Dr. Vijay Laxmi

Inspirational

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क्रान्तिवीरांगना सावित्रीबाईजी

क्रान्तिवीरांगना सावित्रीबाईजी

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वीरता युद्ध के मैदानों में ही नहीं दिखाई जाती ।समाज में फैली सामाजिक परम्परागत बेड़ियों को तोड़ना किसी मैदानेजंग से कम नहीं होता ।कोई विरला ही ऐसी क्रान्ति का सूत्रधार होता 

है ।


देश की पहली महिला शिक्षक, 'सावित्रीबाई' फुले जो एक समाज सुधारक, शिक्षाविद् और कवयित्री के रूप में जानी जातीं हैं वे एक ऐसी ही क्रान्तिकारी योद्धा थीं जो आजीवन समाज की कुरीतियों से मोर्चा लेती रहीं और समाज के दलित वर्ग से सम्बंधित होने के बाद भी सशक्तता से डटी रह नये रास्तों का निर्माण करती रहीं । उस समय महिलाएं चौके-चूल्हे ,व वंश बेल बढ़ाने के दायित्व तक ही सीमित थीं ।


महिलाओं के अधिकार के लिए संघर्ष करते हुए पूरा जीवन बिता देने वाली देश की पहली महिला शिक्षक होने के नाते उन्होंने समाज के हर वर्ग की महिला को शिक्षा के प्रति जागरूक करने का प्रयास किया। महाराष्ट्र के एक छोटे से गांव नायगांव (ब्रिटिश शासन में ) वर्तमान सतारा में दलित किसान परिवार में 3 जनवरी 1831 को जन्मी फुले को आज भी महिलाओं की प्रेरणा के रूप में याद किया जाता है ।


इनके पिता का नाम खान्डोजी नैवेसे और माता का नाम लक्ष्मी था। सावित्रीबाई फुले भारत की पहली महिला शिक्षिका होने के साथ ही भारत के नारी मुक्ति आंदोलन की पहली नेता, समाज सुधारक और मराठी कवयित्री भी थीं।


सन् 1840 में मात्र 9 साल की उम्र में सावित्रीबाई फुले का विवाह उनसे 4 साल बड़े 13 वर्षीय ज्योतिराव गोविंदराव फुले के साथ हुआ था।


शादी के समय वे पढ़ना-लिखना नहीं जानती थीं लेकिन पढ़ाई के प्रति उनकी अत्याधिक रुचि और लगन को देखकर उनके पति बेहद प्रभावित हुए और उन्हें आगे पढ़ाने का मन बना लिया। जबकि शादी के समय ज्योतिराव खुद एक छात्र के रूप में अध्ययन कर रहे थे लेकिन इस सबके बावजूद उन्होंने सावित्रीबाई को पढ़ाने की ठान ली । सावित्रीबाई शिक्षा प्राप्त करने के बाद टीचर ट्रेनिंग कर देश की पहली महिला अध्यापक बनीं ।


सावित्रीबाई फुले को रूढ़िवादी लोग पसंद नहीं करते थे । उनके द्वारा शुरू किये गये स्कूल का लोगों ने बहुत विरोध किया था । जब वे पढ़ाने स्कूल जातीं थीं तो लोग अपनी छत से उनके ऊपर गन्दा कूड़ा इत्यादि डालते थे, उनको पत्थर मारते थे । सावित्रीबाई एक साड़ी अपने थैले में लेकर चलती थीं और स्कूल पहुँच कर गंदी हो गई साड़ी बदल लेती थीं ।लेकिन उन्होंने इतने विरोधों के बावजूद लड़कियों को पढाना नहीं छोड़ा था।


उस समय दलितों को संवर्णों के कुओं से पानी भरने की मनाही थी वह अपने दलित कुएं से ही पानी भर सकते थे इससे उन्हें पानी लेने बहुत दूर तक जाना पड़ता था । तब सावित्रीबाई फुले ने अपने पति के साथ मिलकर अपने घर में कुआं बनाया और उससे सभी दलितों को पानी लेने की आजादी थी ।


1848 में सावित्रीबाई फुले और उनके पति ज्योतिराव गोविन्दराव फुले ने ब्रिटिश शासन के दौरान पुणे के भिड़े वाडा में लड़कियों के लिए देश का पहला बालिका विद्यालय खोला । स्कूल में शुरू में सिर्फ नौ लड़कियां ही थीं लेकिन धीरे-धीरे संख्या बढ़कर 25 हो गई । इस स्कूल में सावित्रीबाई फुले प्रधानाध्यापिका थीं । ये स्कूल सभी जातियों की लड़कियों के लिए खुला था और दलित लड़कियों के लिए तो स्कूल जाने का ये पहला अवसर था ।


सावित्रीबाई द्वारा अनेकों सामाजिक कार्य किये गये । सावित्रीबाई ने अपने पति के साथ मिलकर कुल 18 स्कूल खोले थे ।इन दोनों लोगों ने मिलकर बालहत्या प्रतिबंधक गृह नामक केयर सेंटर भी खोला था । इसमें बलात्कार से पीड़ित व गर्भवती महिलाओं को बच्चों को जन्म देने और उनके बच्चों को पालने की सुविधा दी जाती थी । इसी से वे आगे चलकर महात्मा ज्योतिराव फुले कहे जाने लगे ।


एक दिन एक विधवा महिला काशीबाई जो एक ब्राह्मण परिवार से थी ,आत्महत्या करने जा रही थी ,उस समय काशीबाई गर्भवती भी थी । वे काशीबाई को समझाते हुए अपने आश्रम ले आई जिससे वे लोकलाज से बच, सिर उठाकर जी सके । समय होने पर काशीबाई ने उसी आश्रम में एक स्वस्थ्य बच्चे को जन्म 

दिया । निःसंतान सावित्रीबाई ने काशीबाई के बच्चे का नाम यशवंत रखा और उसे अपना दत्तक पुत्र बना लिया । पढ़ना और पढ़ाने के संस्कार तो सावित्री बाई की रग-रग में थे , इसलिए यशवंत भी पढ़-लिखकर एक दिन डॉक्टर बन गए ।


उन्होंने अंतरजातीय विवाह को भी बढ़ावा देने के लिए कई कदम उठाए। उनका पूरा जीवन समाज के लिए संघर्ष करते हुए बीता । सावित्रीबाई फुले भारत के नारी मुक्ति आंदोलन की पहली नेता बनी ।


सावित्रीबाई और ज्योतिबा फुले ने 1855 में कृषिविदों और श्रमिकों के लिए एक रात्रि विद्यालय की भी स्थापित किया ताकि वह दिन में काम कर सकें और रात में अपने कक्ष में पढ़ व आराम कर सकें ।


सावित्रीबाई फुले और ज्योतिबा फुले ने 24 सितंबर, 1873 को सत्यशोधक समाज की स्थापना की। उन्होंने विधवा विवाह की परंपरा भी शुरू की और इस संस्था के द्वारा पहला विधवा पुनर्विवाह 25 दिसम्बर, 1873 को कराया गया। 28 नवंबर, 1890 को बीमारी के चलते ज्योतिबा की मृत्यु हो गई थी। 


यहां भी उन्होंने सामाजिक नियमों की परवाह न करते हुए पति की चिता को अग्नि दी । सेवाभाव तो सावित्रीबाई में कूट-कूट कर भरा था । ज्योतिबा के निधन के बाद सत्यशोधक समाज की जिम्मेदारी सावित्रीबाई फुले पर आ गई। वे बड़ी जिम्मेदारी से अंतिम समय तक इसका संचालन करतीं रहीं। 


 1897 में जब पूरे महाराष्ट्र में प्लेग फैला था, तब भी वह लोगों की मदद में लगी रहीं ऐसे में एक प्लेग से प्रभावित बच्चे की सेवा करने के कारण ये भी बीमारी की चपेट में आ गयीं इसी कारण 10 मार्च 1897 को सावित्रीबाई की मृत्यु हो गयी ।


इन्होंने 1854 में काव्या फुले और 1892 में बावन काशी सुबोध रत्नाकर पत्रिका भी प्रकाशित कीं ।


उनकी एक बहुत ही प्रसिद्ध कविता है जिसमें वह सबको पढ़ने लिखने की प्रेरणा देकर जाति बंधन तोड़ने व आत्मनिर्भर होने की सीख देतीं थीं ।


जाओ जाकर पढ़ो-लिखो, बनो आत्मनिर्भर, बनो मेहनती


काम करो-ज्ञान और धन इकट्ठा करो


ज्ञान के बिना सब खो जाता है, ज्ञान के बिना हम जानवर बन जाते है


इसलिए, खाली ना बैठो,जाओ, जाकर शिक्षा"दमितों और त्याग दिए गयों के दुखों का अंत करो, तुम्हारे पास सीखने का सुनहरा मौका है


इसलिए सीखो और जाति के बंधन तोड़ दो, 


(मराठी कविता का हिंदी अनुवाद )

सावित्रीबाई को देश की पहली भारतीय महिला शिक्षक और प्रधानाध्यापिका माना जाता है ।वर्ष 2018 में कन्नड़ में सावित्रीबाई फुले की जीवनी पर एक फिल्म भी बनायी गयी थी । इसके अलावा 1998 में इंडिया पोस्ट ने उनके सम्मान में डाक टिकट भी जारी किया था ।वर्ष 2015 में, उनके सम्मान में पुणे विश्वविद्यालय का नाम बदलकर सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय कर दिया गया था । नमन है ऐसी क्रान्ति वीरांगना को जिन्होंने समाज को नयी दिशा दी ।



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