मैंने देखा..!!
मैंने देखा..!!
मैं गिरी, उठी चली और फ़िर गिर के उठी
और इस गिरने और उठने के बीच में
न जाने कितनी बार मरी.....
तभी गिरने और उठने के बीच में,
मैंने देखें.....
वो आसमां में टूटते तारों को
कभी आधा तो कभी पूरा होते चाँद को
वो गहरी उदासी में लिपटी रात को
वो परिंदों का बोलते- बोलते
चुप हो जाना को l
मैंने देखा.....
शाखों से गिरते पत्तों को
सूरज की किरणों के धरती पे बिखरते ही
ओस की बूँदों अस्तित्व मिटने को
ख़ुशबू का फूलों से
जुदा हो जाना को l
मैंने देखा....
समुद्र से उठती,
लहरों का एका एक शांत होने को
नदी के दोनों किनारों का
न कभी मिलने को
झरने की गिरती आवाज़ का
शून्य में विलीन हो जाना को....!!