शायद इसीलिए उसका मन नहीं मान रहा होगा। यह तो अच्छा हुआ राकेश जी की जान बच गई वरना तो जाने से पहले बच्चों का मुँह तक देखने को नसीब नहीं होता। आज भी उनका बुढ़ापा तो अकेले ही कट रहा है। बच्चे खूब कमा रहे हैं, संपन्न हैं लेकिन माँ-बाप कहाँ ख़ुश हैं। सब कुछ होते हुए भी उनके पास आज कुछ नहीं है, यदि कुछ है तो केवल अकेलापन। शायद इसी बात ने हमारे पारस को रोक लिया हो।"


"अब तो मुझे भी ऐसा लग रहा है कि हमारे देश में भी क्या कमी है। यदि मेहनत करो तो सब कुछ हासिल हो सकता है। विजय सच पूछो तो पारस के जाने के बाद हमारा घर भी सूना हो जाता और फिर पहले जैसी रौनक घर में कभी नहीं आती। चलो इससे ज़्यादा ख़ुशी की बात और क्या हो सकती है कि अब जीवन भर हम साथ रहेंगे। पारस के बच्चों की किलकारी भी हमारे इसी आँगन में गूँजेगी। हमारा परिवार कभी राकेश जी के परिवार की तरह छिन्न-भिन्न नहीं होगा।"


"हाँ अदिति तुम ठीक कह रही हो। वारिस अनाथाश्रम ने तो हमारा पूरा जीवन सुखमय बना दिया और अपने नाम की ही तरह हमें हमारा सच्चा वारिस तोहफ़े में दे दिया। हमारी जवानी किलकारीयों के बीच बीती अब हमारा बुढ़ापा भी किलकारीयों के बीच ही बीतेगा। यह सुख सभी को कहाँ हासिल होता है। याद है अदिति तुम एक छोटी-सी किलकारी के लिए कितना तरसी हो लेकिन पारस की पहली किलकारी ने तुम्हें फिर से हँसना सिखाया था। आज दूसरी बार वह तुम्हें मुस्कुराने की वज़ह दे रहा है शायद उसका अपना सपना छोड़कर।"



Rate this content
Log in

Similar hindi story from Inspirational