घर की चाभियाँ
घर की चाभियाँ
न जाने क्यों अब घर ,
घर नहीं लगता ....
ख़ुशियों की चाभियाँ
कही छिप सी गयी हैं,
फ़िर भी उन्हें कोई
खोजना नहीं चाहता ,
न जाने ...
घर और मकान
दोनों में फ़र्क बहुत होता हैं ,
जो ईंटो से बनता है वो मकान,
जो प्यार बनाये
वो घर कहलाता है,
न जाने.....
अब टकराहटें
तो नहीं होती आपस में,
बस सन्नाटा पसरा रहता है,
न जाने.....
पीढ़ियां अब खुद में ही
सीमित हो गयी है,
पहले की तरह
घंटों गुफ़्तगू करने का
वक़्त नहीं रहता,
न जाने.....
न विश्वास नज़र आता है
न प्यार समझ आता है,
आगे बढ़ने की होड़ में
कोई अपना नज़र नहीं आता है,
न जाने.....
सबकुछ नीरस और उलझा सा
लगता है,
बिखरा-बिखरा आशियाँ है,
फिर भी
न कोई उसे सुलझना चाहता है
और न ही समेटना चाहता है,
न जाने ...