चाहना
चाहना
जीवन में
घटती बढ़ती रिक्तियां
पोरस कर चुकी हैं अन्तस्
वह बस भावनाओं का ज्वार
जज्ब करता ही रहता है
फिर भी कुछ थमता भी नहीं
निचुड़ जाता है
वास्तविकता द्वारा लगातार
निचोड़े जाने पर।
इस अंतहीन
प्रयास की सूचियों मे
अदृश्य दिशा में प्रत्यंचा
चढ़ा कर उम्मीदों की
साधना चाहता है मन
कुछ कुछ दूरी पर खड़े लक्ष्य
बंजर और नश्वर उपलब्धियों के
जहां निरंतर आभास होता रहता है
कि साथ गूंजती शाबाशियाँ
और आलोचनाये शोर मचाते हुए
अंततः खो ही जानी है
सूदूर व्योम में
अंतिम सत्य सी।
इन्ही सब
काग चेष्टाओं मे
पाषाण हो जाना
संभवतः नियति नहीं मगर
स्वीकृत कर चुके हैं हम
जाने अनजाने भागते रुकते।
पर अब बस इतना ही
विराम देकर सभी आकांक्षाओं
और अनगिनत मरीचिका सी संभावनाओं को
उतरना चाहा है उस एक मात्र
विराट विस्तृत असीम में
सम्पूर्ण चेतना के साथ।
परन्तु पोरस,
पाषाण सी नहीं
किसी खाली
अक्षय पात्र की तरह
अंतिम बार।