Arunima Thakur

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यादगार दीवाली

यादगार दीवाली

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"दादी मुझे 'यादगार दिवाली' पर लिखना है। कुछ बताओ ना, आपके ज़माने में दिवाली कैसे मनाते थे ? आपकी कोई यादगार दिवाली है क्या ? दिवाली की कुछ ना भूलने वाली यादें हैं क्या ?"


मन को तो मौका भर चाहिए। पोती के यह शब्द सुनकर रज्जो जी का मन अपनी यादों में विचरने लगा। सत्तर बहत्तर साल की उम्र है, यूँ तो न जाने कितनी दिवाली बीत गईं हैं, हर एक की अपनी कुछ यादें हैं, अपने यादगार पल। पर वह आज भी उस दिवाली को भूल नहीं पातीं हैं। मैं छोटी थीं, कितनी छोटी ? शायद दस या बारह साल की, पता नहीं। तब के बच्चे अपने बचपने में व्यस्त रहते थे। आजकल के बच्चों की तरह अपनी उम्र की जानकारी नहीं रखते थे। मुझे याद है सेना में मेजर मेरे पिताजी छुट्टी पर घर आए थे। उन दिनों माँ की तबीयत काफी खराब थी। माँ गम्भीर बीमारी से पीड़ित थी। पिताजी माँ के साथ समय बिताना चाहते थे, वह जानते थे शायद यह माँ की आखिरी दिवाली हो।


तभी रेडियो पर खबर आती है कि चीन ने भारत पर आक्रमण कर दिया है । पिताजी के साथ एक अर्दली रहता था । वह सारी खबरें पिताजी को बताता था। पिताजी के पास सेना से निर्देश की आते हैं कि सभी जवानों की छुट्टियां रद्द की जाती है। चीन के आक्रमण के कारण बटालियन के जवान तुरंत रिपोर्ट करें । पिताजी तुरंत वापस चले गए, माँ के साथ दिवाली मनाने का सपना आँखों में लेकर।


माँ बीमार थी, पापा घर पर थे नहीं, सब भाई बहन छोटे-छोटे थे। मैं ही सबसे बड़ी थीं। दिवाली मनाने का मन तो नहीं था पर माँ की हालत देखकर कुछ समझ नहीं आ रहा था। छोटी दिवाली के दिन उस बीमारी की हालत में भी माँ आँगन में आकर बैठ गई। कुम्हार दिए देकर गया था। उन्होंने सारे दिए पानी में रखवा दिए थे। दूसरे दिन दीवाली पूजन का सारा इंतजाम मुझ से करवाया।


माँ ने दूसरे दिन शाम को आँगन में दिए से स्वास्तिक बनाया। सब भाई बहनों को साथ बिठा कर लक्ष्मी गणेश का पूजन करवाया। उसके बाद देश की जीत की प्रार्थना की। प्रार्थना की कि पिताजी सकुशल हो, हमारे सभी जवान सकुशल हो। तब हमें माँ की बीमारी की गम्भीरता का एहसास नही था। होता भी कैसे, आँगन में जलते दिए उनकी आँखो में जगमगा रहे थे । पर शायद उनको मालूम था यह उनकी आखिरी दिवाली है इसीलिए वह इसे हम सबके लिए यादगार बनाना चाहती थी।


बाहर बहुत सारे गेंदे के फूल लगे थे। हम सब फूल तोड़कर लाएं, माँ के साथ बैठकर माला बनाई। पिताजी की अनुपस्थिति हम लोगों को महसूस ना हो, इसीलिए हर बार की तरह, उन्होंने पूरे घर को मालाओं से सजाया। शाम को दीप जलाए । घर का हर कोना रोशन था मानो माँ उन दियों से घर को नही अपनी कल्पना में पिताजी के साथ जंग के मैदान को सजा रहीं थीं । उस साल हमने खूब सारे पटाखे जलाए। खराब तबियत और कमजोरी के बाद भी माँ ने जमकर पटाखे चलाएं, खास तौर पर चकरघिन्नी।


जब पापा चक्करघिन्नी चलाते थे माँ उनके बीच खड़े होकर बाहें फैला कर घूमती थी बच्चों की तरह बच्ची बनकर। इस बार पापा नहीं थे और माँ का स्वास्थ्य भी ठीक नही था तो माँ वहीं कुर्सी पर बैठ गयी। जब हम ने उनके उनके चारों ओर चक्करघिन्नी चलाई तो वह बहुत खुश हुई। उनकी खुशी देखने लायक थी। आज मुझे लगता है कि वह मन ही मन कितना परेशान होंगीं पर हमारी खुशी के लिए वह हम सब के सामने यह बात छुपा रही थी । हम पटाखों में मगन थे और वह पापा की सलामती की दुआ कर रही थी ।


वह गाना तो बहुत बाद में आया, 'जब देश में थी दीवाली वह खेल रहे थे होली, जब हम बैठे थे घरों में वह झेल रहे थे गोली' माँ उस दिन ही वह भाव महसूस कर रही थी। बड़े होकर हम सब ने भी वह महसूस किया जो उस दिन नही कर पाए थे। हम सब तो बच्चे थे इसलिए युद्ध की भयावहता नहीं समझते थे पर माँ परेशान थी । उन्हें पिताजी सकुशल वापसी का इंतजार था। उनके जीने की आधारशिला पिताजी की चिट्ठियां थी जो कुछ दिनों के अंतराल पर आती रहती थी। जिसमें लिखा रहता था, "यहाँ पर मौसम बहुत खुशनुमा है। बर्फ पड़ रही है । हम सब डटे हुए हैं । चाय पीते हुए मैं तुम्हे याद कर रहा हूँ। तुम ठीक हो जाओगी फिर हम यहाँ घूमने आएंगे और बहुत सारी अच्छी-अच्छी बातें साथ ही अपना और हम सबका ख्याल रखने की ताकीद ।


इन सब के बीच महीना बीत गया। माँ अपनी बीमारी से लड़ रही थी। पापा को एक बार देखने की उम्मीद और हम बच्चों के अकेले छूटने का डर उन्हें ताकत दे रहा था। युद्ध समाप्ति की खबर हमारे लिए आशा की किरण लेकर आई। पर पिताजी महीनों तक लौट कर नही आये। एक दिन रेडियो पर अचानक पापा और कुछ अन्य सिपाहियों के लापता होने की खबर आई। यह सुनकर जान पहचान के लोग शोक प्रकट करने के लिए आने लगे । पर माँ सबसे एक ही बात पूछती ऐसे कैसे गायब है ? अगर पिताजी लापता हैं तो वह चिट्टियां कैसे आ रही हैं ? यह माँ का अटूट विश्वास था कि पिताजी जीवित हैं, सही सलामत हैं, लौटेंगे जरूर । इसी इंतजार को अपने मन में लिए वह चली गई । आज सोचने बैठती हूँ तो माँ की पीड़ा उनकी मनोदशा समझ पाती हूँ, खुद की लाइलाज बीमारी, बच्चों की चिंता ऊपर से पिताजी का यूँ लापता हो जाना।


पापा अभी तक नहीं आए थे। अब चिट्ठियां आनी भी बंद हो गई थी। हम भाई-बहन अनाथ थे। घर के पुराने नौकरों ने खेती बाड़ी संभाल रखी थी। वह लोग ही हमारी देखभाल भी कर रहे थे। माँ ने जो उम्मीद का दिया जलाया था कि पिताजी जीवित है वह अभी हमारी आँखों से बुझा नहीं था। कुछ समय बाद दूर के एक रिश्तेदार ने अपनी पत्नी के साथ आकर हम लोगों को संभाल लिया था। समय बीत गया । साल घूम कर फिर दिवाली आ गई पर पापा की कोई खबर नहीं थी। सेना वाले ना तो उन्हें शहीद मान रहे थे और ना ही जीवित।


माँ पिताजी की याद तो रोज ही आती थी उस दिन कुछ ज्यादा ही आ रही थी। आँखों से आँसू बन्द होने का नाम ही नही ले रहे थें। मैं सबसे बड़ी थी, मुझे रोता देखकर बाकी सभी भाई बहन रोने लग जाते, इसलिए मैं घर के बाहर एक तरफ बने तालाब के किनारे जा कर बैठ गयी और मन मे सोच रही थी,


माँ जब तुम रहती थी इस घर में

सुरभित था घर का कोना-कोना

हर वस्तु दमकती थी ऐसे

जैसे दमके कोई सोना

तेरे ना रहने पर देखो माँ

कैसी उदासी छाई है

हम सब हैं रोते- रोते

यह कैसी दीवाली आयी है

अब तेरे पावन मंदिर में

यादों के दिए जलाएंगे

तेरी तस्वीर पर ऐ माँ

हम फूलों के हार चढ़ाएंगे


दिवाली के एक दिन पहले की बात है कुम्हार हर साल की तरह दिए देकर गया था। बाहर गेंदे के फूल भी खिलें थे पर हमारा मन नहीं था । ना माँ ना पिताजी, तो दिवाली क्या खाक मानने का मन करता। फिर भी त्योहार में खोट नही पड़नी चाहिए इसलिए माँ की खुशियों का वास्ता देकर, पिताजी का डर दिखा कर कि आयेंगे तो यह पता चलने पर कि तुम लोगों ने दिवाली नहीं मनायी कितने नाराज होंगे, हम लोगों को समझा बुझा कर काकी ने दियें धोकर आँगन में रख दिए थे। बेमन से सही हमने फूल लाकर माला बनाई पर घर सजाने के लिए नहीं माँ पिताजी की फोटो पर चढ़ाने के लिए। भाई बहन छोटे थे, उनके लिए काका पटाखे लेकर आए थे। पता नहीं हमारा चलाने का मन था या नहीं ? बालपन तो पटाखे चलाना चाह रहा था पर जो मन दुखी था वह हमें पटाखे चलाने से रोक रहा था।


हमारे घर से सड़क साफ दिखाई देती थी जब भी पिताजी आते तो बस को देखते ही हम सब दौड़ते हुए पहुँच जाते थे। साल भर हो गया था कोई बस घर के सामने नहीं रुकी थी। रिश्तेदार तो बस अड्डे से उतर कर चलते हुए आते थे पर पिताजी की इज्जत में बस वाले बस को घर के सामने रोक देते थे। आज एक बस सामने आकर रुकी तो छोटा भाई उठकर दौड़ा, 'पिताजी आ गए'। मैं उसे रोकना चाहती थी कि पिताजी अब शायद कभी नहीं आएंगे पर पता नहीं क्यों मैं भी उसके विश्वास पर विश्वास करके उसके पीछे भागी और मेरे पीछे बाकी के भाई-बहन। हमको भागता देखकर काका काकी भी बाहर आकर खड़े हो गए।


सच में बस से कोई उतरा तो था। क्या यह पिताजी थे ? हॉं वह पिताजी ही थे । हम सब पहले तो पिताजी को पहचान ही नहीं पायें। एकदम दुबलें हो गये थे, दाढ़ी भी बढ़ी थी। हम उनसे चिपक कर रोने लगे। पिताजी बहुत उम्मीद भरी नजरों से सामने घर को देख रहे थे। उनको मालूम था कि माँ नहीं दिखेंगी फिर भी वह उम्मीद कर रहे थे कि शायद माँ हर बार की तरह उन्हें दरवाजे पर इंतजार करती दिख जाए । पिताजी चीनियों की कैद में थे। कैसे फँसे कैसे छूटे, यह सब उन्होंने बताया होगा पर आज याद नहीं है। हाँ उन्होंने बताया था कि बहुत सारी चिट्ठियां लिख कर वो अपने दोस्त के पास रख गए थे जिससे कि माँ उनकी चिंता ना करें, जिन्हें वह नियमित अंतराल पर डालते रहते थे। पर तब पिताजी के आ जाने पर यह सब बातें गौड़ हो गयी थीं। पिताजी के सकुशल आने के कारण उस साल हमने खूब धूमधाम से दिवाली मनायी क्योंकि हमें मालूम था माँ को दिवाली बहुत पसंद थी और दिवाली के दिन सूना घर उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं था।


आज भी मैं दीवाली बहुत धूमधाम से मनाती हूँ, माँ की याद में। अब मैं जलती हुई चकरघिन्नी के बीच में खड़ी हो जाती हूँ दोनों हाथों को फैलाकर, गोल घूमती हूँ, बच्चों की तरह बच्ची बन कर।



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