ये कैसा दस्तूर है ?
ये कैसा दस्तूर है ?
ये कैसा दस्तूर है? खुद को हार कर जीतना पड़ता है,
दुनिया तेरा जवाब नहीं, हँसना भी है तो, रोना पड़ता है।
कहते हैं, चार दिन की है ज़िन्दगी, प्यार में गुजार दो,
दो पल के प्यार को, फिर क्यों उम्र भर तरसना पड़ता है।
ये कैसा दस्तूर है? खुद को हार कर जीतना पड़ता है…..
झुक गए तो कमज़ोर, और तन गए तो कठोर कहते है,
बीते हुए को दौर, और अपने सलीके को, तौर कहते हैं।
लोग बड़े अजीब हैं, हर शह से खुद को, बेहतर कहते हैं,
ये कैसा दस्तूर है? खुद को मिटा, औरों सा होना पड़ता है।
ये कैसा दस्तूर है? खुद को हार कर जीतना पड़ता है…..
दिल और दिमाग की जंग में, रिश्ते भी अक्सर हार जाते हैं,
ज़ुबाँ की चोट से, जाने कितने अपने, पराये में ढल जाते हैं।
लोग बड़े अजीब है, खुद को, खुदा किये बैठे हैं संसार में,
ये कैसा दस्तूर है ? जीने के लिए, रोज़ थोड़ा मरना पड़ता है।
ये कैसा दस्तूर है ? खुद को हार कर जीतना पड़ता है…..