sonu santosh bhatt

Tragedy Classics Inspirational

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sonu santosh bhatt

Tragedy Classics Inspirational

लौट जाओ

लौट जाओ

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जब जिंदगी में आगे बढ़ने के सारे रास्ते बन्द हो जाते है तो एक ही रास्ता नजर आता है। सम्भव हो तो लौट जाओ। लौट जाओ वहां जहां से शुरू किया था सफर, और एक नया रास्ता चुनो। इस बार सोच समझकर चुनना क्योकि कुछ रास्ते मुड़कर लौटने के लिए नहीं होती, वो जितने कदम आप आगे बढोगे पीछे पीछे खत्म होती रहती है।

लहलहाती गेहूं की फसल के बीच खेती के संकरे रास्ते और दूर दूर तक नजर आ रही बहती हवा, चारो तरफ फैली हरियाली देखने में बहुत खूबसूरत लग रही थी। मैं उस रास्ते में चल रहा था जिस रास्ते के दोनो तरफ फसल लहक रही थी। एक हाथ में बैग था दूसरे हाथ से उन पौधों के शीर्ष को सहलाते हुए मैं घर की तरफ बढ़ रहा था। साथ में गुनगुना रहा था मन ही मन में कुछ सुने अनसुने पहाड़ के वादियों को देखकर उमड़ रहे गीत।

 "आ भी जा मेरे पास तू

 जाता कहाँ दूर है

 नजरें तेरी हँसती भले

 दिल से तू मजबूर है

तेरी ये खामियां

तेरी कमियां

और तेरा जो गुरुर है

तू उखड़ा सा

बिखरा सा

टूटा दिल से जरूर है"

खुद के अजीब सपनों ने मुझे शहर की तरफ खींचा था, आज उन्ही सपनों के टूटने पर वर्षों बाद गाँव की याद आयी तो मेरे कदम खुद को रोक नहीं पाए। मानता हूँ कि गाँव में मेरा अब कोई नहीं है, लेकिन वो कच्चा मकान…. हम्म शायद मेरे कच्चे मकान पर लगा ताला बैचेनी से मेरी राह ताकता होगा। या वो आंगन के टेड़े मेढे पत्थर मेरे बचपन को याद करती होंगी जब हर पत्थर को अपना दोस्त मानकर उनका अलग अलग नाम रखा था। या वो अमरूद का पेड़……नहीं नहीं अमरूद का पेड़ तो सड़ने लगा था शायद अब वो नहीं होगा।

 उत्तराखण्ड के इस गाँव से मैं जब निकला था तो सोच के निकला था कि शायद यहां वापस कभी नहीं आऊँगा, तब मैं ऊब चुका था गाँव की देहाती जिंदगी से, शहर की जिंदगी मुझे हमेशा से आकर्षित करती थी। आठ से दस साल शहर में गुजारा कभी कहाँ कभी कहाँ नौकरियां कर कर के, किराए के कमरे और बिजली में सारी तनख्वाह उड़ रही थी, पेट भरकर सो जाओ और अगले दिन फिर काम पर निकल पड़ो। शाम को घर आकर खाना पकाओ, खाओ और सो जाओ, हफ्ते भर के कपड़े इतवार के दिन धो धो के पूरा दिन धो डालो, घूमने फिरने के लिए वक्त नहीं होता था और शौक पूरे करने के लिए पैसे नहीं होते थे, एक मामूली नौकरी और किराए का कमरा शहर में लेकर बैठने वाले आदमी जिंदा रहने की फीस ही भर रहा है, और कुछ नहीं कर रहा है। और जैसे ही कोई नौकरी छूटे।

"अरे ! ये गली में इतना सामान, कोई घर छोड़कर जा रहा है क्या?" मैंने चारपाई और कुछ बिस्तरों के साथ एक बक्शा और कुछ बर्तन देखे तो एक आँटी से सवाल किया।

आँटी ने कोई जवाब नहीं दिया बल्कि वो मेरी तरफ सहानुभूति के साथ देख रही थी।

मैं आँटी से कुछ और कहता कि मैंने अपना बक्शा और चादर पहचान ली- "अरे ! ये तो मेरा सामान है"

मैं आगे गया तो एक आदमी कमरे के अंदर खड़ा था, जिसे मैं पहचानता भी नहीं था।

मेरे अंदर जाते ही वो बोला- "यहां के किरायेदार तुम हो?"

"जी हाँ ! लेकिन बात क्या हुई है, मेरा सामान क्यो बाहर……" मेरी बात भी पूरी नहीं हुई कि वो बोल पड़ा- " दो महीने हो गए, किराया दिया नहीं है, मुझे दो दिन में किराया चाहिए, और आज से ये कमरा किसी और को किराए पर दे दिया है, तुम बच्चे हो इसलिए इस महीने के पांच दिन का भाड़ा माफ कर दिया, इससे ज्यादा मैं कुछ नहीं कर सकता"

"अंकल प्लीज…… शाम का वक्त है, मैं कहाँ जाऊंगा, एक दो जगह बात हो रखी है, मैं नौकरी में लगकर सैलरी आते ही पहले आपका भाड़ा दूँगा, प्लीज अंकल" मैं अंकल के सामने विनती करने लगा, ये मेरी और मकान मालिक की पहली मुलाकात थी, इससे पहले हमेशा मोबाइल पर बात होती और पैसे भिजवा देता था, इन आठ दस सालों में पंद्रह बीस कमरे बदल चुका था और सात आठ नौकरियां भी। कभी कहीं भी शुकुन नहीं मिला, कभी पड़ोसियों को मेरा जवान और अविवाहित होना खलता, तो कभी मेरा रात अधरात नौकरी से घर आने पर गेट का ताला खोलना चुभता, किसी को लगता कि मैं साफ सफाई नहीं रखता, तो कोई कहता कि ये पानी बहुत उपयोग करता है। कुछ ऐसे बेईमान होते की बिजली के मीटर में गड़बड़ करके आधे से ज्यादा बिल मेरी तरफ खिसका देते, जबकि मैं सिर्फ सोने और खाने को आया करता था,ना टिवी था ना फ्रिज, हर बार कोई ना कोई बहाना मुझे नए कमरे की तलाश में लगा देता था। इस बार मैंने ऐसा कमरा ढूंढा था जिसमें एक ही कमरा हो , और अपना ही राज हो। मेरा राज आठ महीने तक चला क्योकि मैं हर महीने टाइम से किराया दे रहा था। पड़ोसियों से जान पहचान अच्छी होने लगी थी, और तो और सामने वाली भाभी कभी कभी शब्जी भी दे जाया करती थी। और मुझे सिर्फ रोटी पकानी पड़ती थी। जैसे ही थोड़ा जिंदगी में आराम आ रहा था, भागादौड़ी कम हो रही थी एक बार फिर सफर ने अपना डंका बजा दिया नौकरी क्या छूटी सब अपने बन रहे लोग अपना नकाब एक एक करके हटाने लगे, एक महीने का किराया तो पड़ोस से इंतजाम कर के दिया और थोड़ा बहुत पैसे एक दोस्त से उधार ले लिए थे। लेकिन फिर अगले दो महीने तक मकानमालिक अंकल को दिलासा ही देता रहा।

थोड़ी देर तक विनती करने के बाद भी अंकल नहीं माना तो मैंने अपना सामान सामने वाली भाभी के बरामदे में रखने की सोची। हमारी गली के दोनो तरफ मकान थे , मैंने भाभी से सामान रखने की बात कही तो आज वो भी ससुर के नाम पर टालमटोल करने लगी। वैसे भी एक दो महीने से उन लोगो के व्यवहार में परिवर्तन देखकर मुझे लगा ही था कि अब पड़ोसियों के नजर में मेरी कोई अहमियत सी नहीं रह गयी, लेकिन फिर भी मैंने जब पूछा कि आज सामान रखवाकर एक रात गुजार लूँगा, कल देख लूँगा कोई ठिकाना तो भाभी बोल पड़ी- "रखने को तो मैं रख लेती लेकिन वो आज शायद ससुरजी आएंगे, वो आने वाले है आज कल में कभी भी, और आज तुम्हारे भैया की भी ड्यूटी लगी है वो घर पर नहीं है, ऐसे में तुम यहाँ….समझ रहे हो ना, अच्छा नहीं लगता"

ये उस भाभी के कथन है जिनके हाथ की सब्जी मुझे मेरी मरी हुई माँ की याद दिलाती थी, ये वो भाभी के वचन है जो मुझे भाई बोलकर पुकारती थी तो लगता था कि शायद मेरी कोई सगी दिदी होती तो इनके जैसी होती। मैंने दोबारा भाभी से इस मामले में नहीं पूछा, बस कोई बात नहीं कहकर अपना काम आने वाला सामान उठाया और चारपाई और गद्दे मालिक को देते हुए कहा कि इन्हें आप अंदर रखवा लीजिये, कमरा मिलने के बाद ले जाऊँगा, मालिक इस बार मेरी ये बात मान गया, इतना ही नहीं उसने मुझे कहा कि अगर तू चाहे तो एक रात इधर नए किरायेदारों के साथ एडजस्ट हो सकता है, कहाँ जाएगा इतनी रात को।

एक बुरे से बुरे इंसान के अंदर थोड़ी सी इंसानियत तो होती ही है। और मकानमालिक तो वैसे भी बहुत अच्छा था जिसने दो महीने तक मुझे बिना किराए के रखा था,

मैंने उसकी बात सुनी और धन्यवाद करते हुए एक गद्दा लेकर छत की तरफ चला गया, और वही पर गद्दा बिछाकर सो गया।

नींद तो आयी नहीं लेकिन आंखों को मलते हुए रातभर तारे गिनता रहा। थोड़ी देर में भाभी के पति यानी कि सामने वाले भैया भी आ गए, जिनके बारे में भाभी ने कहा था कि वो आज नहीं आएंगे। खैर उन्होंने तो झूठ ही कहा था ये तो मुझे तब ही समझ आ गया था, लेकिन शायद उसे लगा होगा कि ये यहां से चला जायेगा तो उसका झूठ पकड़ा नहीं जायेगा,

मैं सोच में डूबा हुआ भी सही रास्ते पर चल रहा था, ये गाँव की पगडंडिया है, जिन्हें भूलना आसान नहीं होता। मैं ध्यानमग्न चल रहा था तभी मुझे लगा कि मेरे पैर किसी ने पकड़ लिए है। और मैं धड़ाम से मुंह के बल गिरा। मुझे बहुत गुस्सा आया पीठ में एक बैग था और एक बैग हाथ में, एक हाथ से खुद को संभाला और दोनो बैगो को उतार कर कपड़े झाड़े। पहले गुस्से में था लेकिन जब गिरने का कारण देखा तो चेहरे में मुस्कराहट आ गयी।

 किसी बच्चे ने वो ही हरकत की थी जो बचपन में हम किया करते थे, ऐसे संकीर्ण रास्ता जिसके दोनों तरफ फसल और घास उगी हो तो हम भी इसी रास्ते के दोनो किनारों के घास को आपस में बांध दिया करते थे, वो बचपन की शरारत थी। जो पहले उस रास्ते से गुजरता था तो उसका पैर उसमें फंसता था और वो गिर जाता था, जैसे अभी मैं गिरा गया था। मैंने लात मारकर झटके देकर उन घासों को तोड़ दिया ताकि कोई और ना गिरे।

 " इसका मतलब अब भी गाँव में हमारे जैसे बच्चे है" मैंने मन ही मन खुद से कहा और बैग उठाकर घर की तरफ चल पड़ा।

 मेरे घर में कोई नहीं रहता था, पापा कभी देखे नहीं, वो शहर में काम करते करते लापता हो गए थे, ऐसा सुनने को मिला था। माँ को तेरह साल की आयु में खो दिया। तब से गाँव में मेरा मन नहीं लगता था। और मैं सोलह सत्रह साल में दिल्ली चला गया, वहां मेरे मामा मामी रहते थे। उन्होंने भी कुछ दिन लाड़ दिखाकर फिर धीरे धीरे अपने बच्चों में और मुझमें भेदभाव दिखाना शुरू कर दिया जो मेरे बर्दाश्त से बाहर था। उनके साथ मेरी बनी नहीं और मैं मुसाफिर बन गया।

मुझे याद है वो पीतल के ताला मैंने मम्मी के खाली बक्शे का खोलकर दरवाजे पर लगाया था, तब मेरे पड़ोस के ताऊजी और ताईजी ने कहा था कि आते रहना गाँव अपने, मैंने उनका दिल रखने के लिए हां कह दिया था, और मैं दस साल तक मुड़कर नहीं आया, आज आया हूँ तो बहुत अजीब लग रहा है। कैसे उनसे बात करूँगा, कैसे दिखते होंगे वो अब, मुझे पहचानेंगे भी या नहीं, मुझे देखकर बहुत खुश हो जाएंगे वो दोनों।

 वैसे बचपन भी अजीब था मेरा, घर में खाना बस रात को खाता, माँ किसी ना किसी काम से दिन भर बाहर रहती, कभी खेतो में तो कभी घास काटने जंगल, और मैं पड़ोसियों के घर में चला जाता, बाकी टाइम तो इधर उधर भागता फिरता लेकिन खाना खाने का टाइम मेरा फिक्स था, गाँव से हटकर हमारा घर था और यहां सिर्फ छह मकान होते थे, तब उन छह मकानों में से दो मकानों में ताला लग चुका था, बाकी एक हमारा और तीन पड़ोसियों का, मैं दिन में तीनों घर में पचासों चक्कर लगा लेता था, तीनो घर के लिए में ट्रांसपोर्ट का काम करता था , उन्होंने एक दूसरे कोई कोई सामान देना हो तो मुझे कहते थे कि ये सामान देकर आजा। या फिर उनके घर से ये सामान माँग ला। बहुत अच्छे दिन थे वो जब मांगने और देने से ही जिंदगी गुजर जाती थी, आज की तरह हर सामान खरीदना नहीं पड़ता था।

 अगर कोई महंगा सामान हो तो चार पांच घर मिलकर खरीदते थे और वो सामान कभी किसके घर कभी किसके घर मेरी तरह चक्कर काटता रहता था। सबसे ज्यादा तो उस फोन के लिए दौड़ा करता था जो शहर से उनके बच्चो के आया करते थे, बहुत निराले दिन थे मैं सभी के बच्चों से बात करता था क्योकि जब किसी का फोन आता तो फोन एक घर से दूसरे घर ले जाने वाला मैं ही होता था।

कभी कभी तो स्कूल से घर भी सीधे नहीं आता था, जानकी चाची के आंगन से गुजरते हुए उनकी पकाई शब्जी की खुशबू मुझे वही पकड़ लेती थी, मैं पहले वहां रुक जाता था, एक बात सोचकर हँसी भी आती है और मजा भी लेकिन दुख भी बहुत होता है, मेरी माँ ने दिन में खाना पकाना भी इसलिए छोड़ दिया क्योकि मैं इधर उधर खा लेता था और उसे अपने लिए अकेले का खाना पकाना पसंद नहीं था। भूख लगती भी होगी तो वो इंतजार करती थी शाम की, लेकिन बदकिस्मती से कभी मैं कहीं खाना ना खाकर आया होता था तो वो खाना जरूर पकाती थी। तब मैं सोचकर खुश होता था कि मेरी वजह से मां को खाना नहीं पकाना पड़ता क्योकि मैं कभी यहां कभी वहां खा लेता हूँ लेकिन मैं ये नहीं सोच पाया कि मेरी वजह से माँ भूखी रह जाती है। मेरी वजह से वो खुद के लिए भी नहीं पकाती। अगर उसे सच में दिन में भूख नहीं लगती तो जिस दिन मैं भूखा आता हूँ उस दिन कैसे वो इतना खा लेती थी। झूठी थी मेरी माँ, वो झूठ बोलती थी कि दिन में उसे भूख नहीं लगती।

आज मुझे पूरा बचपन याद आ रहा था। और मैं घर के बहुत करीब भी पहुंच गया था।

 "तुझको पुकारे

सुना आंगन

सुना आंगन पुकारे रे

राह तकती ये पगडंडिया

तुझको वापस बुलारे रे

ख्यालो में तेरे जिंदा बचपन

कैद किया जिसे बावरा मन

फिर जिंदगी खोने लगी

रूह में आया रुखापन

मन के आंसू बहते जारे रे

क्यो मन के आंसू मन को भीगारे रे

घिरे घिरे ये बादल भी क्यो

तुझको निहारे रे

तुझको निहारे रे।

"तुझको पुकारे

सुना आंगन

सुना आंगन पुकारे रे

जिस रास्ते से मैं आया वो रास्ता जानकी चाची के घर से गुजरने वाला था, और मेरी दिल की धड़कन भी तेज थी, शायद ये कोई डर नहीं एक बेताबी थी, शायद…. डर भी हो सकता है क्योकि अभी मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था। मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था। मेरे अंदर खुशी थी, कोई डर था या फिर कोई उलझन थी, या मेरा दिल आज बिल्कुल खाली था।

मैं जैसे ही जानकी चाची के आंगन में आया तो देखा दरवाजे पर ताला था, शायद खेतो में गये होंगे। मुझके लगा था आज स्कूल बैग की तरह ये बैग भी उनके सबसे अन्दर वाली सीढ़ी में रखूंगा और बातचीत करते करते उनका पकाया भोजन करके एक टाइम अपने पेट की मांग पूरी कर लुंगा, क्योकि मेरे घर में ताला होगा और दस साल से बंद घर में राशन की क्या ही उम्मीद कर सकते है। ख्याल तो ये थे कि जानकी चाची के कराए भोजन से जो ताकत आएगी वो ताला तोड़ने के काम आएगी, क्योकि घर के ताले की चाबी तो मेरे पास थी नहीं लेकिन अब तो घर ही जाना होगा, ताला खोलकर बैग रखूंगा साफ सफाई करूँगा और फिर लकड़ियां इकठ्ठा करूँगा, पानी के धारे से पानी लेकर आऊंगा और घर आकर मैगी बनाऊंगा, शहर ने मुझे मैगी बनाने में परफेक्ट बनाया था, इसलिए मैं शहर से ही बैग में आठ दस पैकेट मैगी ले आया था इस डर से की गाँव में मिले या ना मिले, क्योकि जब छोड़कर गया था तब तो ये चीजें खाई नहीं थी कभी।

 अपने घर के पास पहुंचा तो ताला तोड़ने की नौबत ही नहीं आई। घर के आंगन की चहारदीवारी के पास एक नया अमरूद का पेड़ उग आए था, शायद पुराने पेड़ के जड़ से कोई अंकुरित शाखा ने बड़ा रूप लिया था, और पुराना पेड़ किसी ने काट दिया था। उस नए अमरूद के पेड़ में बहुत सारे अमरूद भी लदे हुए थे जो अभी ना कच्चे थे, ना ही पके हुए, मैं उसी पेड़ की छांव पर बैग रखकर बैठते हुए एक अमरूद तोड़कर उसे खाते हुए देखने लगा, घर की दीवारें तो सारी सीना ताने खड़ी थी लेकिन छत गायब थी, छत की लकड़ियां और बल्लियां सब हाथ खड़े करके हाजिरी लगा रहे थे लेकिन चौड़े पत्थर सारे अनुपस्थित थे, शायद घर टूटने के बाद थोड़े थोड़े करके गाँव वाले चुरा ले गए होंगे। पहले घर में दो दरवाजे हुआ करते थे आज देखा तो डेढ़ दरवाजे थे और एक छोटा सा पेड़ घर की चौकीदारी करते हुए टूटे दरवाजे से बाहर झाँककर देख रहा था। और आने जाने वाले हर शख्स से कह रहा था की अब क्या लेने आये हो यहां, लौट जाओ…. अब तुम्हारा कोई नहीं है।

मैं अभी ऐसी अवस्था में था कि मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था, आंखों में आंसू थे और में अमरूद चबा रहा था, एक के बाद एक अमरूद खाकर मेरे पेट को आराम मिल रहा था। मेरी पेट की भूख तो मिट रही थी लेकिन मेरी घर को देखने की जो आंखों की जो प्याश थी वो प्यास बुझने लगी थी। तभी मेरे आंगन से गुजरते हुए तांबे का गागर सिर पर रखे एक वृद्ध औरत गुजर रही थी।

 "ओ ताई जी, कैसी हो आप" मैं उठते हुए बोला। क्योकि मैंने उन्हें पहचान लिया था।

अपने सिर से गागर उतारते हुए उसने दीवार पर रखा और मेरी तरफ आयी।

"अरे ये तू है, मुझे लगा कौन आ गया" मुझे गले से लगाते हुए सुबकते हुए बोली - "आज कैसे आई तुझे याद"

मैंने खुद को धीरे से छुड़ाकर ताई के पैर छुए।

अमरूद के पेड़ के नीचे ही बैठते हुए मेरे घर की तरफ को हाथ छटकाते हुए बोली- "इस घर को भी ऐसी आग लगी, टूट गया ये, बंजर पड़ गए सारे मकान, वो जानकी भी अपने बेटे के साथ चली गयी, किशोर भी भाग गया। कौन है यहां, कोई नहीं है, सब चले गए, सब चले गए, कुछ नहीं है यहां अब, हिसाब किताब खत्म है सब" वो बड़बड़ाने लगी।

मैं थोड़ी देर तक सुनता रहा फिर हीम्मत करके कहा- "पानी…. ताई थोड़ा पानी मिलेगा"

"चल घर" ताईजी ने कहा

मैं ताईजी के साथ उनके घर गया और पानी पीने के बाद सवाल किया- "तो अब यहां आप अकेले ही हो?, मुन्ना और पंकज, वो लोग भी चले गए और जानकी चाची भी चली गयी, किशोर चाचू तो पहले चले गए थे।"

"सब चले गए, कोई नहीं है यहाँ, एक एक करके सब टूटेंगे, सब बिखरेंगे, तूने अच्छा किया लौट आया, लेकिन क्या करेगा यहां, यहां कौन है रे, तू भी जा लौट जा, लौट जा तू भी"

उसकी बातों से लग रहा था वो थोड़ा मेंटली डिस्टर्ब हो चुकी थी, शायद बुढापा शरीर से होते हुए दिमाग में भी पहुंच चुका था। लेकिन उसकी बातों में गलत नहीं था कुछ, वो सही बोल रही थी, मेरा घर तो टूट गया था, बाकी चार मकान बंद थे एक मकान खुला था उस बुढ़िया का जो अभी अकेलेपन के कारण खुद से बात करने की आदि हो चुकी थी, मैं चुप भी रहता लेकिन वो कुछ ना कुछ बोलती ही रहती। इन दस सालों में बदले हालातों के किस्से सुनाते सुनाते वो शाम के लिए शब्जिया काटने लगी।

"इतनी अच्छी तो फसल है यहां, फिर लोग क्यो चले गए, और ये हमारे खेतों में भी तो अनाज उगा हुआ है" मैंने कहा।

"आजकल सब टेक्टर से हो रहा है, उधर गाँव से एक दो लोग करते है सारे खेत, और हमारे खेत में अनाज उगाने के बदले पैसे दे देते है थोड़े से, जिससे मेरा गुजारा तो हो जाएगा लेकिन तेरा नहीं होगा। क्योकि मैं जिंदा रहने के लिए जी रही, तेरे पास बहुत काम है अभी।" ताईजी बोली।

मैं आगे बिना कोई सवाल जवाब किये बाहर आ गया

थोड़ी देर के लिए घर से बाहर जाकर गाँव की ताजी हवा को ग्रहण करते हुए घूमते घूमते दोबारा अपने घर जा पहुंचा।

 टूटी खिड़की टूटे दवारे

 गिर गयी छत घर के तुम्हारे

बची है तो चार दीवारें

तू कर ले करना है जो

कौंन करेगा तेरे शिवा रे

तू ही एक दीपक है

जलता जा जलता जा रे

जलता जा जलता जा रे

मैंने खुद को जैसे खिड़की से झांकता पाया, एक छोटा सा बच्चा, माँ खेत से आई तो भागकर बाहर आया, और माँ ने मुझे पकड़ा और गोद में उछाला,ये मेरे लिए खुशी की बात थी, एक बार नहीं दो बार नहीं बहुत बार जिद करता था कि और उछालो, तब मुझे नहीं पता था कि माँ थककर आई है। और कभी उसने जताया भी तो नहीं की वो थकी

होती थी, झूठी थी मेरी माँ, हमेशा सब कुछ छिपाती रही।

 ना कभी पापा का पता बताया, ना छोड़कर कहाँ जाते है वो बात बताई जब मैंने मां से पूछा कि मरने के बाद कहाँ जाते है तो वो बोली- "मरने के बाद…. मरने के बाद वही लौट जाते है जहाँ से इंसान चला होता है, जैसे अगर कोई आसमान से चलकर आया है तो वो आसमान में चला जायेगा"

एक मासूम सी आवाज हंसती हुई आज फिर गूंजी मेरे कान में जो मैंने मां द्वारा बताए गए मौत की परिभाषा सुनकर कही थी- "आसमान से चलकर थोड़ी कोई आएगा, वो तो उड़कर आएगा ना, हहहहहह…."

मेरी बात सुनकर मां मुझे गुदगुदी करने लगी और मेरे हँसते हँसते आंखों से आंसू आ गए।

मैंने आंसू पोछते हुए कहा- "इसका मतलब मैं भी मर गया, इन्ही पहाड़ों से शहर गया था और यही आ गया, माँ की परिभाषा तो यही थी ना"

मैं घर के दरवाजे के पास गया और ताले को खींचा तो कुंडा ही हाथ में आ गया, मैंने कुंडे समेत ताला अपने गर्दन में टांक लिया और कहा- "अब मैं नहीं लौटूंगा, यही गाँव में कुछ ना कुछ काम करके इधर ही एक मकान बनाऊंगा, ये हमारे खेतो में अनाज बोकर अपना घर भर रहे, अब से ये फसल हमारी होगी, और ये ताईजी…. बेचारी अकेली है, अपनी मां की सेवा तो नहीं कर सका बुढापे में लेकिन एक मौका मिला है मुझे, मौका नहीं नया जन्म मिला है, मैं यहां से जाकर यही लौट आया हूँ । अब मैं दोबारा उस रास्ते में नहीं जाऊँगा जहां तब तक सब अपने है जब तक हमारे पास सबकुछ है, जब कुछ नहीं तो कोई किसी का नहीं है। वहां मुझे ना वक्त मिलता था ना शुकुन, लेकिन यहां मेरे पास दोनो चीजों की कोई कमी नहीं होगी।

मैंने दो तीन अमरूद तोड़े और ताईजी के घर की तरफ निकल पड़ा।


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