ग़ज़ल
ग़ज़ल
हँसती खेलती जिंदगी को,जानकर गुनहगार बना रहे हो।
अपने मद में चूर होकर,रिश्तों की अहमियत भुला रहे हो।।
झूठी तसल्लियों के तुम ऊँचे- ऊँचे पहाड़ सजा रहे हो।
अंदर से ख़ाली,ऊपर से खोखली हंसी के नाका़ब चढ़ा रहे हो।।
चंद लम्हों की खुशियों के लिए, पुराने दोस्तों से फ़ासिला बना रहे हो।
हार हैं लाज़िमी, फ़िर भी धोख़ा ख़ुद से किये जा रहे हो।।
नमक से रिश्तें के लिए, खुदगर्ज़ी की हदें पार कर रहे हो।
सामने हैं दरिया और तुम ख़ारे सागर को तलाश रहे हो।।
सरफिरे हो चले हो, गर्द-ए-अना की गर्दिश में गोते खा रहे हो।
नादाँ बने हर वक़्त,अपने ज़ुरम के साये में घिरते जा रहे हो।।