Vinita Shukla

Tragedy

4.5  

Vinita Shukla

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व्हाट्सएप नंबर

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कैलेंडर मानों मुंह चिढ़ा रहा है; घोषणा कर रहा है कि मिली का जन्मदिन है. रहरहकर उसकी यादें मुझे घेरने लगी हैं. मैं अपने दिलोदिमाग से, उन्हें बुहारकर, हटा देना चाहती हूँ. किन्तु कैसे?! मिली की तरह, उसकी यादें भी हठी हैं और उनकी जकड़न... ऑक्टोपस के पंजों जैसी! “माँ...मैं चलूँ?” श्रीधर का प्रश्न मुझे चौंका देता है. मैं खुद को सहेजती हूँ. एक बड़ी सी मुस्कान, होठों पर चिपकाकर कहती हूँ, “ तुम्हारे सारे फ्रेंड्स ने विश कर दिया?” “अभी कहाँ माँ! आप तो जानती हैं...सबके अपने अलग कामधंधे हैं. आपके पास कोई फोन आया? अरे हाँ आपने तो बुआ, मौसी सबको मना किया है- सबेरे कॉल करने को...पर मिली आंटी? उनका फोन तो जरूर आया होगा” कहकर वह हंसा, “एक वे ही हैं जो आपका नियम- कानून नहीं मानतीं” “श्री...बेटा...आई थिंक तुम्हें लेट हो रहा है. और हां...तुम्हारा बैग तैयार कर दिया है. ढेर सारे स्नैक्स हैं और केक भी बेक करके रख दिया है...विद योर फेवरेट, चॉकलेट आइसिंग...देखो तो खोलकर”


बात को मोड़ने में मुझे खासी मशक्कत करनी पड़ी, आख़िरकार मिली पर चर्चा करने से बच गयी. श्री झुककर मेरे पैर छू रहा है. मैं स्नेह से उसके सर पर हाथ फेर देती हूँ , माथे पर एक चुम्बन अंकित कर देती हूँ. मेरा छह फुटा बेटा, जीवन की राह पर चल निकला है. कार्यालय में उसका पहला दिन है. आज के दिन वह दुनियां में आया और आज ही वह दुनियावी जेद्दोजेहद का हिस्सा बनेगा. मिली भी तो ...! श्रीधर की किसी भी वर्षगाँठ की पर वह बधाई देना न भूलती और मैं भी उसको प्यार से उसे ‘हैप्पी बर्थडे’ कहती. किन्तु अब...! मैं मिली को मन-मस्तिष्क से परे हटा देना चाहती हूँ...चाहती हूँ कि उसके ख्याल मुझे ना सताएं. इसके लिए, विशेष प्रयास नहीं करना पड़ा. श्रीधर की चाची, काकी, बुआ आदि सभी के फोन आते गए और वह मेरे विचारों में, सेंध ना लगा पाई.


सबको पता है कि मैं सुबह कोई कॉल अटेंड नहीं करती. मेरे पति गुलशन को ऑफिस जाना होता है. लिहाजा चाय- नाश्ता और लंच का डब्बा उसी समय तैयार करना पड़ता है. इसी से बेटे के जन्मदिन पर, शुभकामनाओं का सिलसिला, देर से शुरू हुआ. लम्बी बातचीत के बाद, पस्त हो जाती हूँ और सोफे पर निढाल होकर गिर पड़ती हूँ. थकान से आँखें मुंदने लगी हैं. तभी ध्यान आया कि श्री भी कार्यालय पंहुच गया होगा. वरिष्ट अधिकारियों से निर्देश मिल रहे होंगे... सहकर्मियों से परिचय का दौर भी चला होगा. वहां का माहौल उसे रास तो आया होगा?? विचलित मनःस्थिति में, मिली की दस्तक सुनाई देती है. उस दस्तक से, चिंतन के पट, स्वतः ही खुलते चले जाते हैं...मैं चाहकर भी उसे रोक नहीं पाती...अवश सी हो गयी हूँ!! उसका चेहरा व्यंग्य से विकृत हो चला है. उलाहना भरे स्वर में वह कहती है, “यह क्या वर्षा? श्री के जन्मदिन पर मेरा फोन, व्हाट्स- एप सब ब्लाक कर दिया! तुम खुद को समझती क्या हो?? व्हाई डू यू थिंक सो हाइली ऑफ योरसेल्फ?!”


यह कैसा तूफ़ान है?? ज्यों किसी ने उफनती जलराशि में धकेल दिया हो...और मैं डूबती ही जा रही हूँ. सब उलट –पुलट हो गया. मिली से मेरी पुरानी दोस्ती, मुझे कठघरे में खड़ा करने पर तुली है. मैं भी हार नहीं मानती और गेंद को उसके पाले में डाल देती हूँ. स्वयं को बार –बार आश्वस्त करती हूँ, ‘वही है ...हां वही है इस सबकी जिम्मेदार! इसमें मेरा क्या दोष?!’ दिल कहता है, ‘छोड़ो भी मिली को...यह दिन खुशियों का है, मनहूस ख्यालों को दूर ही रखो.’ यह सोचते ही हल्का महसूस करने लगी हूँ. अब शंकर भगवान् को भोग लगाना है. श्री को पाने के लिए, उनकी ही तो मिन्नतें की थीं! मेरे हाथ तेजी से चलने लगते हैं. झट गुड़, गरी के गुलगुले और खीर बनाती हूँ. श्री पास रहता तो उसके चौड़े ललाट पर टीका लगाकर, अपने हाथों मुंह मीठा कराती. “और क्या हाल है श्रीमती जी?” इनके प्रश्न ने मुझे चौंका दिया है. वे आगे पूछते हैं, “क्या चल रहा है, बाबू के जन्मदिन पर?” “क्या चलेगा? चार पैसे होते तो धूम करती...बाजार से डोसा, पिज़्ज़ा मंगाकर, खाती- खिलाती. हमारा बजट तो ऐसा है कि मुझे खुद ही खटना पड़ता है!’ मेरे भीतर से आवाज़ आयी. किन्तु प्रकट में बोली, “गुलगुले और खीर तैयार हैं. आप भी पूजा में बैठ जाइए. फिर दोनों साथ में प्रसाद ग्रहण करेंगे.”


“हाँ हाँ, खूब लगाओ मक्खन भोलेनाथ को. पहले भी, उन्हें इमोशनली ब्लैकमेल कर चुकी हो. इस बार तो उसके करियर का श्रीगणेश है. पूरा जोर लगाना पड़ेगा.” इन्होंने परिहास में कहा. किन्तु मुझे गंभीर पाकर, यह भी गंभीर हो गए. पूजा के बाद, हम मंदिर गए; बेटे की खुशहाली और सलामती के लिए, माथा टेकने. आज हमारा ख़ास दिन था, फिर भी किसी नामी होटल में डिनर करने नहीं जा सकते थे. श्रीधर की आवाज, कानों में गूंजने लगी, “देखना माँ एक दिन हमारा भी कुछ स्टेटस होगा, समाज में पहचान होगी...तब आप आराम से रहना...घरेलू कामकाज से छुट्टी ले लेना! सेवा-टहल के लिए, नौकर रख लेंगे” मैं सोच में हूँ...सामाजिक स्तर ऊपर उठाने के लिए श्री को कड़ी मेहनत करनी होगी. गुलशन टोक देते हैं, “बेटे के बारे में सोचना बंद भी करो...अब वह बच्चा नहीं रहा.” मैं चमत्कृत हो जाती हूँ. बरसों के साथ ने, उन्हें मेरी रग रग से वाकिफ कर दिया है.


अपनी चिंता या तो उनको बताती हूँ या फिर मिली...! ना चाहते हुए , मिली फिर से, मेरी सोच पर हावी हो गयी. वह जैसी भी हो, मेरी समस्याओं को ध्यान से सुनती; श्री के भविष्य की योजनायें, संग- संग बुनती... उलझनों में मुझे दिलासा देती. उसकी तमाम खामियां, तब मेरे लिए, बेमानी हो जातीं. सहानुभूति के आवेग में, उसका खुरदुरा स्वर नरम पड़ जाता, “वर्षा तुम्हारा दर्द मैं समझती हूँ. गुलशन पर उसकी जॉइंट फॅमिली... उसके पेरेंट्स, सिस्टर्स और ब्रदर्स की लायबिलिटीज़ हैं. देट्स व्हाई यू हैव टु कोम्प्रोमाईज़, हाथ तंग रहता होगा. पर ये लाइफ है, यह सब तो चलता है! मुझे ही देख लो. सिंगल हूँ. अपने लिए खाती –कमाती हूँ. किसी से कुछ मांगती नहीं... लक्ज़री में तो मैं भी रहना चाहती हूँ...लेकिन इतनी सैलरी भी तो हो! एंड माय रिलेटिव्स- दे आर डेविल्स... दे सिम्पली वांट टु स्नैच माय मनी!!“ वह जब- तब दर्शन बघारती. ज़िन्दगी का सामना कैसे करें, इस पर गाहे-बगाहे ज्ञान देती रहती.


ऐसे में गुलशन को मखौल सूझता था, “वो तुम्हारी मिली बहनजी- अखबारी बातें पढ़कर, उपदेश पिलाती है. आगे नाथ न पीछे पगहा! परिवार का जिम्मा उठाना पड़े... तो पता चले आटे- दाल का भाव!” गुलशन ही क्यों, देवलीना और सिद्धिका भी, उससे चिढ़ी बैठी थीं. पुराना समय याद आता है, जब मैं, मिली, देवलीना और सिद्धिका, मैरी कान्वेंट में, सीनियर सेक्शन की अध्यापिकाएं थीं. हमारे बीच छात्रों को लेकर अक्सर ही संवाद होते. स्कूल में धनिक वर्ग के छात्र थे; पंसारियों और क्लर्कों के बच्चे भी, जिनकी स्कूल- फीस, अभिभावकों पर भारी थी. मिली में निंदा रस कूट- कूटकर भरा था. पैसे वालों की संताने उसकी नज़र में बिगड़ैल थीं; जिनके माँ-बाप, अपना दायित्व समझते तक नहीं. बच्चे को मोबाइल, कंप्यूटर देकर चैन से बैठ जाते. इस बात का कतई होश नहीं कि वह पोर्न साइट्स तक पंहुच गया होगा. दसवीं कक्षा में, बड़े घर का कोई लड़का, सिगरेट के साथ पकड़ा गया. तब मिली उत्तेजना से भर उठी थी, “आई ऍम प्रिटी श्योर, ही मस्ट बी टेकिंग ड्रग्स आल्सो.’


नकारात्मकता, उसके व्यक्तित्व में रची- बसी थी. अपने निर्धन शिष्यों से भी, उसे सहानुभूति न थी. वे भी उसके निशाने पर आ ही जाते, “कैसे इल- मैनर्ड हैं? पेरेंट्स इनको स्कूल में भेजकर, सोच लेते हैं कि हम सारे एटिकेट सिखा देंगे. अंग्रेजी बोलना भी सीख जायेंगे. व्हाट द हेल! सब कुछ घोलकर, उन्हें पिला देंगे?? बैकवर्ड फॅमिलीज़ से हैं...घरवालों को कुछ आये ना जाए. एक टीचर अकेली क्या- क्या करे!! सिद्धिका और देवलीना, उसकी पीठ पीछे कहतीं, “वाह री मिली महारानी! पकी- पकाई खिचड़ी ही मिल जाये तो क्या सिखाना और क्या पढ़ाना??!” वह दोनों मेरे साथ, शिक्षा की तकनीक, सुधारने पर विमर्श करती. मिली का काम बस इतना था कि वह हमारी योजनाओं में, कमियां निकालती रहती. कभी- कभी देवलीना, सिद्धिका से कहती, “सिद्धू...हमें इस मिली को अवॉयड करना चाहिए. प्रिसिपल की चमची है पक्की!” बदले में सिद्धिका प्यार से समझाती, “डरो मत बुद्धू! तुम मैनेजमेंट की कैंडीडेट हो...तुम्हारा क्या उखाड़ लेगी??” इस सबके बीच मैं, मूकदर्शक ही बनी रहती. किसी का भी पक्ष लेना, प्रपंच में पड़ने जैसा था.


प्राइमरी सेक्शन की शिक्षिकाएं भी उससे कम खफा न थीं. रीता कभी उसकी पक्की सहेली हुआ करती थी. दोनों एक धर्म की अनुयायी...एक ही चर्च में पूजा करने जातीं; दोनों बड़ी आयु तक कुंवारी...उनके आवास भी एक बिल्डिंग में थे. स्कूल की तरफ से दो कमरों का एक-एक, फ्लैट दोनों को मिला हुआ था. फिर जाने क्या हुआ कि मैत्री में दरार पड़ गयी. एक दिन रीता स्टाफ- रूम में बैठकर कह रही थी, “मेरे पास हर रंग की साड़ी है. एक सफ़ेद ही नहीं थी. हमारे में तो सफ़ेद कपड़े में, शादी की रस्म होती है... अब देखना, वह भी खरीदने वाली हूँ.” यह कहते हुए उसने, मिली को अर्थपूर्ण दृष्टि से देखा. मिली आहत होकर बाहर चली गयी. रीता बेपरवाह सी बैठी रही थी. कुछ देर बाद, मुझे संबोधित करती हुई बोली, “वर्षा तुम अच्छा गाती हो. गाने वाले लोग मुझे बहुत पसंद हैं...हम नार्थ-इन्डियंस, एक- दूसरे को सही ढंग से एप्रीशियेट कर सकते हैं. बट दीज़ साउथ- इन्डियंस... गॉन केस!...यू नो मिली...!!” मैं आज तक यह जान न पाई कि मिली और रीता में कौन गलत था. क्या रीता अपनी होने वाली शादी को लेकर, ज्यादा ही ‘फूल’ रही थी या फिर मिली का अहम, उसके ‘मैरिटल-स्टेटस’ में होने वाले ‘अपडेट’ को पचा नहीं पा रहा था?


कहने को तो दसवीं की क्लास-टीचर, मोना भी दक्षिण- भारतीय थीं. उनके पति डेविड, स्कूल में ही कैशियर थे. हमें तनख्वाह भी उनके हाथों मिलती थी; किन्तु सुना था कि मोना उसके चरित्र को लेकर, प्रपंच करती थीं. पति-पत्नी उसके ब्लाक में ही रहते थे. मिली ने खुद कबूला था, “यह दोनों मेरी मोरल- पोलिसिंग करना चाहते हैं. मेरे फ्लैट में आने-जाने वाले, हर बंदे पर नजर रखते हैं...बिल्डिंग में रहने वालों को मेरा फ्रॉक पहनना बहुत अखरता है. कहते हैं- ‘लम्बी-लम्बी टाँगे दिखाती है...एक शिक्षिका को ऐसी बेहूदी ड्रेस पहनना, शोभा नहीं देता!’ माय फुट! व्हाई डोंट दे माइंड देयर ओन बिजनेस! नोबडी इज सपोज्ड टु इनक्रोच ऑन माय लाइफ.” स्टाफ में बहुतेरे टीचर थे, उत्तर-भारतीय और दक्षिण भारतीय भी. लेकिन खुल्लमखुल्ला किसी की हिम्मत नहीं हुई कि वह मिली पर सवाल उठाये. कारण स्पष्ट था. प्रिंसिपल फादर जोस, उसके मामा थे. फादर के कारण नन्स भी उसके खेमे में रहतीं. इन्हीं सबके हाथ में, विद्यालय की बागडोर थी. ऐसे में मिली से, कोई कैसे पंगा ले सकता था?!


तो भी दबी- ढकी चर्चा सुनने में आयी कि मिली का पालघाट के किसी लड़के से अफेयर था. वह इस रिलेशनशिप में बहुत ‘आगे’ निकल गयी थी. लड़के ने ‘डिच’ किया तो वह कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रही. ऐसे में फादर जोस ने अपनी इस भांजी को यहाँ बुला लिया था, ताकि वह शर्मिंदगी से बची रहे. नहीं तो क्या, साउथ- इंडिया में टीचिंग जॉब्स का अकाल पड़ा हुआ था जो उसे घर- परिवार छोड़, यहाँ आने की जरूरत पड़ती?! इतने पर भी, मुझे वह ‘गिरी हुई’ नहीं लगती थी. उसका सौम्य व्यक्तित्व किसी भी ओछेपन से दूर था. मुझसे उसका व्यवहार भी ठीकठाक था. फिर अफवाहों का क्या भरोसा?? बात सही भी हो तो क्या! आखिरकार असली अपराधी तो वह लड़का था. मिली का इस बारे में कुछ और ही कहना था. “दिस वाज अ रिमोट प्लेस. नो वन वाज विलिंग टु ज्वाइन हियर, एज अ टीचर”. उसके जीवन में कुछ जरूर था...जो असामान्य था. किसी भयानक अनुभव ने उसे इतना जज़बाती, इतना तुनकमिजाज़ बना दिया. हकीकत यह भी थी कि वह अनब्याही रह गयी. उसके विवाह का प्रयास, घरवालों ने अवश्य किया, जो कभी फलीभूत नहीं हुआ.


मैं टी.वी. ऑन करके बैठ गयी...ताकि सोच पर लगाम लगा सकूं. किन्तु मन बाँधना, उमगती नदी का प्रवाह, रोकने जैसा है...ओशो ने कहा था, “थॉट्स आर योर गेस्ट्स”. यह सोच ही है जो बेचारगी का एहसास कराती है. यूँ तो मैं भी कभी समर्थ थी...अपने पैरों पर खड़ी थी. सुंदर अतीत स्वप्न बनकर रह गया. विवाह के बाद, संयुक्त परिवार के दायित्वों ने, मेरी आकांक्षाओं के पंख कतर दिए. धीरे- धीरे सारी जिम्मेदारियां उठाईं. ननदों और देवरों का ब्याह किया. अब जब सास –ससुर नहीं रहे, बेटा भी पढ़ाई पूरी कर चुका; घर बिलकुल शांत पड़ गया है. अपने लिए समय निकाल सकती हूँ. किन्तु नौकरी करने की हिम्मत नहीं. मुझसे १२ वर्ष बड़ी मिली तो रिटायर भी हो गयी! मिली पुनः, चिंतन के वर्जित क्षेत्र में अतिक्रमण कर गयी थी!! मुश्किल से पांच महीने हुए होंगे; उस दिन, शाम को छह बजे उसका फोन आया. मैं खीज उठी. वह खूब जानती थी कि यह गुलशन के ऑफिस से आने का समय था. लेकिन उसे क्या! टाइम- पास के लिए, मुझ जैसी ‘फालतू’ स्त्री जो उपलब्ध थी! चाहती तो उसकी कॉल न अटेंड करती. जाने क्यों फिर भी, मैंने फोन उठा लिया. इस बार उसने, ज्यादा टाइम नहीं लिया. बोली, “वर्षा फटाफट मेरा नया नम्बर नोट कर. मेरे भतीजे ने लेटेस्ट मोबाइल गिफ्ट किया है...और हाँ! यही मेरा व्हाट्स एप नम्बर भी है. एड मी देयर...ओके!”


मैं थोड़ा हैरान हुई. सोशल मीडिया से उसे बेहद घृणा थी. फेसबुक, ऑरकुट, ट्विटर कहीं भी उसका खाता नहीं था. ऐसे में व्हाट्स एप अकाउंट? क्या गुमनाम अंधेरों से बाहर आने की ललक, उसमें अभी भी शेष थी?? वह तो अपना फोन -नंबर भी किसी को नहीं देती. उसके गिने- चुने संपर्क हैं. कभी किसी ने फोन पर, उससे दिल्लगी की थी, “गुड़िया बोल रही हो?”; इस पर उसने जवाबी हमला किया, “गुड़िया नहीं बुढ़िया बोल रही हूँ” यह बात बताते हुए, वह हंस पड़ी थी. जरूरत से ज्यादा चौकन्नापन भी, उसकी आदत में शुमार था. शायद उसका अकेलापन, उसे डराता रहा होगा. अनजान नंबर का फोन, वह उठाती तक नहीं थी. इतना कुछ सोचते हुए मेरी दृष्टि, श्रीधर की अलमारी पर जाती है. वहां क्राफ्ट के कुछ नमूने और हस्तनिर्मित खिलौने हैं. यह तो मिली ने अपनी हस्तशिल्प की क्लास में, नन्हें- मुन्ने छात्रों से बनवाये थे...उसी ने तो श्री को गिफ्ट...! रुका हुआ बवंडर फिर उमड़ पड़ा था! कहीं ऐसा तो नहीं कि मैं, उसे लेकर होने वाले, अपने एहसासे- जुर्म को दबाना चाहती थी ... केवल उसकी कमियां गिनती जा रही थी...और उसके वजूद के खूबसूरत पहलुओं को, नकार रही थी!!


उसका गाँव, चैन्नई के आस-पास कहीं था. जब स्कूल में गर्मियों की छुट्टियाँ होतीं, वह गाँव चली आती. उन दिनों उसकी माँ जीवित थीं. अब तो न माँ है, न भाई! ले- देकर भतीजे का परिवार है. गाँव से वह मेरे पास, बंगलौर भी आना चाहती थी. किन्तु इसके लिए, मैंने उसे कभी बढ़ावा नहीं दिया. जानती थी कि उसके सेवा- सत्कार की सामर्थ्य, मुझमें न थी! बावजूद इसके वह कहती रहती, “वर्षा, रिटायर होने के बाद, तुम्हें अपने गाँव बुलाऊंगी. हमारे फार्म-हाउस में नारियल, अनानास और पपीते के बगीचे हैं. सुंदर तलैया है...वहां किस्म- किस्म के फूल और पंछी हैं...!” उसने व्हाट्स एप पर भी, वे सुंदर दृश्य, मुझसे साझा किये थे. सेवानियृत्ति के बाद, पके हुए बालों में, वह कितनी सुंदर लग रही थी... उसके भतीजे, विशालकाय कछुआ थामकर खड़े थे. यद्यपि समय काटने के लिए ही, वह वार्तालाप करती थी, तथापि उससे एक अनाम रिश्ता जुड़ता चला गया. स्कूल से जुड़ी नवीनतम ख़बरें, मुझे उससे ही मिलती; पुरानी अध्यापिकाओं के बारे में जानकारी भी.


उसी से पता चला कि फादर जोस सेवानिवृत्त होकर, बरेली के किसी चर्च में पुजारी हो गए थे. श्रीमती रथ को उनकी बहू बहुत सताती थी. श्रीमती वर्मा के पति नहीं रहे और वह जैसे- तैसे दिन काट रही थीं...स्कूल में चेन्नई से एक नयी सिस्टर आयी थीं- नाम था सिस्टर एनी...कौन सा स्टूडेंट इंजिनियर बना, कौन डॉक्टर...कौन कौन सी टीचरें, फेसबुक पर थीं आदि, आदि. डिनर में ‘झटपट रेसिपीज’ कैसे बनाएं, उसकी टिप्स भी यदा कदा दे डालती. वह अपनी कुंठाओं की गाँठ, मेरे समक्ष खोलती ... और मैं भी अपना दुःख उससे कह डालती. इस तरह धीरे-धीरे, मिली मेरे अजीज दोस्तों में शामिल हो गयी. अलबत्ता देवलीना और सिद्धिका से वह खासी खफा थी. वे लोग उसे ‘कॉल बैक’ नहीं करतीं थीं. मैं भी घर- द्वार में व्यस्त रहती थी, उससे सम्पर्क साधने का अवसर, कम ही मिलता. व्हाट्स एप के बाद, मिली से बात न कर पाने की ग्लानि भी जाती रही. जब भी फुर्सत मिलती, पोस्ट डाल देती. इसके लिए कोई ख़ास वक्त भी ना लगता. पहली बार एक वीडियो डाला था – जो सस्ते रंगों से खाद्य –पदार्थों को, रंगे जाने के खिलाफ, जागरूकता फैला रहा था. लिली ने उलटे ही सवाल दाग दिया - “हू विल स्टॉप दिस मेनेस?” तब मैं उसके अक्खड़पने पर हंस पड़ी थी!


वह मेरे द्वारा भेजे हुए सन्देश देखती पर बहुत कम प्रतिक्रिया करती. बिरले ही वह, कुछ पोस्ट करती थी. किसी परिचित या परिचिता के बारे में, उसे कोई बड़ी खबर मिलती; तभी वह मेसेज करने का कष्ट करती. उसने ही श्रीमती राय के एक्सीडेंट की खबर दी; हार्दिक दुःख जताते हुए और उनकी तारीफ़ में कसीदे गढ़ते हुए. तब मुझे बेहद हैरानी हुई थी. मिसेज राय तो सदैव उसे अवसरवादी, ऐंठू महिला लगतीं थीं. उसका व्यवहार रहस्यमय और विचित्र होता जा रहा था. यह और बात थी कि श्रीमती ‘राय’ के बारे में मेरी भी ‘राय’ कुछ अच्छी न थी! दिन बीतते जा रहे थे. मेरे एकतरफा व्हाट्स एप संदेशों का सिलसिला जारी था. एक दिन उसने सब्जीवाली बाई की तस्वीर भेजी. एक सन्देश भी, जो शायद जल्दबाजी में लिखा गया था. जल्दबाजी में इसलिए कि उसमें वर्तनी की गलतियाँ थीं, जो आमतौर पर मिली नहीं करती थी. संदेश के अनुसार, इस औरत के पति का ऑपरेशन होना था. मिली ने अपनी तरफ से हजार रूपये दिए थे और वह मुझसे भी, सहायता की अपेक्षा रखती थी. मैं सोच में पड़ गयी. उसे तो पता है कि अक्सर, मुझे सौ- पचास रूपये की भी किल्लत रहती है! मैंने कोई जवाब नहीं दिया. कुछ दिन बाद, भूलवश मैंने एक सन्देश डाला, जो कुछ इस तरह से था-


हाँ मैं बदल रही हूँ...गरीब फेरीवाले से सौदेबाजी नहीं करती. उसे अपनी बेटी के स्कूल की फीस जो देनी है.


हां मैं बदल रही हूँ...रेहड़ी वाले से मोलभाव नहीं करती. पैसे कमाने के लिए वह दिन- रात खटता है.


हाँ मैं बदल रही हूँ..रिक्शे- वाले से चंद सिक्कों के लिए झिकझिक नहीं करती. धूप-ताप में, वह सवारियों को ढोता है...


बस फिर क्या था! पूरी आक्रामकता के साथ, वह मुझ पर पिल पड़ी...कटाक्ष करने में, उसने देर ना की, “व्हाट्स अप मैसेज फॉरवर्ड करना आसान है, लेकिन उसे व्यवहार में लाना मुश्किल. बेचारी सब्जीवाली मरने- मरने को है, जब उसके ऑपरेशन के लिए पैसा माँगा; सबको सांप सूंघ गया.” मैं तिलमिला गयी, घोर अपमान की आग में जलने लगी. मेरे व्हाट्स एप स्टेटस में तो महज चिल्लरों की चर्चा थी; यह तो हजारों का उपदेश पिला रही थी! किस कठिनाई से गृहस्थी की गाड़ी खिंचती थी... महीने के अंत तक उधारी की नौबत आ जाती... और मिली!! रिश्तों का लिहाज तक नहीं; पुरानी दोस्ती का ऐसा सिला?! आखिर वह खुद को समझती क्या थी?? कितनी बार उसके यात्रा- वृतांत, सुन- सुनकर मेरे कान पक गए. उसका दक्षिण- भारतीय लहजा और राजनीतिक परिस्थितियों का विश्लेषण, दोनों ही मेरे लिए अबूझ थे. तो भी उसके साथ, मैंने कभी बेअदबी नहीं की! फ़ोकट में ज्ञान बघारना, उसका पसंदीदा शगल था; भले ही किसी के पल्ले पड़े या ना पड़े. मुझ सी साधारण गृहणी, वैसी जागरूकता, कहाँ से लाती?! मेरा वजूद तो, घर के खटराग में ही चुक गया. मिली को इससे क्या...उसे तो लेक्चर देने से मतलब! ऐसे में गुलशन का कहा याद आ गया, “सम्बन्ध बनते मुश्किल से हैं लेकिन बिगाड़ करने में पल भर भी नहीं लगता.” इसी बात का लिहाज कर, मैंने तय किया कि मिली को एक और मौका दूंगी. हालाँकि मन बेतरह उखड़ गया था. कई बार उसका हठ देख चुकी थी, पर अपनी तानाशाही, वह मुझ पर आजमाएगी, ये कब सोचा था!


बहुत सोच- समझकर, मैंने उसकी पोस्ट का जवाब लिखा- ‘(१) अव्वल तो बिना किसी को जाने, दान देना व्यवहारिक नहीं. (२) जो स्वयं नहीं कमाता, दान कैसे दे सकता है? (३) दान कैसे और किस माध्यम से दिया जाए, यह भी पता नहीं. (४) अमूनन दान की राशि भारीभरकम होती है जो सबके लिए संभव नहीं’


मुझे लगा कि इतना कुछ पढ़कर, उसे शर्मिंदगी जरूर होगी. आखिर उसने मेरी मजबूरी का मजाक बनाया था! मैं अधैर्य से उसकी प्रतिक्रिया की बाट जोहती रही. मुझे जान पड़ा कि शायद वह चुप्पी साध जायेगी. मैंने अपनी स्थिति, कम शब्दों में ही बिल्कुल स्पष्ट कर दी थी. गेंद अब उसके पाले में थी. इसके पहले कि वह कुछ उत्तर दे, एक – एक करके सिद्धिका और देवलीना के फोन आये. मिली ने व्हाट्स एप के जरिये, उन पर भी, वैसा ही दबाव बनाने की कोशिश की थी. सिद्धिका बेहद उत्तेजित लग रही थी, “ मैडम ने अच्छा धंधा शुरू किया है, फ्री में मुनाफा कमाने का. खुद ही कहतीं थीं- ‘चैरिटी बिगिन्स एट होम’...लो बोलो! अब हम इनकी चैरिटी देखें या अपनी खुद की दशा सुधारें?!” सच ही था. मंहगाई के इस युग में, सिद्धिका डबल- इनकम के फेर में पड़ी हुई थी. समाज में प्रतिष्ठा बनाए रखने को, वह और उसके पति, दिन- रात काम करते थे. गाढ़ी कमाई यूँ ही किसी को दे देते?? देवलीना ने तो यहाँ तक कहा, “ये मिली तो ‘मिशनरीज़’ की सगी है... वे दान- दक्षिणा के नाम पर पैसा लेते हैं; पर उनका असली मकसद तो गरीबों को ‘कन्वर्ट’ करना है... पैसे के लालच में वे बेचारे, इनकी बिरादरी का हिस्सा बन जाते हैं. कई एन. आर. आई. संस्थाओं से सांठ-गाँठ है, इन लोगों की! स्याह को सफ़ेद करने में माहिर हैं यह सब!!”


स्थिति काफी हद तक हास्यास्पद भी हो गयी थी. मिली के अतिसंवेदनशील और ‘कटखने’ स्वभाव के कारण, कोई सामने से उससे भिड़ना नहीं लेना चाह रहा था. सब आपस में ही, कह-सुनकर भड़ास निकाल रहे थे. इधर मिली ने व्हाट्स एप पर, मेरी टिप्पणी का प्रत्युत्तर दिया था, “डोनेशन देने का तरीका बिलकुल आसान है. इट्स सिंपल! व्हाट इज़ द कंफ्यूजन?! बस मेरे नंबर पर, मनी- ट्रान्सफर करना है... ३०००/- ही काफी होंगे ” इस बेशर्मी और बेतकल्लुफी पर, मैं दंग रह गयी थी. उसकी नीयत में खोट, साफ़ झलक रही थी. दाल में कुछ तो काला था...याकि पूरी दाल ही !! उसने १०००/- दिए थे और मुझसे ३ हजार की उम्मीद रखती थी. पहले वह सब्जीवाली के पति के ऑपरेशन की बात कर रही थी, अब स्वयं सब्जीवाली के!! यूँ भी उसके खाते में पैसे भेजने का, कोई सवाल ही नहीं था. मेरी आर्थिक स्थिति उससे छिपी नहीं. अब जाकर बेटे की नौकरी लगी है; एक- दो साल तक, उसकी तनख्वाह भी, कर्ज की भेंट चढ़ने वाली है. मिली को ब्लॉक करने में, मैंने तनिक देर न की. अजीब हाल था. रीता ने तो मामले को खोदने के लिए, उसे कॉल भी किया था. पहले तो कई बार फोन उठा ही नहीं... लगा कि ‘मैडम’ मैदान छोड़कर भाग गईं! फिर भतीजे की बहू से बात हुई. उसी ने बताया कि मिली कुछ दिन के लिए, योग- शिविर में हिस्सा लेने गई थी. शिविर के प्रतिभागियों को, अभ्यास के दौरान, बाहरी दुनियां से कटे रहना था; लिहाजा उससे बातचीत संभव न थी. वह बोली, “आपको कुछ गलतफहमी हुई है. यहाँ दूरदराज तक कोई सब्जीवाली नहीं है. ले देकर एक पुराना मॉल और कॉपरेटिव मार्केट है. वहीं से हम लोग सब्जी और जरूरत के दूसरे सामान खरीदते हैं.” यह बात, हम सबके संदेह को, और भी पुष्ट करती थी.


पुरानी सहकर्मियों ने, मेरे अहम को सहलाया था. इसी से उनकी बातें मुझे सच लगीं. वैसे भी मिली से सहानुभूति, मेरे अलावा सिर्फ कामिनी आंटी को रहती थी. अब तो मुझे भी उससे वितृष्णा होने लगी! मैरी कॉन्वेन्ट के व्हाट्स- एप ग्रुप पर, मैं उसके विरुद्ध विषवमन करने लगी थी. हालांकि मिली उस समूह से जुड़ी होने के बावजूद, अपनी उपस्थिति वहां कभी दर्ज नहीं करवाती थी. फिर भी, कभी न कभी, मेरे विचार उस तक पंहुच ही जायेंगे- यह सोचकर, मैंने उसकी भरपूर आलोचना की. गाहे बगाहे जहर उगलने में, दूरभाष के सम्पर्क भी काम आये. रही बात कामिनी आंटी की, जो मिली की एकमात्र शुभचिंतक थी. वे बहुत पहले लन्दन में जा बसीं. उनके विषय में किसी ने बताया था कि फादर जोस के व्यक्तिगत संपर्कों के कारण, उन्हें वहां मिशनरी स्कूल में नौकरी मिल गयी. इसी से, वह मिली को बहुत मानती थीं. वे भी अपनेआप में, अनोखी शख्सियत हुआ करती थीं. स्कूल में कोई इवेंट होता तो पूरा कार्यभार उन्हीं पर थोप दिया जाता. इतना कुछ हो जाने के बाद, शिद्दत से उनसे बात करने का मन हो रहा था... किन्तु आई. एस. डी. कॉल कर पाना मेरे बस में कहाँ! आंटी के इस बारे में विचार जानने को, मैं उतावली हुई जा रही थी. मैंने ऍफ़. बी. पर पूरी बात का खुलासा करते हुए, मैसेज डाला; परन्तु कई दिन बाद भी उनका कोई उत्तर न मिला...कदाचित व्यस्त रही होंगी.


मोबाइल घनघनाया तो मेरी विचार तंद्रा भंग हुई... श्री का नंबर फ़्लैश हो रहा था. वह उत्साह में भरकर बोल रहा था, “माँ आज का दिन बहुत अच्छा रहा. ऑफिस में सब बहुत दोस्ताना ढंग से पेश आये. मेरे इमीडियेट बॉस तो बहुत दिलचस्प इंसान हैं...और हां...मिली आंटी का फ़ोन पहली बार, मेरे नम्बर पर आया, बर्थडे विश करने के लिए. वे कह रही थीं कि उनके भतीजे ने उनका सेलफोन फॉर्मेट कर दिया. सारे कॉन्टेक्ट्स ही डिलीट हो गए. तीन महीनों से वे न तो व्हाट्स एप पर हैं, न ही मोबाइल पर किसी से बात हो पाई. मेरा नंबर उन्होंने पहले अपनी डायरी में नोट किया था, जो बाय- चांस, आज उन्हें मिल गया. आंटी बोलीं कि पुराना फोन उन्होंने अपने भतीजे को वापस कर दिया है; अब वे इस नए नंबर पर ही बात करेंगी...यही उनका नया व्हाट्स – एप नंबर है. माँ मैं उनका नम्बर आपको फॉरवर्ड कर रहा हूँ. आंटी ने रिक्वेस्ट की है...क्या ये जानकारी, उनके और अपने कॉमन- फ्रेंड्स तक पंहुचा देंगी?...” मैंने किसी तरह हाँ-हूँ करके बात ख़तम की. दिमाग जोरों से घूम रहा था. मिली तीन महीनों से व्हाट्स- एप नहीं चला रही थी तो उसके नाम से सन्देश कौन दे रहा था?!


इतने में मेरे फोन की स्क्रीन पर, कामिनी आंटी का चेहरा कौंध उठा. उन्होंने ऍफ़.बी. पर बात को आगे बढ़ाया था. एप खोलते हुए मेरे हाथ काँप से रहे थे! उनके टाइप किये हुए शब्द, मैसेंजेर पर चमक रहे थे, “मिली के गृहस्थान में, स्थिति अच्छी नहीं है. उसका उसके भतीजे से, संपत्ति का विवाद चल रहा था. अंततः सुना था कि, समझौता हो गया. लेकिन कल फादर से पता चला कि वे लोग, मानसिक रूप से, उसके दिवालिया होने की अफवाह फैला रहे हैं- आस- पड़ोस, यहाँ तक उसके फ्रेंड- सर्किल में भी...” पूरा मुआमला प्याज की परतों की तरह खुल चुका था. मिली का भतीजा और उसकी पत्नी, उसके व्हाट्स- एप एकाउंट का भरपूर दुरूपयोग कर रहे थे; और उसे खबर तक नहीं! सामाजिक मंचों के जरिये, अपराध के कई मसले सामने आये थे, किन्तु यह अपनेआप में, अनोखा केस था. यहाँ नई पीढ़ी ने, अपने कंप्यूटर-लिटरेट होने का फायदा उठाकर, पुरानी पीढ़ी से छल किया था. वह पुरानी पीढ़ी- जो अंतर्जाल के टेढ़े पेंचों से, अनभिज्ञ है!! तीर कमान से निकल चुका था. अब मैं चाहकर भी, अपनी म्यान में, उसे वापस नहीं बुला सकी. एक न एक दिन, मिली के समक्ष मेरी दुर्भावना, उजागर हो जानी थी... उसके आक्षेपों का सामना कैसे करूंगी...कुछ समझ ही न पाई! यह मेरे लिए जमीन में गड़ जाने जैसा था और इन सबकी जड़ में था- मेरा अपना व्हाट्स एप नम्बर!


...डावांडोल मनःस्थिति में मैंने, वह मनहूस, व्हाट्स- एप अकाउंट ही डिलीट कर दिया !!




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