Kunda Shamkuwar

Abstract Others

4.3  

Kunda Shamkuwar

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ब्लैक अँड व्हाइट

ब्लैक अँड व्हाइट

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आज न जाने क्यों रात बेहद लंबी लगने लगी है...पृथ्वी का चक्कर लगाकर चाँद अब जैसे थक गया है... लेकिन न तो रात थमी है और न ही उसके मन में आते जाते उमड़ते घुमड़ते ख़यालात भी.. 

न जाने वे कितनी सारी बातें है जो वह किसी से कह भी नहीं पाती है...वे सारी अनकही बातें किसी पुरानी और बिखरे पन्नों वाली डायरी के पुलिंदे की तरह इकट्ठा होकर बेकार लगने वाले सामान की भाँति हो गयी है...  

वे सारी अनकही बातें पीछा भी कहाँ छोड़ती है? वे बातें बदस्तूर पीछा करती है और जब तब सामने आकर खड़ी हो जाती है...

आज इतने दिनों के बाद उसे फिर से वह सारी पुरानी बातें जहन में ताज़ा हो गयी गयी....वह थी तो बेहद छोटी छोटी लेकिन मेरे बाल मन पर उसका गहरा प्रभाव पड़ा था... 

अक्सर हम बच्चों का पड़ोस वाली काकी के यहाँ जाना हुआ करता था..उनके बच्चों के साथ हम खेला करते थे...काकी हम सब बच्चों को काकी कुछ न कुछ खाने के लिए ज़रूर देती थी। मेरे बाल मन को समझ आ जाता था कि जब जब काका घर होते थे तो घर का माहौल जैसे बोझिल हो जाता था... लेकिन खेलने के दौरान हम उसे नज़रअंदाज़ करते थे... 

उन बातों का और उन शब्दों का मतलब भी अब समझ आने लगा है। छिनाल और भी न जाने क्या क्या...वक़्त के साथ साथ चीजें साफ़ होती गयी..काका की किसी दूर के शहर में पोस्टिंग होना...तब क्योंकि घर में किसी पुरुष का होना ज़रूरी था इसके लिए काका के एब्सेंस में उनके छोटे भाई का घर में रहने के लिए आना... काका का कभी कभी छुट्टियों में घर आना...उनका काकी के हावभाव पर नज़र रखना..अपने छोटे भाई पर नज़र रखना... बचपन में हमारे लिए काका काकी का घर अपने घर जैसे ही बिना किसी रोकटोक वाला था... अक्सर वही हम खेला करते थे.. लेकिन धीरे धीरे सब कम होता गया...क्योंकि काका काकी के झगड़ें बढ़ गए थे...हम भी बड़े हो रहे थे। हमारी पढाई भी आगे होती जा रही थी... स्कूल के बाद कॉलेज...फिर हॉस्टल में एडमिशन...सब कुछ बदलने लगा था... कॉलेज ख़त्म होने पर मेरा फिर नौकरी के सिलसिले में बड़े शहर में जाना हुआ..गाँव के साथ काका काकी का घर छूट गया...

कुछ सालों पहले ही पता चल गया था की काका घर छोड़कर चले गए है..कहाँ गए? किधर गए? किसी को कुछ भी पता नहीं चला..ना बच्चों को..न ही काकी को... आज ही किसी ने बताया की काकी एक्सपायर हो गयी है...सारी बातें किसी रील की तरह मेरे आँखों के सामने चलने लगी...काका तो पहले ही कही चले गए थे....सब बच्चों ने ढूँढा .. काकी ने भी बहुत ढूँढा लेकिन वे मिले ही नहीं थे... 

आज उम्र के पाँचवें दशक में मैं उन कुछ बातों का मतलब समझ पा रही हूँ और कुछ का नहीं..एक पति अपनी पत्नी पर विश्वास क्यों नहीं कर पा रहा था बल्कि पत्नी ने कभी पति पर अविश्वास नहीं किया...वह भी तो अविश्वास कर सकती थी..उन्हें गालियाँ दे सकती थी। लेकिन...

आज न जाने क्यों वह सब बातें क्यों याद आ रही है...शायद इसलिए ही यह रात भी बोझिल और लम्बी लग रही है... 


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