औरतें बनाम ज़मीन
औरतें बनाम ज़मीन
हम औरतें इंसान कहाँ होती हैं
एक ज़मीन हैं बस,
जिसने जैसा बीज डाला
वैसी फ़सलें पैदा कीं,
न फ़सलों पर हक़ हमारा
न ही अपने होने पर।
पहले बाप के नाम पर,
फिर शौहर के नाम पर
होती रही पहचान हमारी।
जब जिसने चाहा ख़रीद लिया,
जब जिसने चाहा बेच दिया
कभी इसकी, तो कभी उसकी
जायदाद समझी गईं।
एक कहावत बड़ी भद्दी है
हमारे बारे में
"ज़र, जोरू और ज़मीन ज़ोर की, नहीं तो किसी और की"
कभी हमें ख़ाली नहीं रहने देता कोई,
बिना मर्ज़ी के चलाते हैं हल
बोते हैं बीज, उगाते हैं फ़सलें
अगर कुछ उगा नहीं तो
लाखों तोहमतें बंजरपन की।
हमें लूटा-खसोट, छीना-झपटा,
छीला-खरोंचा, खोदा-पीटा, छेदा,
बांटा, अपनाया-ठुकराया,
जिस दिन ढह जाएंगी हम
उस दिन सब ठप्प हो जाएगा तुम्हारा।
क्या और कितना कुछ सहती हैं
धूप, बारिश और सर्दी
बस इसी सहने की ताक़त की वजह से
और बेअसर समझ लिया सबने,
रौंदे जाते हैं बेसबब
किसी युद्ध में हो रहे हमले से
और चीख़ तक सुनाई नहीं देती हमारी
किसी के कानों तक।