Manisha Maru

Action

4  

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वो एकांत सीढ़ियां

वो एकांत सीढ़ियां

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आज ज़रा सुस्ता के

बेठी यादों की एकांत सीढ़ियों में,

याद कर रही उस लम्हें को,

जब मै खेला करती थी ,

सखियों संग

घर घर और गुडे गुड़िया को ।

तब ये ना जाना था,

गुडिया को बड़ी होकर 

छोड़ बाबुल का घर

एक दिन पड़ेगा पूरी जिम्मेवारियों का

बोझ उठाना ।

फ़र्ज़ निभाने से मै घबराती नहीं,

लेकिन सम्मान जहां ना मिले

वहां में झुकना चाहती नहीं।

रोक-टोक कुछ हद तक 

दिनभर की हो जाती है बर्दाश्त।

लेकिन दिल रोता है

सहम कर फिर पूरी रात।

पल पल क्यों हर चीज में

मेरी नुक्स निकाला जाता।

किस बेटी को बाबुल के घर

ज्यादा काम करना पसंद आता।

मैं यह नहीं कहती की,

बहू को पूरी तरह बेटी मान लिया जाए।

लेकिन बहू को...

बहू सा तो सम्मान दिया जाए।

उसका मन भी तो करता होगा!

खुली हवा में सांस लेने को,

तो कभी फैला के दोनों हाथ...

उन्मुक्त गगन में उड़ने को।

यह सोच मन के भीतर 

आत्मसम्मान की विशाल जंग छिड़ गई,

अब खुद का मैं खुद ही सम्मान करुगी ,

इस बात पे थी अड़ गई।

दिन दिन बदलता रूप देख मेरा

धीरे-धीरे सब को इस बदलते रूप की

आदत थी अब पड़ गई ।

कमजोर में खुद थी,

गलती किसी और की नहीं।

अब हौसला मेरा दिखाने लगा असर ,

गलत को गलत कहां 

और कहने लगी सही को सही।

अब मुझे एकांत वाली सीढ़ियों 

की जरूरत पड़ती नहीं,

क्योंकि खुद के अस्तित्व को पहचान

खुद का जो सम्मान करने लगी।

और सम्मान करती हर उस नारी का ,

जो अपने वजूद को पहचान,

दुनिया की फिक्र छोड़ ,

मन का डर निकाल,

सही दिशा में अपने कदम मोड़

खुशनुमा जिंदगी है जीने लगी।


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