संकुचित दायरे
संकुचित दायरे
निहारिका जी की बेचैनी बढ़ती जा रही थी। रात के दो बज गए थे और उनकी बहू श्वेता अब तक ऑफिस से घर नहीं आई थी। वह अनेकों बार उसे फोन भी कर चुकी थीं पर फोन बज बजकर बंद हो जा रहा था। कई बार उन्होंने अपनी बहू श्वेता से सेकंड शिफ्ट में काम करने को मना भी किया पर नौकरी तो नौकरी है सब तरह की ड्यूटी करनी ही पड़ती है। वैसे तो रोज़ ग्यारह बजे तक आ जाती है पर आज तो दो ही बज गए थे ,बेटा भी ऑफिस के काम से शहर से बाहर गया हुआ था। वह उसे भी फोन करके परेशान नहीं करना चाहती थीं बस खुद ही परेशान हो रही थीं। वह व्हाट्सएप पर श्वेता को कई मैसेज भी भेज चुकी थीं पर उसने वह भी नहीं देखे थे। उसका लास्ट सीन नौ बजे का दिखा रहा था। अब निहारिका जी के मन में बुरे बुरे ख्याल आने लगे ।डर और चिंता के मारे उनका हाल बुरा होता जा रहा था तभी उन्हें गाड़ी रुकने की आवाज़ सुनाई दी। उन्होंने अपने घर की तीसरी मंज़िल की खिड़की से नीचे झांका तो उन्होंने देखा श्वेता किसी अनजान आदमी के साथ थी। उसने उसका हाथ भी पकड़ रखा था यह देखते ही उनका सिर चकरा गया ।वह सोचने लगी मैं यहां चिंता में घुली जा रही हूं और यह मस्ती करके आ रही है। तभी फोन भी नहीं उठा रही थी। अब उनके गुस्से का पारावार न रहा।
श्वेता के घर में घुसते ही उन्होंने "पूछा इतनी देर रात गए किसके साथ गुलछर्रे उड़ा कर आ रही हो?” उनकी बात सुनकर श्वेता एकदम बोली "हम भारतीयों की मानसिकता पता नहीं कब बदलेगी? नारी अगर देर से घर आती है तो क्या गुलछर्रे उड़ाकर ही आएगी ?हमेशा नारी ही अग्नि परीक्षा के घेरे में क्यों रहती है?" वह आगे बोली "आपका बेटा भी तो कई -कई दिन घर से बाहर रहता है आपने उससे तो कभी नहीं पूछा कि कहां गुलछर्रे उड़ा कर आता है, ऐसा कहकर वह रोने लगी ,और बोली "आज मैं खुद ही मुसीबत में फंस गई थी ।पहले तो मेरा मोबाइल ही ऑफिस में छूट गया ,फिर कैब का एक्सीडेंट हो गया। मेरे पैर में भी काफी चोट आई है ,पांच टांके लगे हैं। वह तो मेरा कलीग ही था जो मुझे हॉस्पिटल भी लेकर गया और यहां छोड़कर भी गया। ताज़ा-ताज़ा ज़ख्म था तो पैर ज़मीन पर रखा नहीं जा रहा था तो उसने सहारा देकर घर तक पहुंचाया। उसे भी बहुत देर हो गई थी बहुत कहने पर भी वह रुका नहीं और उल्टे पांव लौट गया। मैंने उसके फोन से आपको बताने का सोचा तो था पर वहां सिग्नल ही बहुत कम आ रहे थे और जब फोन मिलता भी था तो बिज़ी बताता था ।"
श्वेता की बात सुनकर निहारिका जी बहुत शर्मिंदा हुईं,और उसके आंसू पोछते हुए बोलीं "माफ नहीं करेगी क्या अपनी मां को।" श्वेता बोली ऐसे ना बोलो मां और ऐसा कहते हुए उनके कंधे से लग गई। निहारिका जी ने उसे सहारा देते हुए उसके कमरे तक पहुंचाया और फिर खाना गरम करने रसोई में चली गईं। दोनों ने मिलकर खाना खाया। उसके बाद निहारिका जी हल्दी का गर्म दूध श्वेता को देकर अपने कमरे में सोने चली गईं।दूध पीकर श्वेता भी नींद के आगोश में समा गई।