Arunima Thakur

Children Stories Classics Inspirational

4.8  

Arunima Thakur

Children Stories Classics Inspirational

खट्टी मीठी यादें...

खट्टी मीठी यादें...

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जीवन की छाँव में यादें ही तो गुनगुनी धूप सी होती है जो व्यस्त दिनचर्या में भी चेहरे पर हँसी और दिल में सुकून ले आती हैं। सड़क पर बच्चों को पैदल स्कूल जाते देखती हूँ तो सोचती हूँ क्या हम इतने गरीब थे या तब सभी इस तरह से चलते हुए ही स्कूल जाते थे ? वास्तव में कार तब विलासिता का प्रतीक थी। शहर में विशेषकर छोटे शहरों में खास खास लोगों के पास ही कार होती थी। बच्चे कार से स्कूल नहींं जाते थे। बहुत ही समृद्ध तबके के लोग अपने बच्चों को स्कूल बस से भेजते थे। पर हम जैसे तो दोस्तों के गले में हाथ डाले, एक दूसरे के घर से, एक दूसरे को बुलाते हुए, खेलते कूदते स्कूल पहुँचते थे। बहुत गुस्सा आती थी, यह सोच कर कि यह रविवार की छुट्टी क्यों होती है। हम अपने दोस्तों से मिल भी नहींं पाते हैं।

हम जितने उत्साह से स्कूल आते थे, उतने ही मायूसी से घर जाते थे। तब घर भी संयुक्त परिवार होते थे। बच्चे एसेट नहींं, लायबिलिटी होते थे। बस सब से डाँट खाते, काम करते, तो लगता था घर से तो स्कूल ही बेहतर है। पर अब जब बच्चों को सुबह मुँह लटकाए स्कूल आते हुए देखती हूँ और दोपहर को छुट्टी की घंटी पर अनियंत्रित भीड़ की तरह घर के लिए दौड़ते देखती हूँ तो लगता है कहीं तो हम चूक गए हैं। जो हम बच्चों को स्कूल से जोड़ नहींं पा रहे हैं। अब तो बच्चों को स्कूल में कितनी सुविधाएं हैं। तरह-तरह की एक्टिविटी होती हैं। होमवर्क पर भी पाबंदी है। मारना तो दूर शिक्षक बच्चों को डाँट भी नहींं सकते हैं, फिर भी यह बंधन मजबूत होने के बजाय ढीला पड़ता जा रहा है। इन बच्चों को देखकर सोचती हूँ जितनी 'बचपन की यादें मेरे पास है या विद्यार्थी जीवन की यादें, वह हमारे क्लास की चारदीवारों से जुड़ी यादें जो जीवन में अमृत की बूंदे घोल देती हैं' क्या इनके पास भी हों पाएंगी ? विद्यार्थी जीवन की यादों को लिखने से पहले मैं अपने गुरुजनों और प्रबंधक महोदय के प्रति हृदय से आभार व्यक्त करना चाहूँगी। जिन्होंने हमें इतना अच्छा स्कूल और माहौल दिया कि हम अनगिनत अच्छी यादें बना सके। वैसे भैया लोगों के साथ लड़कों के स्कूल से शुरू करके कन्या पाठशाला से लेकर शहर के एक नामी स्कूल फिर कॉलेज के पूरे बीस सालों के हर एक दिन की अनगिनत यादें हैं। उनमें से कुछ एक आपके साथ साझा करती हूँ।

आठवीं कक्षा की बात है। हमारी कक्षा में तीन डिविजन थे। हमारी एक्क्षिक विषयों की सम्मिलित क्लास चल रही थी। मैं बता दूँ हमारे स्कूल में दूसरे और चौथे शनिवार को एक्क्षिक विषयों की कक्षाएं लगती थी। जहां बच्चे अपने मन अनुसार कढ़ाई सिलाई, संगीत, वादन या मैकेनिक का ज्ञान अर्जित करते थे। बच्चे खेल खेल में सीख सकें और थोड़े तरोताजा हो सके इसलिए शायद यह कक्षायें की जाती थी। इन क्लासों का कोई सर्टिफिकेट नहींं मिलता था। पर बच्चे बटन लगाना, तुरपाई करना, या जिनको शौक हो वह तबला बजाना, ढोलक बजाना, या हम जैसे लोग जिन्होंने मैकेनिक लिया था वह स्विच ठीक करना, होल्डर में तार लगाना फ्यूज उड़ जाए तो उसे बनाना ऐसे सब प्राथमिक चीजें सीखते थे। उस दिन सर हमसे कुछ प्रश्न पूछ रहे थे। जिसको जिसको उत्तर नहींं आया, वह खड़े थे। तो सर ने बोला, "एक दूसरे को थप्पड़ मारो।"

सर के हिसाब से यह साधारण सी सजा थी। पर एक लड़के ने दूसरे लड़के को खींचकर थप्पड़ मार दिया। सर नाराज हुए तो बोला, 'आपने ही तो कहा था मारने के लिए'। सर बोले, "मैं बोलूंगा तो क्या तुम कुएं में कूद जाओगे ?"

वह बोला, "आप बोल कर देखो।"

सर ने इधर उधर देखा, हमारी कक्षा पहली मंजिल पर थी। बोले, "ठीक है यहां से कूद जाओ।"

वह उठा उठ कर बाहर निकल गया। जब तक कोई कुछ समझ पाता वह नीचे आँगन परिसर में कूद चुका था। सर तो एकदम बदहवास से बाहर दौड़े। शोर सुनकर सभी क्लासों के शिक्षक शिक्षिकाएं बाहर आ गए, हमारी प्रिंसिपल भी। वह लड़का अपने कपड़ों को झटकता हुआ उठ खड़ा हुआ। प्रिंसिपल ने पूछा, "क्या हुआ ?"

तो वह बोला, "सर ने बोला था, नीचे कूद जाओ।"

इतना बोल कर वह सीढ़ी से चढ़कर क्लास में वापस आ गया। प्रिंसिपल व सभी शिक्षक शिक्षिकाएं एकदम अचंभित थे। तुरंत सभी शिक्षक शिक्षिकाओं और प्रिंसिपल की मीटिंग हुई। उस लड़के को बुलाकर समझाया गया। बात आई गई हो गई, पर वह लड़का हम बच्चों और टीचर की आँख में आ गया।

अगले साल नवी कक्षा में बहुत सारे बच्चों ने साइंस छोड़कर आर्ट, कॉमर्स के लिए दूसरे स्कूलों में दाखिला ले लिया। अब हमारे दो ही डिवीजन थे। कुछ बच्चे दूसरे डिवीजन से हमारे डिवीजन में आए थे। उनमें से वह भी था। उसका नाम मुझे आज भी याद है। पर यह उसकी नहींं मेरी यादें है, इसलिए उसका नाम बता कर उसको शर्मिंदा नहींं कर सकती। नवीं कक्षा शुरू हुए कुछ ही दिन हुए थे। नवीं के बच्चे अपने आप को बहुत बड़ा मानने लगते हैं और लड़कियां अपने आप को अप्सराएं। हम में से एक लड़की ने एक दिन जाकर प्रिंसिपल से शिकायत की कि वह लड़का मुझे गंदे कमेंट पास करता है। मेरा स्कूल अनुशासन के मामले में बहुत प्रसिद्ध था। शिक्षक शिक्षिकाओं ने एक-दो दिन देखा, पता लगाया फिर प्रबंधक महोदय ने उसे बुलाकर बहुत मारा और सस्पेंड करने की धमकी दी।

फिर एक दिन शायद उसने फिर से कोई हरकत की या क्या हुआ हमें नहींं मालूम चला पर उस दिन प्रबंधक सर ने उसे मारने की जगह बेइज्जत करने का निर्णय लिया। उन्होंने स्कूल के आँगन में उस लड़के को बिठाया और हम लड़कियों से कहा कि उसके सिर पर पैर से मारे। पूरे स्कूल के सामने यह बहुत ही शर्मिंदगी भरा था। लड़कियां लाइन लगाकर एक-एक कर उसके सिर पर पैर मार कर जा रहीं थी। मेरी बारी भी आई, मुझे तो मेरी अम्मी ने सिखाया था 'भाइयों की खलेगी ना तुमको कमी, पहले चलना तो सीखो बहन की तरह' (इस जगह मैं कोई भी वाद-विवाद नहींं चाहती हूँ। आज का जमाना कैसा है ? लोग क्या करते हैं ? क्या सोचते हैं? यह इस बारे में नहींं है। यह कुछ पंक्तियाँ है जो मेरी अम्मी ने मुझे सिखाई थी और मैं आज भी इन पर विश्वास करती हूँ। कम से कम मेरी परिस्थितियों में तो यह हमेशा ही कारगर सिद्ध हुई है)

तो मैंने तो इंकार कर दिया। मैंने कहा, "सर आप चाहो तो मुझे दंड दे सकते हो पर किसी की गलती के लिए मैं उसको पैर से नहींं मारूँगी। यह मेरा सहपाठी है। इसे सही गलत समझाना हमारा कर्तव्य है पर यूँ बेइज्जत करके नहींं। आपकी मार से भी यह नहींं सुधरा तो क्या आपको लगता है इस तरह से सुधर जाएगा ? नहींं सर मैं इसे पैर से नहींं मारूँगी" और मैं दृढ़ता से वहाँ से हट गई। मेरे बाद में देखा देखी या पता नहींं क्यों अन्य लड़कियों ने भी उसे नहींं मारा या मारा वह तो मुझे पता नहींं पर मेरे क्लास में आकर बैठने के कुछ देर बाद ही सारे बच्चे क्लास में आ गए। कुछ देर बाद छुट्टी भी हो गई और दूसरे दिन से सब सामान्य था। आपको लगा होगा कि इतनी बेइज्जती के बाद शायद वह लड़का स्कूल नहींं आया होगा या उसके मम्मी पापा ने आ करके कुछ हंगामा किया होगा। पर यह वह जमाना था जब हम सही होने पर भी अपने अभिभावकों से यह उम्मीद नहीं करते थे कि वह शिक्षकों को कुछ कहेंगे उल्टा शिकायत करने पर घर मे भी हमें ही डाँटा और कूटा जाता था।

तो कुछ भी नहीं हुआ। स्कूल सामान्य रूप से चलती रही। नया हुआ तो बस इतना कि हमारे अंग्रेजी के नए शिक्षक आएं।

आज से चालीस साल पहले,

अंग्रेजी एक तो विषय ही भयंकर था।

ऊपर से हमारे शिक्षक करेला वह भी नीम चढ़ा। जो कि आज जो हम सब की अंग्रेजी अच्छी है वह उनके ही प्रयासों के कारण है। वह नवी कक्षा में आए थे और बारहवीं तक हम उनके सानिध्य में रहे।

हाँ तो कक्षा में प्रवेश करने के साथ ही उन्होंने पहले परिचय के देने के बाद सबको ए बी सी डी... सुनाने के लिए कहा। हम सब, पूरा क्लास जोर से हँस पड़े और बोले, "सर यह पहली कक्षा नहींं नवीं कक्षा है और आप हम से ए बी सी डी सुनना चाहते हैं ?"

वह कुछ नहींं बोले, मुस्कुराते हुए एक बच्चे को इशारा किया, सुनाइए। भाई साहब आप कमाल मानेंगे वह बच्चा ए बी सी डी नहींं सुना पाया। नवीं कक्षा के बच्चे को ए बी सी डी नहींं आती, क्लास की इज्जत का सवाल था। वह एक एक को खड़े करके पूछते और कहते "उंगलियों पर गिनते रहिए छब्बीस अक्षर हुए या नहींं।" सच मानिए, यकीन कीजिए, किसी के भी नहींं हुए। वह बोलें, "यह तो मैंने ए बी सी डी पूछी थी। कहीं अगर क ख ग घ पूछा होता तो ...."

"तो क्या सर...?" हम ने उत्सुकता से पूछा।

"तो क्या... क्या ? वह तो तुम लोग को दो लाइन से आगे नहींं आता।" उनकी इतनी बात सुनकर हम सब मन ही मन क ख ग घ बोलने लगे और सच में खुद के प्रति ईमानदार होते हुए कहूँगी और बाद में हमने एक दूसरे से पूछा भी तो किसी को भी पूरा क ख ग घ नहींं आ रहा था। उस दिन पहला काम हमने घर जाकर किया ए बी सी डी और क ख ग घ पढा और याद किया। उस दिन खेल-खेल में हमने सीखा 'आगे पढ़ना, जानना अच्छी बात है पर अपना बेसिक ज्ञान नहींं भूलना चाहिए।

उनकी आदत थी वी हमेशा कहते थे, "मेरे गुरु जी कहते हैं पूरे विश्व में मैं और मेरा भाई ही शुद्ध इंग्लिश बोल सकते हैं।" खैर उनके ज्ञान को देखते हुए हमें उनकी बातों पर किंचित भी संदेह नहींं था। हमारा पहला टेस्ट हुआ मुझे पचास में से एक चौथाई (सिर्फ 1/4) अंक मिले थे, मैं बहुत खुश थी। मालूम है क्यों ? क्योंकि कक्षा में उच्चतम अंक तीन चौथाई (3/4) थे। बच्चों को जीरो के साथ-साथ ऋणात्मक अंक भी मिले थे। हम आपस में बातें करते इनको तो गणित का शिक्षक होना चाहिए था, जब इतना ही ऋणात्मक अंक जोड़ने का शौक है। वो कठोर (स्ट्रिक्ट) होने पर भी गुस्से वाले नहींं थे। कभी डाँटते नहींं थे। एक दिन पता नहींं क्यों बहुत गुस्से में कक्षा में आए और बोले, "मैं आप लोगों को कुछ सिखा ही नहींं पा रहा हूँ। मुझे आप सब का टेस्ट लेना है।" वैसे तो उन्होंने पहले से बोला था कि इस सप्ताह में टेस्ट होंगे तो हम लगभग तैयार ही थे। वह बोले, "इस बार टेस्ट लिखते समय विशेष ध्यान रखियेगा, ऋणात्मक अंक नहींं होंगे। हर गलती पर एक डस्टर मिलेगा।" क्योंकि हम सब की तैयारी थी तो हमने कहा, "ठीक है सर"।

सर ने टेस्ट लिया और उसी दिन चेक कर दिया। फिर कक्षा में आए और बोले,"पेपर चेक हो गए हैं। जिनका जिनका नाम पुकारा जाएगा वह खड़े हो जाए डस्टर खाने के लिए। वैसे आपके पास दो विकल्प है। पहला पूरी कक्षा को एक एक डस्टर या जिसकी जितनी गलतियां उसको उतने डस्टर।"

भाई सीधी बात है जिसकी जितनी गलती हो उसको उतने डस्टर और यह कहने वाली मैं सबसे आगे थी। बच्चों के नाम पुकारे गए उनमें मेरा और दो और लड़कियों का नाम भी था। उससे पहले हमने सर को कभी किसी को मारते नहींं देखा था तो हमें कुछ फर्क नहींं पड़ रहा था। पर जैसे ही पहला नाम लिया एक लड़का आगे आया। सर ने उससे हाथ आगे करने को कहा और पूरे जोर से उसके हाथ पर एक डस्टर मारा। वह बहुत जोर से चिल्लाया। सर बोले,"अभी कहां, तीन गलतियां है, दूसरा हाथ आगे करो।" उस समय के बच्चों की तरह वह बार-बार हाथ आगे करके पीछे खींच ले रहा था। जो बच्चे बड़े शान से थे कि उनका तो सब सही है इस हरकत पर जोर से हंस दिए और इसी बात पर सर और चिढ़ गए। बोले, "बहुत हँसी आ रही है अब सबको दो दो डस्टर मिलेंगे। लड़कियों की हालत तो सिट्टी पिट्टी गुम। मेरी भी दो गलतियां थी। एक दो लड़कों को नंबर से बुलाकर डस्टर पड़ा। हर डस्टर के साथ हम सहमते जा रहे थे। मेरी बारी आयी, सर ने बुलाया और बोले, "अति आत्मविश्वास भी अच्छा नहींं है।" यह कहकर जैसे ही वह मुझे मारने जा रहे थे कि मेरी क्लास का वह शैतान बच्चा जिससे लगभग सभी ने उस दिन (पैर से मारने वाली घटना) के बाद से बात करनी बंद कर दी थी, वह उठा और बोला, "मास्टर साहब कहां लड़कियों पर हाथ उठा रहे हो। रुक जाओ पहले मेरा हिसाब कर दो। बाद में इन सब को निपटाना।"

उसकी बात सुनकर तो सर को और भी गुस्सा आ गया। "हाँ हाँ आपको बहुत शौक है, पहले आप को ही देख लेता हूँ। आपको मालूम है आपकी गलतियां कितनी है ?"

"अब जितनी भी हो, आप मारे बिना तो मानोगे नहींं तो आप मार ही लो", ऐसा कहकर वह सर के सामने आकर खड़ा हो गया एक हाथ आगे करके। सर ने भी पूरे जोर से डस्टर मारा। उसके मुँह से एक आह भी नहींं निकली। उसने बहुत ही एटीट्यूड से दूसरा हाथ आगे किया। सर ने फिर पूरे जोर से मारा। वह बिना एक भी शब्द बोले दृढ़ता से हाथ एक के बाद एक आगे पीछे करता रहा। सर उसकी दृढ़ता देखकर चिढ़ते रहें, मारते रहे। आखिर में सर के हाथ से डस्टर छूट कर, फिसल कर या पता नहींं कैसे जमीन पर टकराया या मेज से पता नहींं पर टूट गया। पता नहींं डस्टर की क्वालिटी खराब थी या इतनी मार वह डस्टर झेल नहींं पाया। वह लड़का बहुत ही शान्ति से बोला, "मास्टर साहब आपका हो गया या नया डस्टर लाकर दूँ ?"

सर गुस्से से क्लास छोड़ कर चले गए। वैसे तो हमें राहत की सांस लेनी चाहिए थी पर यह 2023 नहींं 1988 था। हम डर रहे थे कि यह जानकर प्रबंधक सर न जाने क्या कहेंगे क्या सजा देंगे? माता-पिता के पास शिकायत जाएगी तो क्या कहेंगे ? पर कुछ नहींं हुआ। अगले पीरियड में अगले शिक्षक आए। उनको पता ही नहींं था इससे पहले क्लास में क्या हुआ है, इसलिए उन्होंने पढ़ाना शुरू कर दिया और हमने भी डरते डरते पढ़ना।

दूसरे दिन सर क्लास में आए। हम सब सहमें बैठे थे कि अब क्या होगा ? सर ने उस लड़के को बुलाया। हम बहुत डर रहे थे कि क्या आज भी ....? पर सर ने उसकी पीठ पर हाथ रखते हुए बोला, "समुद्र मंथन में जब विष निकला था तो उसे धारण करने की हिम्मत सिर्फ शिव ने की थी। कल तुमने भी अपने दोस्तों की मुसीबत अपने ऊपर ले ली। मेरा आशीर्वाद है कि तुम जीवन में बहुत उन्नति करोगे और आप सब आपके अगर पूरे अंक आ गए थे तो आपने यह कहना जरूरी नहींं समझा कि सर हमारे दोस्तों को छोड़ दीजिए। हम सब मिलकर एक एक डस्टर खा लेंगे। शायद आपने ऐसा कहा होता तो आप में से किसी को भी डस्टर नहींं पड़ते। पर आप सब ने अपना अपना स्वार्थ देखा। बात तो बहुत छोटी सी थी पर सीख मिली "हर वक्त अपने लिए सोचना जरूरी नहींं होता। सब के बारे में मिलकर सोचना चाहिए" और सच मानिए वह दिन है और आज का दिन, आज चालीस सालों बाद भी हम चालीस बच्चे एक दूसरे के संपर्क में है। यह सोशल मीडिया से ज्यादा हमारे सर की सीख के कारण है। सर आपको नमन है।


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