पागल मन
पागल मन
थाम -थाम अपने ''मन के पागल'' घोड़े को ,
सरपट दौड़ा जाता है ,हाथ से फिसल जाता है।
कभी भावुक हो ,प्रेम की 'रौ' में बहता जाता है।
कभी रिश्ते की टेढ़ी चाल, समझ नहीं पाता है।
कभी दाना कोई भी डाले वफादार हो जाता है।
कभी लगाम जो ढीली छोड़ी ,बहक ही जाता है।
कई' विकारों 'को संग ले ,आगे बढ़ता जाता है।
कभी ,कहीं, इधर-उधर,परवानों सा भटकता है।
मैं रहा सवार उस पर,वो अपनी धुन में जाता है।
कसी लगाम! जो उस घोड़े की , हिनहिनाता है।
आभास हुआ जो तनिक उसे, सीधा चला जाता है।
वैराग्य हुआ जब उसको ,अज़नबी सा बन जाता है।