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फागुनी रंग

फागुनी रंग

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मौसम ने फागुनी रंग बरसाया

जगती का तन मन हरषाया

धरा ने ओढ़ी सुनहरी चूनर

नभ भी जोगी बनकर आया


बहकी बहकी पवन चली 

तन मन में नव उंमग जगी

धूप में रश्मि चहकती

जगमग हरियाली महक उठी


दुलारे लगने लगे ऋतु के नजारे

नदी के साथ चलते जैसे किनारे

फागुन में खिलने लगे दरख़्त

प्रकृति भी पुनः रूप निखारे


सांझ रक्तिम आभा लिए आई

हर पल कुछ नया गुनगुनाई

रंग बिरंगी बयार बहने लगी

सोच सोच कर आंखें भर आई


अमलतास सिदुरी रंग बिखराये

गुड़हल अपना रंग महकाए

भंवरो को गुंजायमान होते देख

तितली उड उड कर नृत्य दिखाएं


रंग अब अंग अंग महकने लगे

चेहरे भी अब रंग बदलने लगे

खत्म हुई पतझड़ की शिकायत

हसरतों के पंख भी पनपने लगे


नवयौवना के रुखसार को देखकर

प्रकृति नित नयी छटा रोज बिखराएं

नभचर कलरव करते मधुर गान सुनाएं

देख देख फागुन मन ही मन मुस्कराए।


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