Arunima Thakur

Abstract Classics Inspirational

4.5  

Arunima Thakur

Abstract Classics Inspirational

अविस्मरणीय

अविस्मरणीय

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ठंड, बर्फ, मैजिक यह शब्द पढ़ते ही आँखों के आगे पहाड़ घूम गए और पहाड़ के साथ ही उस यात्रा की यादें ताजा हो गयीं। हम दहानू वासियों के लिए ठंड का मतलब 23 डिग्री का तापमान का 19 डिग्री तक पहुँचना, बहुत हुआ तो 17 डिग्री। सुना बहुत था पर मैदानी या पहाड़ी भागों की ठंड से कभी पाला नहीं पड़ा था। छुट्टीयों में एक दिन सभी बहनों के साथ बातों बातों में अमरनाथ यात्रा का कार्यक्रम बनाने की बात हुई। बात बात की बात थी पता नहीं था कि कार्यक्रम बन ही जाएगा। पर वह कहते हैं ना कि जिसको वह बुलाते हैं वहीं पहुँच पाता है। 

बड़ी बहन ने एक समूह यात्रा (ग्रुप ट्रैवल) से संपर्क करके हम चारों बहनों का टिकट अमरनाथ यात्रा के लिए बुक कर दिया। बुकिंग वगैरह के बाद उन्होंने बताया कि फलां फलां तारीख है, चलने की तैयारी कर लो।

मैं हैरान परेशान, दीदी बता तो देती पहले से।

पहले से क्या बताना ? तुम्हारे हामी भरने पर ही तो कार्यक्रम बनाया। 

पर दीदी मैं शिक्षिका हूँ। सत्र के प्रारंभ में ही इतनी लंबी छुट्टियां नहीं मिलेंगीं। आपको दर्शन का कार्यक्रम बनाना ही था तो छुट्टी के समय बनाती। बीच जुलाई में कैसे जाऊँगी?

दीदी अलग नाराज। तुमसे पूछ कर ही तो कार्यक्रम बनाया गया था और वैसे भी यह यात्रा सिर्फ इन्ही दो महीने में होती है। वह भी नसीब वाले हुए तो, नहीं तो खराब मौसम के कारण बंद भी रहती है। खैर पति और बच्चों ने समझाया कि अब प्रोग्राम बन गया है तो जाकर आओ। बहनों के बीच बैठकर हाँ में हाँ मिलना अलग बात थी। दस पंद्रह दिन के लिए पति और बच्चों को छोड़कर जाना अलग बात। एक मन कहता कि ना बोल दो एक मन कहता कि चलो बहनों के साथ फिर इतना अच्छा मौका नहीं मिलेगा।

खैर जुलाई की एक तारीख पर हवाईजहाज से श्रीनगर पहुँचे। वहाँ उतरकर मैंने बहनों का मजाक बनाना शुरू कर दिया, बहुत ठंढ है भाई। वह इसलिए कि वह सब बार-बार मुझे गर्म कपड़ों की पैकिंग करने पर जोर दे रही थी कि वहाँ बहुत ठंढ पड़ती है। मैं सामान्य मुंबई दहानू वाली ठंढ के गर्म कपड़े लाई थी। वैसे भी मुझे ठंढ ज्यादा लगती है, बहने मुझे चिढ़ा रही होगी, यह सोचकर भी ज्यादा कपड़े नहीं लिए। मन में यही था कि जुलाई में भला कहां ठंढ पड़ती है? ठंढ को पड़ना होगा तो नवंबर दिसंबर में पड़ेगी। पति और बच्चों को छोड़कर जाने की चिंता में इतनी जानकारी भी नही जुटाई थी किसी से। वैसे भी तब मोबाइल फोन इतना आम नहीं था ना ही आज की तरह गूगल बाबा से हम सब इतने परिचित थे कि वहॉं के बारे में ज्यादा जानकारी होती। 

हाँ तो श्रीनगर में मौसम सामान्य था। हम समुद्री हवाओं की नमी वाले इलाके वालों के लिए मौसम थोड़ा गर्म था। हम होटल में गए आराम किया। (बहुत साल पहले की बात है इसलिए बहुत सारी बातें याद नही। जो मुख्य मुख्य बातें थी वही याद रह गईं है) दूसरे दिन श्री शंकराचार्य मंदिर देखने के लिए गए। मंदिर पहाड़ी पर था। यात्रा संचालक ने गर्म कपड़े लेने के लिए कहा। सबने लिए भी पर मैं ज्यादा समझदार । ठंढ ? ठंढ कहाँ है ? पहाड़ी पर पैदल चढ़ना है, ऊपर से गर्म कपड़ों का बोझ, ना बाबा मैं नहीं ले जाऊँगी। कोई ठंढी नहीं है, थकान से पसीना निकलेगा या ठंढ लगेगी ? यह कह कर एक शॉल लेकर निकल पड़ी। हम जैसे-जैसे ऊपर चढ़ रहे थे ठंढ बढ़ती जा रही थी। हमारे यहाँ भी महालक्ष्मी माता का गढ़ है। वहाँ हम सुबह पाँच बजे चढते हैं तब भी इतनी ठंढ नहीं लगती है, यही सोच कर चली थी। पर यहाँ तो ऊपर पहुँचते-पहुँचते मेरे दाँत किटकिटाने लग गए थे। मैं इधर-उधर देख रही थी यह ठंढ आ कहाँ से रही है। 

खैर बहनों के पास अतिरिक्त स्वेटर थे। बड़ी बहन माँ जैसी, वह मेरा थर्मल सूट लेकर आई थी। पहनने के बाद बहुत आराम मिला। हमने मंदिर घूमा और खूबसूरत नजारे देखें। वहाँ से पूरा श्रीनगर, डल झील और बलखाती झेलम नदी का खूबसूरत मनभावन दृश्य दिखता है। नीचे आ कर फिर हम पहलगाम गए। अबकी बार मैंने एक गर्म कोट खरीद लिया था। पहलगाम पहुँचने पर सामने का दृश्य बहुत ही खूबसूरत था। सामने बरफ की चादर बिछी हुई थी। पर ठंढ इतनी ज्यादा नहीं थी। क्या यह बर्फ की गर्मी थी? या लोगों की भीड़ के कारण? मैंने फिर अपना कोट निकाल दिया था। हम सबने बर्फ पहली बार देखी थी। हम सब बच्चों की तरह बर्फ के गोले बनाकर खेल रहे थे। बर्फ में पता नहीं चला पर हमारी उंगलियाँ सिकुड़ गई थी पर अजीब बात है ठंढ का एहसास नहीं हुआ। पर अच्छा बहुत लगा। वहॉं से हम बालटाल के लिए निकल गए।

 बालटाल अमरनाथ यात्रा का पड़ाव स्थल है। हम पहलगाम से भी जा सकते थे पर वह रास्ता लम्बा है और बालटाल से हम हेलीकॉप्टर द्वारा जाने वाले थे। वहाँ जाकर पता चला कि खराब मौसम के कारण एक दिन पहले वाला जत्था भी दर्शन के लिए नहीं जा पाया है। इसलिए वहाँ भीड़ बहुत थी पर सुविधाएं भी उतनी ही अच्छी। अभी तो हमारे दर्शन भी दाँव पर लगे थे। मौसम ठीक नहीं होता तो हमें वहीं से वापस आना पड़ता क्योंकि वापसी की टिकट जो पहले से ही ले रखी थी। बालटाल में भी दूर-दूर तक सिर्फ बर्फ ही दिख रही थी। टेंट भी बर्फ पर ही लगे थे। वहाँ पर दूर-दूर तक टेंट की पूरी नगरी बसी हुई थी। हम आठ लोगों को एक टेंट अलॉट हुआ। हम कुड़कुड़ कर रहे थे कि आठ लोग एक टेंट में कैसे आएंगे? टेंट देखने में भी छोटे लग रहे थे पर अंदर बहुत जगह थी। अंदर चारपाई नहीं थी लकड़ी के तख्ते या जो भी थे उन पर चटाई बिछी थी और कंबल थे। 

अब आगे इंतजार करने के अलावा हमारे पास कोई चारा नहीं था। तो इधर-उधर हम लोग घूमने लग गए। वहाँ पर भी बर्फ थी पर ठंड नहीं थी। आसपास सभी प्रदेशों के खाने के लंगर लगे हुए थे। चाय नाश्ता सब सुविधा बहुत बढ़िया थी और सब कुछ मुफ्त में था। चलते वक्त हमने कुछ श्रद्धा पूर्वक देने की कोशिश भी की थी पर उन्होंने विनम्रता से अस्वीकार कर दिया था। वहॉं हमारी सेवा के जवान मुस्तैदी से जुटे हुए थे। वह भगवान की भाँति हम सभी श्रद्धालु पर्यटकों की रक्षा और देखभाल कर रहे थे। पीने के लिए पानी हल्का गर्म करके दिया जा रहा था। जिसमें लौंग, दालचीनी आदि हर्बल औषधियां पड़ी हुई थी जो हमारे शरीर को गर्म रखने का काम कर रही थीं। अभी तक तो मौसम सामान्य था। अगर सब सामान्य होता तो शायद अब तक हम भी दर्शन करने के लिए निकल गए होते हैं पर अभी शायद कल के यात्री दर्शन प्रारंभ कर चुके थे। यह हमारे लिए अच्छी खबर थी। यह सब बातें सुनते हम इधर उधर घूम कर देख रहे थे।

कुछ श्रद्धालुओं समूह बनाकर भजन गा रहे थे। हम तो पर्यटक ज्यादा थे श्रद्धालु कम पर बाद में देखा देखी श्रद्धा जाग उठी तो हम भी उन्हीं के समूह में शामिल हो गए। वहाँ अलग-अलग, प्रदेशों, भाषाओं के लोगों के भजन सुनने में बहुत ही आनंद आ रहा था इसीलिए एक जगह बैठे रहने के बजाय हम घूम-घूम कर सभी के भजन सुन रहे थे। एक जवान से पूछने पर पता चला कि आज मौसम साफ रहा है तो रास्ता कल हमलोग के दर्शन के लिए खोल दिया जाएगा । अभी कुछ देर बाद कल के श्रद्धालुओं को दर्शन के लिए भेजा जाएगा। हमारा नंबर शायद कल लगेगा। अब हम घूमते घूमते थक गए थे इसीलिए एक समूह के साथ बैठकर भजन गाने लगे। 

रात होने के साथ-साथ जो तापमान गिरना शुरू हुआ तो पूछो मत। धीरे-धीरे हम सब टेंट के अंदर शरण लेने लगे। टेंट के अंदर भी ठंढ लग रही थी तो हम दो बहनें एक ही चटाई पर दो-दो कंबल जोड़कर साथ लेट गयीं। अब टेंट का छोटा होना और एक ही टेंट में ज्यादा लोगों का होना राहत दे रहा था। ठंढ बहुत थी पर रात में हम बहनों के अंदर का घुम्मकड़ी का कीड़ा जाग गया या हम जल्दी सो गए थे इसलिए नींद पूरी हो गई या अति उत्साहित थे इसलिए नींद नहीं आई, अंदर बैठे-बैठे हमने सोचा कि जीवन में यह रात दोबारा ना आएगी। हम कंबल लपेटकर टेंट के बाहर आ गए। 

ऊपर आसमान पर नजर गई तो मानो मोती की थाली उल्टी रखी थी। यह वही आसमान था जो हमने बचपन में देखा था। जो अब बड़ी-बड़ी इमारतों की छोटी-छोटी खिड़कियों से नहीं दिखता या दिखता भी है तो धूमिल दिखता है प्रदूषण के कारण। सामने आकाश में शंकर जी के मस्तक पर विराजित चौथ या पंचमी का चाँद चमक रहा था । आप मानो या न मानो पर हमें तो साक्षात शिवजी के दर्शन हो रहे थे। अंधकार में दूर-दूर तक चमकती सफेद बर्फ से ढके पहाड़, तारे, चाँद और अंधकार मिलकर शिव प्रतिमा बना रहे थे। मैंने अपनी बहनों की ओर देखा कि क्या यह सिर्फ मेरा भ्रम है? पर उनके चेहरे पर भी अलग ही भाव थे। कुछ ऐसे भाव जो हम महसूस कर सकते हैं पर बता नहीं सकते। ठंढ में शायद बातें भी जम जाती हैं। हम बिना बोले उस अलौकिक दृश्य को आत्मसात कर रहे थे।

कुछ देर या बहुत देर बाद आस पास की हलचल पर हमारा ध्यान गया। हम तो वापस अंदर जाकर एक दूसरे को पकड़ कर सोने की सोच रहे थे। आसपास नजर दौड़ाई तो देखा सिर्फ हम ही नहीं बहुत सारे लोग जाग चुके थे। यह लोग क्यों जगे हुए हैं इतनी जल्दी? तब पता चला की सुबह चार बजे से यात्रा प्रारंभ हो जाती है। तो जिनको पैदल निकलना होगा या जिनका नम्बर होगा, वह सभी स्नान ध्यान करके तैयार हो रहे होंगे। हमें कितने बजे निकलना है? हमें नहीं मालूम था। हमारी समूह यात्रा का संचालक आकर बताने वाला था। पता नहीं मन में क्या आया कि इतने सारे लोग हैं एक बार सब उठ जाएंगे फिर नहाने वगैरह में भीड़ बहुत हो जाएगी तो चलो हम लोग भी चल कर अभी नहा लेते हैं। फिर लगा जाने दो चलकर सो जाते हैं, हमें तो हेलीकॉप्टर से जाना है। हम तो दो मिनट में पहुँच जाएंगे। पर फिर सोचा तैयार होकर बैठना बेहतर रहेगा। अब इतनी दूर आए हैं, सुबह-सुबह उठ गए हैं तो चलो थोड़ा मंत्र जाप कर लेते हैं।

 वहाँ पर सारी व्यवस्थाएं बहुत ही अच्छी थी। लोग ठंढे बर्फ जैसे पानी से भी नहा रहे थे। हमने तो पैसे देकर गर्म पानी की एक बाल्टी ली। घर में एक बाल्टी पानी में हम कहाँ नहाते हैं? ना जाने कितना पानी बहाते हैं, पर वहॉं पानी की महत्ता समझ आई और प्रण लिया कि अब कम पानी का प्रयोग करेंगे। उस एक बाल्टी पानी में कुल्ला किया, नहाया सब नित्य कर्म किए। नहाने के बाद ठंड थोड़ी कम लग रही थी। वही दो लोगों को बात करते सुना कि दर्शन तो खुल गए हैं पर हेलीकॉप्टर सेवा बंद कर दी गई है। अब चलते जाना पड़ेगा। हे भगवान! इतनी दूर क्या हम चल पाएंगे ? यही बातें करते हुए टेंट पर आए तो समूह यात्रा का संचालक हमारा ही इंतजार कर रहा था। उसने हमें वही सारी बातें बतायीं। उसको हम कुछ कह भी नहीं सकते थे। वह बोला, आपके पैसे वापस मिल जाएंगे पर अभी नहीं। फिर अभी क्या करें? इतनी दूर हम चलकर तो जा नहीं सकते। उसने घोड़े या पालकी का विकल्प रखा। घोड़े वाले छः हजार ले रहे थे। इतनी तो मेरी आधे महीने की तनख्वाह थी। इतने पैसे तो हम लेकर भी नहीं गए थे। एक अच्छी बात थी वहाँ सभी बैंकों की एटीएम गाड़ियां थी। बड़ी दीदी ने पैसे निकाले। संचालक ने सभी के लिए घोड़े बुक कर दिए थे। यह उसने अच्छा किया था। अगर उसने ऐसा नहीं किया होता तो हमें पैदल जाना पड़ता या वहाँ एक दिन और रुकना पड़ता। चलो अच्छा हुआ, हम सब तैयार थे। जब हम नहाने के लिए गए थे तब उसने समूह के बाकी लोगों को भी नहाने के लिए भेज दिया था, तो थोड़ी देर के अंतराल पर हमारा पूरा समूह यात्रा के लिए तैयार था। 

कल तो हमने ऐसा कुछ अनुभव नहीं किया था पर आज बर्फ पर चलते वक्त हमारे पैर थोड़े-थोड़े फिसल रहे थे। मुझे तो बहुत डर लग रहा था कि अगर इस बर्फ पर चलते जाना पड़ता तो ? उससे ज्यादा डर तो इस बात का लग रहा था कि अगर घोड़े का पैर फिसल गया तो ? घोड़े पर बैठना नहीं था और चलते भी जाना नहीं था । बहुत ही कशमकश थी और इसी उपापोह में चलते हुए हम घोड़े वाले के पास तक आ गए और घोड़े पर बैठकर आगे के लिए निकल गए। आगे जाकर एक चेक पोस्ट जैसी बनी थी। वहाँ हमें घोड़े से उतार दिया गया। वहाँ पर हर एक को अपना कार्ड दिखाकर ही प्रवेश मिल रहा था। एक छोटा सा दरवाजा सा था। जिससे एक बार में एक को ही भेज रहे थे। मैं सोचने लगी कि घोड़े वाले हमें कहाँ मिलेंगे ? मैं घोड़े वाले को कैसे पहचानूंगी ? क्या हमें अभी बहुत दूर पैदल चलना पड़ेगा ? बातों बातों में पता चला की घोड़े वाले और घोड़े को एक अलग रास्ते से प्रवेश दिया जाता है। यह प्रक्रिया इसलिये की जाती है कि यह रिकॉर्ड रहे की कितने लोग, कितने घोड़े और कितने घोड़ेवाले अंदर जा रहे हैं। मुझे थोड़ा अजीब लगा यह क्यों कर रहे हैं? बहन बोली, "अगर कुछ अकस्मात होता है तो पता चलता है कि कौन-कौन लोग अंदर गए थे। कितने लोग बाहर निकले और कितने लोग फँसे हुए हैं।" मैं सिहर उठी अकस्मात के नाम पर। 

आगे जाकर कुछ दूरी पर घोड़े वाले खड़े थे। हम तो घोड़ों को नहीं पहचान पाये थे पर घोड़े के मालिकों ने हमें पहचान लिया था। अरे मैं बताना तो भूल ही गयी कि हमें पहनने के लिए रेनकोट दिए गए थे। क्यों ? क्या मौसम खराब है इसलिए ? तो पता चला नहीं यहाँ अक्सर बारिश होती रहती है। असली परीक्षा तो अब शुरू हुई थी, घोड़े पर सफर करना। पहले कभी घोड़े पर बैठी नहीं थी। बड़ा अजीब लग रहा था कि बेचारा घोड़ा। साथ में घोड़े को पकड़ कर घोड़े का मालिक चल रहा था। दोनों के लिए दया आ रही थी कि हम कैसे श्रद्धालु है कि अपनी श्रद्धा के लिए दो जीवों को परेशान कर रहे हैं। उस फिसलन भरी पतले संकरे रास्ते पर मेरा मन पूरा काँप रहा था। जब सामान्य रूप से चलते हुए मेरे पैर फिसल रहे थे तो बारिश होने पर तो सड़क सॉरी सड़क नहीं पगडंडी पर चलना कितना दुष्कर होगा। यह रास्ता कहीं कहीं पहाड़ के बीचो-बीच था, कहीं बर्फ भरे ढलवा मैदान के बीच से तो कहीं पहाड़ के किनारे पर से गुजरते हुए एक तरफ गहरी खाई देखकर मन सूखे पत्ते सा काँप रहा था। दूर-दूर तक फैले पहाड़ और पहाड़ो के बीच गहरे नीचे बहती नदी दिख रही थी। जब उस तरफ से कोई वापस आता तब मुझे समझ में नहीं आता कि इतने पतले रास्ते पर हमें दूसरे को क्रॉस कैसे करेंगे? न जाने कितनी आशंकाए मन को घेर लेती। वही थोड़ी देर बाद मन प्रकृति की सुंदरता में खो जाता। सिर्फ बड़े बड़े पहाड़ कही हल्की सी हरियाली कही बर्फ। एक पहाड़ खत्म होता, लगता बस अब पहुँच गए कि आगे एक और बड़ा पहाड़ दिख जाता। लगता यह रास्ता तो कभी खत्म ही नहीं हो रहा है। लोगों ने यहाँ पर आकर भगवान शिव के शिवलिंग की खोज कैसे की होगी ? आज इतनी सुविधाओं के बाद भी इतनी परेशानी हो रही है तो सदियों पहले किसी ने यह पता कैसे लगाया होगा कि यहाँ कोई शिवलिंग भी है ? वह वापस बचकर लौटा कैसे होगा ? उसे वापस दोबारा आने के लिए रास्ता कैसे याद रहा होगा ? मेरा मन श्रद्धा से झुक गया। बहुत बार प्रश्नों का जवाब सिर्फ श्रद्धा होती है । 

लगभग आधा रास्ता पार करने के बाद मैं सोच रही थी कि हमने यह प्लास्टिक क्यों पहनी? अगर बारिश होती तो छतरी दे देते या तुरंत रुक कर यह रेनकोट पहन लेते पर खैर, इसके कारण ठंढ भी कम लग रही थी। अचानक से हल्की हवाओं के साथ सामने देखा तो रूई के फाहे जैसे उड़ रहे थे । यह क्या है? घोड़े वाले ने बताया कि मौसम खराब हो गया है। बर्फ पड़नी शुरू हो गई है। बर्फ ? बर्फ का ख्याल आते ही एक बार दिल्ली घूमते समय हुई ओलावृष्टि का ध्यान आ गया। मैं बहुत डर गयी क्योंकि ओलावृष्टि में हम घर के अंदर छूप जाते हैं। बहुत तेजी से आते हुए बर्फ के टुकड़े किसी गोली जैसे घायल करते हैं। पर यहाँ तो दूर-दूर तक रुकने का कोई स्थान नहीं था। हाँ जगह-जगह पर जवानों के बेस कैंप बने हुए थे फिर एक बार मेरा सिर हमारी सेवा के जवानों के आगे नतमस्तक हो गया। हमारे जवान सीमा पर तो डटे रहतें ही हैं हमारी सुरक्षा के लिए पर हमारी श्रद्धा के लिए यह लोग शून्य से भी कम तापमान में अपनी ड्यूटी कर रहे हैं। 

मन में बहुत सारी बातें आ रही थी क्या हम लोगों को किसी बेस कैंप पर रोक दिया जाएगा? क्या खराब मौसम के कारण यात्रा स्थगित कर दी जाएगी ? क्या हमको यही से वापस लौट जाना पड़ेगा? क्या इतनी दूर तक आने के बाद भी दर्शन सम्भव नहीं होंगे? क्या इस ओलावृष्टि से हमलोग घायल तो नहीं हो जाएंगे? बेचारा घोड़ा उसने तो कुछ प्लास्टिक भी नहीं पहन रखी है। यह सब सोचते सोचते मैंने महसूस किया कुछ ठंडा ठंडा एहसास मेरे चेहरे पर हो रहा है। मैंने जीवन में पहली बार हिमपात को महसूस किया। यह ओलावृष्टि की तरह बिल्कुल भी नहीं था। यह छोटी-छोटी पानी की बूंदे थी जो ठोस नहीं हुई थी। उनके छूने से शरीर पर चोट नहीं लग रही थी। मेरा तो मन कर रहा था जैसे मैं बारिश में दोनों हाथ खोलकर गोल घूमती हूँ वैसे ही घोड़े से उतरकर दोनों हाथों को खोलकर अपने चेहरे पर अपने हाथों पर हिमपात को महसूस कर सकूँ। मेरी यह ईच्छा भी शीघ्र पूर्ण हो गयी । अब हमें घोड़ों को छोड़ कर पैदल ही आगे सफर तय करना था। 

कभी-कभी सामने का दृश्य इतना अच्छा होता है की मन का डर भाग जाता है। अब मुझे हिमपात में चलना बहुत खूबसूरत लग रहा था। सच में यह "वंश इन अ लाइफ टाइम एक्सपीरियंस" (जीवन में एक बार अद्भुत अनुभव) था। बहुत सारी भीड़ के साथ बाबा के जयकारे लगाते, भजन गाते और हिमपात की सुंदरता में खोकर मैं यह जान ही नहीं पाई कि कब हम आकर बाबा बर्फानी के दरबार के सामने आकर खड़े हो गए। बहुत अफसोस हुआ। यह बिल्कुल संसार की तरह था कि हम संसार की माया में उलझकर भगवान को भूल जाते हैं । वैसे ही ना जाने कब से मुझे बाबा के धाम के दर्शन हो रहे होंगे पर मैं हिमपात की सुंदरता में डूबी हुई थी। मैंने मैंने कान पड़कर मन ही मन बाबा से क्षमा माँगी। वैसे भी बाबा भोले भंडारी है अपने भक्तों की सभी गलतियों को क्षमा करते हैं। सामने बहती नदी, कुंड के हिम शीतल जल में श्रद्धालु स्नान कर रहे थे। मुझे लगा अब हमें प्लास्टिक निकालकर, तब दर्शन के लिए अंदर जाना होगा और मुझे हिमपात में भीगने का मौका मिलेगा। पर हमें साफ कहा गया था कि हमें प्लास्टिक नहीं निकालनी है। 

थोड़ी देर की लाइन लगाकर हमने बाबा बर्फानी के बहुत ही अच्छे दर्शन किए। साइंस से परे उस गुफा में जगह-जगह पानी टपक रहा था। जब चारों ओर बर्फ हो हर बूंद जमी हुई हो तो पानी का टपकना बहुत अजीब लगता है। पूरी गुफा में क्यों नहीं हजारों शिवलिंग थे? आखिर सामने वाले बाबा बर्फानी भी तो बूँद बूँद पानी टपकने से ही बने थे। वहॉं माता पार्वती और गणेश जी के प्रतिरूप स्वरूप दो विग्रह और भी थे। हम सभी ने श्रद्धा पूर्वक दर्शन किए। मुझे लगा था हिमपात के कारण हम सभी को वहीं पर रोक दिया जाएगा। पर इतना खराब मौसम वहाँ के लिए आम बात थी। मतलब वहाँ इससे भी ज्यादा भयंकर हिमपात होता है? मैं फिर कल्पना करके काँप गयी कि हे भगवान! उस समय जो श्रद्धालु यात्रा कर रहे होते होंगे उनका क्या हाल होता होगा? अभी तो रात हो गई है, अब हम लोग वापस कैसे जाएंगे ? यहाँ तो रुकना सम्भव ही नही है। अब क्या करेंगे ? फिर एक बार रूह काँप गयी यह सोच कर कि जिन संकरे रास्तों पर दिन के उजाले में चलना रूह को कँपा रहा था उन्हीं रास्तों पर रात को चलना...? 

दर्शन करने के बाद सबको इक्कठा करके हम वहॉं से वापस निकलें। अब मेरा ध्यान इस ओर गया कि वहाँ इतने दुर्गम स्थान पर भी विद्युत की सुविधा थी। रात में भी पूरा स्थान जगमगा रहा था। मेरा सिर फिर नतमस्तक हो गया उन लोगों के सम्मान में जिनकी मेहनत से विद्युत इस दुर्गम स्थान तक पहुँची। लौटते समय रास्ता भी पूरा उजाले से जगमग कर रहा था। आते समय ध्यान नही गया था पर रास्ते के किनारे तेज रोशनी के बल्ब लगे थे जो रात को दिन की भाँति प्रकाशित कर रहे थे। हमने घोड़ो को जहाँ छोड़ा था वहीं पहुँच कर फिर से यात्रा प्रारंभ की। सच कहूँ वहॉं से लौटने का मन ही नही कर रहा था। सबका वही हाल था सब अपने मन का एक हिस्सा बाबा के चरणों मे रख आएं थे। जाते समय जयकारे और भजन गाने वाले भी अब खामोश थे। यह थकान थी या बिछड़ने का दुखः। जैसे लड़कियाँ मायके से वापस आते वक्त शान्त हो जाती है। बड़ी आसानी से हम वापस आ गए। आकर खाना खाया। आराम किया। बस तैयार ही थी । बैठ कर श्रीनगर के लिए वापस निकल पड़े। सुबह होने ही वाली थी यह सूर्योदय हमारी ज़िंदगी का सबसे खूबसूरत सूर्योदय था। सफेद पहाड़ो के पीछे से उगता सूरज पूरी घाटी को गुलाबी आभा दे रहा था। किसी नवयौवना की शर्मीले चेहरे की तरह । घाटी में बहती नदी किसी उच्श्रृंखल प्रेयसी की तरह भाग रही थी अपने प्रेमी समुद्र को बाँहों में भरने के लिए। इसके साथ ही हम सबको फिर से सांसारिक माया मोह ने जकड़ लिया था। सब कुछ देर बाद बाजार से अपने प्रियजनों के लिए क्या खरीदने वाले है इसकी चर्चा में व्यस्त थे। 

मैं आँखे मूँदे अपने पति और बच्चों के बारे में सोच रही थी। मैं बर्फ से ढके पहाड़, हिमशीतल जल, बर्फ के ऊपर टेंट में बिताई गयी रात और हिमपात के बारे में भी सोच रही थीं। साथ ही यह प्रार्थना भी कर रही थी कि बाबा बर्फानी अगली बार पति और बच्चों के साथ तुम्हारे दर्शन का सुख देना।


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