Shashibindu Mishra

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लाठी-लबदा के बहाने -संस्मरण

लाठी-लबदा के बहाने -संस्मरण

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'लाठी-लबदा के बहाने,

पर पुराने विचारशील लोग' --

(एक संस्मरणात्मक शब्दचित्र)


लाठी और लबदा में थोड़ा- सा फर्क है, लाठी को तो लोग लट्ठ भी कह दिया करते हैं और कुशलता से लट्ठ चलाने वाले को लट्ठबाज़ या लठैत कहा जाता है। पहले के लठैत बहुधा पहलवान भी होते थे, हालाँकि यह ज़रूरी नहीं होता था,कि प्रत्येक लठैत पहलवान ही हो । सामान्यतः गाँवों में (ख़ास तौर पर भोजपुरी अञ्चल के गाँवों में) हर गृहस्थ के घर पर एक-दो लाठी या लबदा जरूर होता था।

जब से लाठी के साथ 'चार्ज' शब्द जुड़कर 'लाठीचार्ज' समस्तपद बना, तब से लाठी की पारम्परिक महत्ता जाती रही। बचपन में मैं यह भी देखता था , कि गांवों में किसी अशोभनीय घटना के घटने पर जब पुलिस को सूचना जाती, तो पुलिस विभाग के निर्देश पर चौकीदार कंधे पर लाल साफ़ा और छः - सात फ़ीट की लाठी रखे आता था,उस युग और उस लाठी का कमाल होता कि अपराधी सकते में होते थे या गांव छोड़कर सरेह पकड़ते थे। वह लाठी भी खूब थी। अब तो अपराधी और चौराहों के छुटभैय्ए नेता चौराहों पर और बाजारों में पुलिस से खुलेआम हाथ मिलाते हैं, तब चौकीदारों की लाठी से डरते थे। आज़ादी के बाद तमाम-तमाम सड़क छाप नेताओं की हमारे लोकतंत्र में एक यह भी अशोभन उपलब्धि रही है, जिससे चौकीदारों के लाठी की हनक जाती रही और साथ में पुलिस की छवि भी। बहरहाल हमारे आलेख का यह अभिप्रेत नहीं है।

 यद्यपि मैं कभी लाठी या लबदा लेकर चला नहीं हूं, कभी लाठी का शौकीन भी नहीं रहा हूं। मैंने बचपन में अपने परिवार में एकाध बार देखा, गांव में सुघर लाठी लेकर चलने वाले से यदि परिवार के किसी ने कहा कि -'तुहार लाठी बहुत ठीक लगत बाs, एके हमके दे दs ,लोग खुशी- खुशी दे दिये, इस क्रम में अपने बाबा के दीक्षा शिष्य स्वर्गीय रामजस यादव द्वारा ख़ूब गढ़ी- बनायी गयी और पसंद आने पर उनसे प्राप्त लाठी आज भी थाती के रूप में मेरे पास सुरक्षित है, यद्यपि उसकी रञ्चमात्र भी मेरे लिए या परिवार के लिए कोई उपयोगिता नहीं है, फिर भी चूंकि वह चीज़ श्रद्धा से प्राप्त थी, अतः हम उसे न फेंक सकते हैं और न किसी को दे ही सकते हैं,जब तक कि हम रहेंगे, शायद दिवंगत आत्माओं को आघात लगेगा। पुराने समय में जब किसी हथियार का विकास नहीं हुआ था, तो अनिवार्य रूप से हर गृहस्थ के घर पर एक- दो लाठी या लबदा जरूर होता था, भले ही सभी लोग लेकर लाठी या लबदा लेकर न चलते रहे हों। इस लाठी या लबदा से दबदबा कायम रहता था और पुराने समय में जब दीवारों में सेंध कटती या गाय-बैल-भैंस की अधिक चोरी होती थी, तो यदा-कदा गाँव के वीर लठैत चोरों-डाकुओं की मरम्मत भी करते थे।

उस ज़माने में लोगों के लिए लाठी या लबदा की बहुत महत्ता / उपयोगिता रहती थी। किसी अनगढ़ / बेडौल और मोटे डण्डे को लोग लबदा कहते थे। लबदा के मुकाबले लाठी थोड़ा-सा शिष्ट शब्द है, लेकिन लबदा में देहातीपन है, लबदा शब्द से कुछ अधिक ही वीर रस का बोध होता है। एक वाकया याद आ रहा है, जब बैलों से खेती किसानी होती थी,उस समय मेरे गाँव रानापार के ही हमारे एक हलवाहे / दुअरहा थे 'रामा' , वह बोलचाल में कभी लाठी शब्द का प्रयोग नहीं करते थे,केवल लबदा बोलते। मसलन , जब खेत में अगहन-पूस के महीनों में खेत की सिंचाई के लिए खेत में लगे 'पम्पिंगसेट' की रखवाली करने रात में जाते,तो पिता जी की किसी हिदायत पर जवाब देते,कि मालिक ! 'एक्को जनी चोर जो नियरा गइलेंs, तs दुइये लबदा में ढाहि देबs ।" लबदा बोलते हुए उनका चेहरा वीरत्व से दपदपा जाता। अब तो रामा नहीं है और उनके जैसे लोग नहीं हैं, वह भी क्या समय था ? लाठी सामान्यतः छः या सात फ़ीट लम्बी होती है ,उस ज़माने में लोग अपने शरीर की तरह ही लाठी को स्वस्थ और सुंदर रखना चाहते थे, लोग लाठी को सजाने -सँवारने के लिए महीने भर या पन्द्रह दिन का समय खर्च करते थे, काट -छांँट कर लाठी तैयार हो जाने के बाद उसे हफ़्ते -दस दिन तक खाँटी दूध या सरसों के तेल में डुबोकर लाठी को मजबूती प्रदान करते थे। लाठी लोगों के लिए गौरव का विषय थी। भोजपुरी के सिद्ध हस्ताक्षर कविवर रवीन्द्र श्रीवास्तव उर्फ जुगानी भाई कहते हैं कि --" गांव में बिना लाठी के केहू निकरि नाई पाई, किसिम-किसिम के कुक्कुर बांटे हां लबदा तनी ढेर करकस आ वीर रस की बोली ह।"

बचपन में मैंने कटसिकरा , न्योढ़ी ,भकुरहा, गोपालापुर ,बौठा के अनेक सज्जनों पर पहलवान लोगों को सात फ़ीट वाली लाठी की शोभा बढ़ाते हुए देखा है, उनकी चर्चा फिर कभी। लट्ठबाजों का एक यह भी वैशिष्ट्य था, लाठी या लबदा से मारपीट के दौरान प्रतिद्वंद्वी लठैत यदि गिर जाता, तो उस पर प्रहार करना लोग धर्म विरुद्ध कार्य समझते थे। 55-60 वर्ष पहले की बात है कि मेरे गांव रानापार की शुक्रवारी बाजार में 10-5 वर्ष के अन्तराल में दो-तीन बार हजारों की संख्या में पचासों गाँव के कुशल लठैत एकत्र हुए थे। एक बार तो भयंकर मारपीट हुई और दुष्कर मामले का पटाक्षेप हो गया था तथा दूसरी बार बाबू रामनरेश सिंह (बरही स्टेट) की दूरदर्शिता से मारपीट नहीं हो सकी और मामला शांत हो गया था। तीसरी बार सैकड़ों लठैतों का पी. ए. सी. के जवानों से मुकाबला हुआ था, भीषण बाढ़ आयी थी , उस घटना क्रम की पूरी चर्चा यहाँ पर अनपेक्षित है। उक्त घटना पर क्षेत्र के अति प्रतिष्ठित विद्वान् कवि पं. गणेश दत्त मिश्र 'मदनेश' की एक कविता का जिक्र आज भी पुराने लोग करते हैं --

"मोटी लाठी , मोटी देह , क्यों बाढ़ की धारा में गये हो कूद । हे ...........!

डर कर गये हो भाग, मुकाबले से क्यों आंँखें लिये हो मूंँद ? हे ............!

 चूंँकि मेरे गाँव में बहुसंख्य यदुकुल के लोग हैं, अतः बचपन में अपने गांँव में जिन लोगों को सज-धज कर सफ़ेद कुर्ता-धोती और सिर पर सफ़ेद साफ़ा से युक्त हो कर सात फ़ीट की लाठी लेकर चलते हुए देखा है, उनमें सर्वप्रमुख स्वर्गीय रामजस यादव, बृजलाल यादव , नाथे शिरवार (रामनाथ यादव) , रामस्वरूप कोहार उर्फ सरूप, स्वर्गीय रामनाथ यादव उर्फ नथई यादव, स्वर्गीय रामहरख यादव, स्वर्गीय छविलाल यादव , स्वर्गीय लक्ष्मी दुबे (स्वर्गीय राजधारी दुबे उर्फ कोतवाल बाबा के सगे बड़े भाई) , स्वर्गीय बुझावन यादव, श्री समझावन यादव , स्वर्गीय बृजनाथ यादव उर्फ राही' एवं बाद में श्री रामसकल यादव एवं पहलवान शम्भू नाथ यादव आदि । इधर 20-25 वर्षों से लाठी लेकर चलने की परम्परा लगभग समाप्त प्राय है। यहाँ तक कि भैंस या गाय चराने वाले भी हल्का- फुल्का डण्डा लेकर जाते हैं,वह भी पुरानी पीढ़ी के लोग।

रानापार के सामान्य कद-काठी के पर शरीर से काफी बलिष्ठ स्वर्गीय बृजलाल यादव के बारे में लोग बताते हैं, कि वे इतने सफल और कुशल लठैत थे कि 10-15 लाठियों से युक्त ताकतवर लोगों से घिरे होने के बावजूद भी वह अकेले सबको मारकर दूसरे गांवों से सुरक्षित अपने गाँव निकल आते थे, यद्यपि बृजलाल यादव बहुत बड़े पहलवान नहीं थे, लेकिन वे लठैत बहुत अच्छे थे, वे विद्युत गति से बहुत कलात्मक ढंग से लाठी चलाते थे, ताज्जुब यह कि बृजलाल विचारशील और सज्जन भी बहुत थे, किसी को अनावश्यक छेड़ा नहीं, लेकिन बात जब गाँव और बिरादरी की प्रतिष्ठा पर आई, तो किसी को भी छोड़ा नहीं।

मैंने अपने पिता जी से एक दिन पूछा था, कि आपने बचपन में अर्थात् 1950-1960 से पहले या उस समय तक लाठी की शोभा से युक्त होकर चलने वालों में पूरे क्षेत्र में किन-किन न्यायप्रिय और विचारशील लोगों को देखा है, तो उन्होंने बहुत ही आदर से 4-5 नाम लेते हुए बताया कि बौठा के स्वर्गीय राजमंगल यादव , बैरवाँ के स्वर्गीय महाबल यादव , सुगहा के पहलवान स्वर्गीय रामलगन यादव और मिश्रौलिया के पहलवान स्वर्गीय त्रिलोकी यादव, खैरखूटा के पहलवान स्वर्गीय गामा-श्यामा यादव और पहलवान स्वर्गीय शिवनन्दन यादव तथा इनके कुछ वर्षों बाद भकुरहा के स्वर्गीय अनार यादव आदि थे । सिर पर बड़ी सी पगड़ी और धोती- कुर्ता से लकदक छः - साढे़ फ़ीट लम्बा-तगड़ा शरीर, एक दम गोरा बदन, शेर की तरह उभरा हुआ वक्षस्थल, उसके साथ सात फ़ीट की लाठी, उन लोगों का यह शारीरिक सौष्ठव और सौंदर्य देखते ही बनता था, रास्ते में चलते हुए लोग- बाग एक बार रुक कर इन्हें देखते ही थे। यहाँ तक कि बरही स्टेट में किसी भी अवसर पर इनके बगैर हर कार्यक्रम सूना माना जाता था। मैं कह सकता हूं कि, चाहे जो कुछ भी हो, वे लाठी वाले बड़े अच्छे लोग थे। हाँ ,उस ज़माने में कुछ लठैत अपराध भी करते थे, मैं उनकी बात नहीं कर रहा और न तो उस युग के ऐसे किसी का नाम लेने की मैंने कोशिश ही की है। अनपढ़ और गरीब होकर भी वे लोग सुंदर विचारों और धर्म की बात को सुनने- समझने और उस पर चलने के हिमायती थे, वे जातीय संकीर्णताओं / दुर्बलताओं से मुक्त थे, अन्यायी कोई भी हो, उसका प्रतिकार करने की हिम्मत रखते थे। उनका हृदय प्रेम से भरा हुआ था, अतः मेरी दृष्टि में वे सही मायने में समृद्ध लोग थे। प्रेम से भरा हुआ हृदय वाला ही वास्तविक रूप में समृद्ध होता है,अन्य किसी सम्पदा पर ऐंठने वाला मूर्ख या अहंकारी हो सकता है । वे लोग आज यदि होते और सम्पन्न होते, तो चौराहों पर लग़्जरी गाड़ियों में सवार होकर 'राइफल्स' के साथ इतराते नहीं और न तो अन्यायियों के पक्ष में चौकी या थाने पर गोल बांँध कर हुड़दंग मचाते, जैसे कि आजकल कुछ पतित गोलबंद हो कर बिरादरी और अपराधियों के पक्ष में चौकी / थाने पर हुड़दंग मचाने की कोशिश करते हैं और अपनी मूर्खता पूर्ण ताकत के प्रदर्शन की धृष्टता करते रहते हैं। खैर, वह समय कुछ और था, अभाव में भी लोगों का सुभाव उन्नत था। अब तो लोगों के पास सम्पन्नता खूब आई है, लेकिन जाति के आधार पर राजनीति करने वाले नेताओं ने अपने घृणित स्वार्थ के लिए लोगों का वैचारिक शोषण खूब किया है। नेताओं ने लोगों के दिलोदिमाग में दूषित विचारों का ऐसा ज़हर भरा है कि सामाजिक सद्भाव ही बिगड़ गया है।

इसलिए वे पुराने महानुभाव, जिनकी या जिनके तरह के लोगों की मैंने आदर सहित चर्चाएं की हैं, वे लोग यदा-कदा पं. गणेश दत्त मिश्र 'मदनेश' जैसे विलक्षण धर्मात्मा / विद्वान् / साहित्यकार के पास मन: शान्ति के लिए आते जाते रहते थे। अपने मन की बात कहते-सुनते थे, मार्गदर्शन पाते थे, और छोटी मोटी अपनी गलतियों का सुधार भी कर लेते थे, यथोचित सहयोग और सम्मान पाते थे, क्योंकि वे विचारशील लोग थे, उनमें बहुत कुछ मनुष्यता बची हुई थी। उनका हृदय विशाल था। पुराने ज़माने में मेरे गाँव ही नहीं, अपितु सर्वत्र देहातों में / ख़ास तौर पर भोजपुरी अञ्चल के गाँवों में अनपढ़ और ग़रीबी में भी ऐसे व्यक्तित्व वाले / ऐसे उन्नत चरित्र के लोग होते थे, अपने गाँव के बहाने ही इस रेखाचित्र के द्वारा उन सभी का स्मरण करना हमारा उद्दिष्ट था। 

मेरे जैसे लोगों के लिए वे लोग आदरणीय थे। उन्हें हृदय से नमन। हरि: ॐ



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