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Dayasagar Dharua

Abstract Tragedy

4.9  

Dayasagar Dharua

Abstract Tragedy

चूभन

चूभन

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चुभता तो है

दिल के किसी कोने मे

धड़कनों को रोकता हुआ

साँसों मे वजन डालता हुआ

चुभता है

लकीरों को पढ़कर

किसी और की किस्मत की

और उसी किस्मत की लकीरों को

तौल कर

अपनी किस्मत की लकीरों के साथ

जहाँ सिर्फ अपनी ही लकीरें

घुटने टेक देते हैं

उन लकीरों के सामने

चुभता है

जब चुभने को

एक दाना नहीं मिल रहा होता

पानी मे भिगोया कपड़ा

पेट मे डाल कर

दो चार दिनों से

कटोरे मे रखा बासी चावल

खाकर गुजारा करना होता है

वहीं दूसरी ओर

बर्तनों के भाव

खाना फेंके जा रहे होते हैं

चुभता है

जब नौकरी केलिए

दरबदर भटकते फिरते हैं

एक कागज का टुकड़ा हाथ लिये

जिसे हमने

अपनी और अपनी माँ बाप की

कमाई जोड़कर कमाया था

बस कुछ हरी पत्तीयाँ

जमा करने थे

जो बूढी माँ की दबा दारू मे

खर्च हो गये

और हर बार की तरह

मेहनत हम करते हैं

पर नौकरी किसी और के हिस्से

में चली जाती

चुभता है

चुभता तो है।


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