मुझे मैं ही रहने दो
मुझे मैं ही रहने दो
ना जाने क्यों आजकल नींद से दुश्मनी हो गई है
कमबख्त रात को बुलाने से भी पास आती नहीं है
सुबह- सुबह दादागिरी से आँखों में आ समाती है।
शेफाली ने बस इतना ही लिखा और डायरी बंद करके कलम पास ही रख दी और रसोई में चली गई, बेचारी कविता लिखने की शौकीन है, मगर फुर्सत कम ही मिल पाती है।
रसोई के पास ही मम्मीजी खड़ी थीं, शेफाली चुपचाप चाय बनाने लगी, मम्मीजी ने कहा ,"शेफाली ऐसा करना आज नाश्ते में मीठे चीले बना लेना, ठीक है ना! और चाय थोड़ी जल्दी बनाकर दे दो, वैसे! कमरे में क्या कर रही थी अब तक?"
जी कुछ भी तो नहीं, आ ही रही थी बस, और कुछ कहते-कहते चुप हो गई शेफाली।"
शेफाली की दिनचर्या शुरू हो गयी, चाय-नाश्ता बनाने के बाद घर की साफ-सफाई साज-सज्जा, कपड़े धोने और फिर खाना बनाने और सबको खिलाने -पिलाने में ही दोपहर के तीन बज गए। अब थकान सी होने लगी जरा सा लेटने को कमरे में जा ही रही थी तभी पड़ोस वाली आंटीजी आ गईं, अब उनके सामने तो जा नहीं सकती, सो फिर से रसोई में चाय बनाने चल दी, उसने मन में सोचा, अब गई दोपहर की झपकी भी।
ऐसे ही शाम हो गई और सोहम के आने का समय हो गया, वो आए, उनकी खातिरदारी, चाय-पानी, थोड़ा सूखा नाश्ता।
अब रात के खाने की तैयारी, रात का खाना जल्दी से बनाकर रख नहीं सकती क्योंकि सबको गरम-गरम खाना चाहिए, और सबको देर से खाने की आदत है, फिर से वही खाना बनाने खिलाने और रसोई साफ करने में और मम्मी जी की तेल मालिश करने में रात के ग्यारह बज गए। कमरे में आने पर देखा तो सोहम सो चुके हैं, शेफाली ने चैन की सांस ली और सोचा अब चैन से अपनी कविता पूरी कर सकती हूँ...
मुझको थोड़ा सा मैं ही रहने दो
खुद के लिए ज़रा सा जी लेने दो
सबके लिए तो हूँ मैं सदा से ही
मेरे लिए भी मुझको रहने दो
नहीं चाहिए पंख सुनहरे
ना ही खुला आसमान
अरमां बस इतना ही
हाँ! चैन की सांस
मुझे भी लेने दो
सांस लेने दो
बस।।।