कैसे उस बिन यार रहूँ
कैसे उस बिन यार रहूँ
वह जीवन वह ही है धड़कन
बोलो कितनी बार कहूँ
यह चुप्पी इतनी खामोशी
कैसे मैं स्वीकार रहूँ
पल छिन उस बिन रहा न जाता
क्या कह दूं कुछ कहा न जाता
मन मसोस कर रह जाता हूँ कैसे कितना यार सहूँ
सहन शक्ति की भी सीमा है
बिन उसके कबतक जीना है
दया करो इतना बतला दो
कैसे उस बिन यार रहूँ
सच और झूठ की उलझन ऐसी
पहले ऐसी थी, अब वैसी
मनमाने का चलन यहां पर
किससे मन की बात कहूँ
मैं कवि हूँ कविता करता हूँ
भाव ग्रहण करता रहता हूँ
समझ सकें सब मेरे मन की
कौन सी ऐसी बात कहूं।