आलेख
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इण्टरमीडिएट पढ़ाई के दौरान मेरे लिखने के शौक को देखते हुए तत्कालीन हिन्दी शिक्षक ने खूँटा , कमल और जूता पर ललित निबन्ध लिखने को कहा था। यह फरमाइशी लेखन था। इसके अलावा राजबहादुर मालवीय पर तत्कालीन चौकी इंचार्ज बरही उत्तर प्रदेश पुलिस की कर्त्तव्यनिष्ठा पर एक ललित निबन्ध लिखकर वहाँ के शिक्षकों और प्रधानाचार्य को दिखलाया था और बरही इंटर कॉलेज के तत्कालीन शिक्षकों से प्रशंसा भी पायी थी। तत्कालीन प्रधानाचार्य राजबहादुर राय जी चौकी इंचार्ज पर लिखे गये निबन्ध से बेहद प्रभावित हुए थे। कमल पर परिवार से मार्गदर्शन लेकर लिखा था, उसमें शास्त्रीयता थी। खूँटा विषय पर निबन्ध हिन्दी शिक्षक रामानंद राय जी और अंग्रेजी शिक्षक श्रीनिवास राय जी को बहुत पसन्द आया था। अफ़सोस है कि मैं उनका कभी संग्रह नहीं कर सका। स्मृति के आधार पुनः अब उन निबन्धों को जीवन्त कर रहा हूँ।
जूता, संस्कृत में पदत्राण है और वह पुलिंगवत् प्रयुक्त होता है; जूता पैरों की सुरक्षा के लिए या शोभा बढ़ाने के लिए पैरों में पहना जाने वाला प्लास्टिक का या चमड़े का या कपड़े का पहनावा होता है। जूता चाहे जितना नया हो, चाहे जितना कीमती हो, फटा-पुराना हो या चाहे जितना सस्ता हो; जूते की महत्ता पहनने वाले के व्यक्तित्व पर निर्भर रहती है। जूता अनेक मुहावरों के रूप में भी प्रयुक्त होता है यथा--जूता उठाना, जूता चलना, जूता खाना या जूता मारना आदि। इन मुहावरों के अलग-अलग सन्दर्भ और अर्थ होते हैं। आप सभी पढे-लिखे हैं,सामाजिक अनुभव रखते हैं,समय और अवसर के अनुसार आप इसका सन्दर्भ और अर्थ ग्रहण कर सकते हैं। :जूतमपैजार', जूती-पैज़ार , 'जूताख़ोर' या "जूताछिपाई / जूताचुराई" जैसे शब्द भी समाज में प्रचलित हैं। 'जूताछिपाई" का सम्बन्ध तो केवल दूल्हे की धर्मपत्नी की बहनों अर्थात् सालियों से होता है,कोई भी साली बारात विदाई के समय अपने जीजा का जूता छिपा कर मनचाहा 'नेग' लेती है; जूताछिपाई (जूताचुराई) के लिए वास्तविक "नेगी" दूल्हे की साली ही होती है। जूताछिपाई का सम्बन्ध ब्राह्मह्मविवाह में ही सम्भव है, जूताछिपाई प्रेमविवाह (लव-मैरिज) या अन्य किसी अवसर पर सम्भव नहीं है। यह सुख जिन दूल्हों (जिस वर) को मिला है, वे बड़भागी भी होते हैं और वे इसे अच्छी तरह समझ सकते हैं। वे सालियाँ भी काफ़ी प्रसन्न होती हैं, जो जूता छिपा / चुरा कर मन चाहा नेग हथिया लेती हैं,पर कंजूस जीजा वाली सालियों का चेहरा उतरते भी देखा गया है। मेरे विवाह के समय यह स्नेहिल शुल्क कम से कम 100/- और अधिकतम 500/- तक ही था । बेरोज़गार जीजाओं को जीवन भर उलाहना भी सुनने को मिलता है, वह यातना भरा क्षण होता है। बड़ी सालियाँ बेरोजगार दूल्हों पर कृपा करती हुई भी देखी जाती रही हैं। दूल्हा बेरोजगार हो और सालियाँ उम्र में छोटी हों, वह क्षण थोड़ा कष्टदायी होता है। कल्पना कीजिए मैं अपने विवाह के समय स्नातक में पढ़ रहा था और मेरी सालियाँ उम्र में आठ से 10 साल तक छोटी थीं। मध्यमवर्गीय परिवारों में आज से 25-30-35-40 वर्ष पूर्व तक जूता छिपाई / जूता चुराई के लिए सालियों (सढुआइनों) के नेग का शुल्क 100-50 /- तक ही सीमित रहता था लेकिन अब तो 1000/- 1500/- से लेकर 5000/- 10,000/ तक चल रहा है और कहीं-कहीं तो अब यह रस्म डोली या अन्य पारम्परिक प्रथाओं की तरह समाप्ति की ओर भी है। जूता का स्त्रीलिंग जूती शब्द भी चलन मे है, यह जनाना जूती कहा जाता है। जूती-पैज़ार भी अधिक चलन मे है। एक मुहावरा है -जूतियाँ चटकाना, जूतियों मे दाल बाँटना आदि।
आइए जूतम-पैज़ार / जूती-पैज़ार और जूताखोरों पर कुछ चर्चा कर लेते हैं--
बहुधा सदनों मे माननीयों द्वारा आपस मे जूती-पैज़ार करते हुए देखा-सुना जाता रहा है । जनप्रतिनिधियों द्वारा भी परस्पर जूती-पैज़ार करते हुए देखा-सुना गया है।
समाज में भी और गाँवों में भी यदा-कदा सामान्य या विशिष्ट लोगों द्वारा आपस मे बहुत बार जूती-पैज़ार करते हुए देखा-सुना गया है। जूते चाटना मुहावरे का प्रयोग भी लोग करते हुए देखे जाते हैं। जूते चाटना भी बहुत बड़ा कौशल होता है। इसमें कुछ लोग तो बहुत पारंगत होते हैं, इस कुशलता से वे बढ़िया मुकाम भी हासिल कर लेते हैं। जूती-पैज़ार का मतलब होता है आपस मे जूते-चप्पल द्वारा मार-पीट या अत्यंत घिनौने/अनुचित शब्दों का एक दूसरे के प्रति प्रयोग करते हुए लड़ाई या झगड़ा। समाज में बहुतेरे जूताखोर भी होते हैं, हमारे आपके आसपास भी बहुत से जूताखोर होंगे,जिनके जीवन का ध्येय केवल विवाद करना या कराना, विवाद बढ़ाना या केवल येन-केन प्रकारेण हद दर्जे तक नीचे उतरकर लाभ पाना या अपना गर्हित स्वार्थ सिद्ध करते हुए बेशर्मी पर उतरकर जूता खाना भी होता है, जूताख़ोर गैरत या ज़मीर या स्वाभिमान जैसे शब्दों से जीवन में सर्वथा अपरिचित रहते हैं, उनको सम्मान / स्वाभिमान के लिए कभी भी मर-मिटते हुए नहीं देखा गया है।