बिन पते की चिट्ठियां
बिन पते की चिट्ठियां
था बहुत कुछ मुठ्ठियों में बंद यूँ,
क्यों सुनू गर तुमने सहेजा नहीं।
मन के धागे खुल गए कागज़ पे,
पर पत्र मैंने ही तुम्हे भेजा नहीँ।।
प्रेम का प्रतिदान कैसे मांगती,
माँगने का ढँग कभी सीखा नहीँ।
देती आई नेह का बलिदान ही
चिट्ठियों को बस तुम्हें भेजा नहीँ।।
अनकहे अल्फ़ाज़ आँखों ने कहे,
बोलते जज़्बात,आँसू में बहे।
पर दुआ के राह से न माँ हटी,
तूझको कोसने का कलेजा नहीx।
याद आये गर कभी कुछ लोरियाँ,
घर का आँगन नीम की निम्बोलियाँ।
होगी तकिये के तले कुछ सिसकियाँ
माँ की बेटे को लिखी कुछ चिट्ठियां।