अरण्य
अरण्य
अरण्य में
नये भोर के साथ
हरिणों का समूह निकलता है
उसी समय किसी और के
उदर की तृष्णा जगती है
और एक समूह निकलता है
मृत्यु का समूह।
भयभीत नयनों से निहारते हुए
गति करता है वो जीव
जब अपनी मृत्यु की गर्जना
सहसा सुनता है
और भागता है बस भागता है
किन्तु मृत्यु से कौन कब बचा है
अन्ततः वह आ ही जाता है
मृत्यु के कपोल के भीतर
एक अनन्त भय को लिए।।
उसकी कोमलता उसके सुख का नहीं
दुख का कारण है यह ज्ञात तब हुआ
जब मृत्यु के कपोल में पड़ा
छटपटाया अश्रु बहाया किन्तु
कौन सुने उसकी करुण पुकार
कोई नहीं है समर्थ से समर करके बचाने वाला
अन्ततः उसे मरना ही मरना ही होगा।
अरण्य के इतिहासकार भी उसका नाम
कविता की पंक्ति में समाहित कर देंगे
और बलिदान की एक और कहानी
वृक्षों में सिमटी रह जायेगी
क्योंकि ये अरण्य है इसका यही कार्य है।