कसक
कसक
हाथ की लकीरों का,
हिसाब दूँ मैं किस तरह,
खुद को अपनी जीत का,
खिताब दूँ मैं किस तरह।
सराहा मुझे,
जिन हाथों ने,
पाला पोसा बड़ा किया,
अपनी इक हसरत के लिए,
दिल उनका मैंने रुला दिया।
वो चमन मेरा अपना था,
जो छोड़ कर मैं बढ़ चली,
गुड़िया, बचपन, किलकारियाँ,
और अपने बाबुल की गली।
वो मुस्कुरा के फिर भी मुझे,
दुआ सदा ही देते हैं,
मेरी हर ज़िद्द और नादानी को,
भुला सदा ही देते हैं।
उन्हें इत्मिनान है ये जान कर,
के जी रही हूँ ख्वाब मैं,
हमसफ़र जो साथ है,
तो गा रही हूँ आज मैं।
नम छोड़ी थीं जो आँखें मैंने,
ये कह की मैं मजबूर हूँ,
मैं जिस नज़र का नूर थीं,
आज उस नज़र से दूर हूँ,
मैं जिस नज़र का नूर थीं,
आज उस नज़र से दूर हूँ।