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किराए का मकान

किराए का मकान

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रोज़ सुबह

इस मकान से बाहर

क़दम रखने से पहले ही

चौखट टोक देती है

कम से कम आज तो एक घर कमा के ही लौटना!

कब तक हमें यूँ ही कुचलते रहोगे?

अपना घर बना लो

फिर चाहे कुचलो या मसलो

चाहे थक के आराम ही करो

हमें उससे क्या!

बस इतना याद रखो!

रोज़-रोज़ हमें तुम्हारी

ये किराए की शक्ल अच्छी नहीं लगती

और रोज़ शाम

इस मकान में घुसते ही

दहलीज़ ताना मारती है

क्या हुआ?

आज फिर ख़ाली हाथ लौट आए?

कुछ तो शर्म करो!

कहीं डूब के मर क्यों नहीं जाते?

रोज़ चले आते हो मुँह उठाए!

ख़ाला का घर नहीं है ये

जल्दी से जल्दी अपना बोरिया-बिस्तर बाँधो

और अपना रास्ता नापो, हाँ

ये मकान

जिसमें सिर्फ़ अपना जिस्म रहता है

बुरा नहीं मानता

किसी भी बात का

न चौखट के टोकने का

न दहलीज़ के ताने का

क्यूँकि इस जिस्म के अन्दर

जो छुपा हुआ ‘मैं’ है

वो तो इस मकान में घुसा ही नहीं

वो तो उसी दिन से इस मकान के बाहर

मुँह फुलाए नाराज़ बैठा है

जिस दिन मैंने

कुछ समझौते कर लिए थे

अपनी मुस्कुराहटों से

अपनी जेबों से

जिस दिन मैंने

अपने होंटों को समझाया था

कि बुरा न मानना

अगर किसी दिन

जेब ख़ाली रह जाए

तो भी मुस्कुरा देना

मेरे लिए न सही

इस समझौते के लिए ही सही

होंठ मेरी बात मानते हैं

वो समझते हैं

कभी तो ये आदमी

अपना उधार चुकाएगा

कभी तो ये आदमी

इस मकान को घर बनाएगा

और हम तो इसके मुँह पे बैठे हैं

हमसे बचके ये कहाँ जाएगा?

मगर क़दम कभी-कभी डगमगा जाते हैं

इस मकान में आने से कतरा जाते हैं

कहते हैं, पहले इसकी ज़मीन अपनी करो

पहले इसकी दीवार अपनी करो

पहले मकान मालिक के पास जाओ

पहले इजाज़त लेके आओ

कि बच्चा जहाँ चाहे पेन्सिल चला सकता है

मैं सबको बहला-फुसला के रखता हूँ

मैं इनकी बग़ावत से डरता हूँ

कहीं किसी रोज़

ये सब मिलके

ये घर ही न फूँक दें

कहीं किसी रोज़

ये सब मुझे

अकेला न छोड़ दें

कि, रहो तुम बेग़ैरतों की तरह

पराए के घर में

किराए के घर में

मैं सबको माँ की तरह

लोरी सुनाके सुला देता हूँ

कि ये जिस्म

ये जान

ये सब तो पराए का है

ये सब भी तो किराए का है

मैं क्या करूँगा

सब कुछ जुटा के?

मैं कहाँ ले जाऊँगा

इस मकान को घर बना के?


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