Sunil Kumar

Tragedy Inspirational

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Sunil Kumar

Tragedy Inspirational

शिक्षक का पत्र बच्चों के नाम

शिक्षक का पत्र बच्चों के नाम

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प्यारे बच्चो

आशा है आप सभी की वार्षिक परीक्षाएं सकुशल सम्पन्न हो गई होगी,और आप एक नई उर्जा के साथ अगली कक्षा की तैयारी में जुट गए होंगें। बच्चों क्या कभी आपने सोचा है, कि विद्यालयों में वार्षिक परीक्षा सम्पन्न होते ही हम अपनी उस कक्षा की किताबों को बोझ समझने लगते हैं और उन्हें जल्द से जल्द अपने बस्ते से अलग कर, रद्दी के नाम पर बेचने को अमादा हो जाते हैं। हम अपनी बहुमूल्य किताबें, गली-मुहल्लों में आने वाले कबाड़ियों के हाथ कौड़ी के भाव बेच देते हैं। हमारे इस कृत्य पर हमारे माता-पिता या अभिभावकों को भी कोई एतराज़ नहीं होता।वो भी इस पर विचार नही करते। क्या कभी आपने सोचा है, कि वार्षिक परीक्षा के बाद हम अपनी जिन किताबों को 10-15 रूपए किलो के हिसाब से बेंच देते हैं, हमारे माता-पिता शिक्षा सत्र की शुरुआत में उन्हीं किताबों को खरीदने के लिए अपनी गाढ़ी कमाई से हजारों रुपए ख़र्च करते हैं। अपनी बेशकीमती किताबों को कौड़ी के भाव बेचकर क्या हम अपने अकलमंद होने का सबूत देते हैं ? क्या इन किताबों को बेचने से हमारी ज़रूरतें पूरी हो जाएंगी ? आखिर हम ऐसा क्यों करते हैं? किताबें तो अथाह ज्ञान का सागर होती हैं, हम इनमें जितना गोते लगाएंगे उतना ही अधिक ज्ञान रुपी खजाना पाएंगे।शिक्षा सत्र के शुरूआत में हमारे माता-पिता द्वारा हजारों रुपए में खरीदी गई किताबें जो वार्षिक परीक्षा के बाद हमें बोझ लगने लगती हैं,वही किताबें दूसरे बच्चों के लिए उपयोगी सिद्ध हो सकती हैं। हम जरूरतमंद बच्चों को अपनी किताबें दान देकर उनकी मदद कर सकते हैं। साथ ही साथ पुस्तकों को नष्ट होने से बचा भी सकते हैं।चार-पांच हजार रुपए की किताबें यदि 40-50 रूपए की रद्दी में बिक गई तो समझ लीजिए हमारी पढ़ाई-लिखाई का कोई औचित्य ही नही। किताबों को रद्दी में बेचने से बेहतर होगा कि हम उन्हें जरूरतमंद बच्चों, किसी शैक्षिक संस्थान अथवा पुस्तकालय को दान कर दें।

प्राइवेट स्कूलों द्वारा हर साल किताबें बदल‌ने के पीछे उनका निजी स्वार्थ छिपा होता है। ऐसा करके उनका मकसद अधिक से अधिक लाभ कमाना होता है। अभिभावकों पर पड़ने वाले आर्थिक बोझ से उनका कोई लेना-देना नहीं होता। प्राइवेट स्कूलों द्वारा हर साल किताबें बदलकर अभिभावकों पर आर्थिक बोझ डालने के साथ-साथ देश के राजस्व को भी नुकसान पहुंचाया जाता है,क्योंकि किताबों के नाम पर अभिभावकों से मनमाना दाम वसूलने वाले स्कूल या दुकान अभिभावकों को इनकी पक्की रशीद नही देते। वे किताबों पर प्रिंट एमआरपी पर किताबें खरीदने के लिए अभिभावकों को विवश करते हैं। प्रतिवर्ष किताबें बदल‌ने का अप्रत्यक्ष प्रभाव हमारे पर्यावरण पर भी पड़ता है।जिसके बारे में हम शायद कभी सोंचते ही नही। किताबों की छपाई के लिए फैक्ट्रियों में जो कागज बनाया जाता है उसके लिए हर साल लाखों-करोड़ों पेड़ काटे जाते हैं। पेड़ों की इस अंधाधुंध कटाई का असर हमारे पर्यावरण पर भी पड़ता है। जरा सोचिए,क्या प्रकृति को नष्ट कर के हम बच्चों के बेहतर भविष्य की कल्पना कर सकते हैं ? आइए, हम पुस्तकों को कभी भी न बेचने का संकल्प लेते हैं।



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