सहारा
सहारा
1 min
625
बचपना था नादान थी मै ,
करती जिद , रूठ भी जाती थी ।
भूखी रह कर ,कर अपमान अन्न का ।
सबको बहुत सताती थी ,
हुई बड़ी ज़िम्मेदारियाँ आई ।
पिता से एक सीख पाई ,
कहा उन्होने ,बाते है दो ।
या तो ख़ुद भूखे प्यासे बीमार रह कर सबसे सहारा माँगो ,
या फिर रखो ध्यान अपना और बनो सहारा सबका ।
सीख पिता की नहीं भूली कभी मै ,
अब नही रहती भूखी प्यासी ।
और ख़ुद तो पका कर खाती ही हूँ ,
दुनिया को भी फेसबुक पर दिखलाती ।