Dinesh Dubey

Classics

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Dinesh Dubey

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होलिका

होलिका

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अपने ही सगे पुत्र प्रह्लाद से दैत्यराज हिरण्यकशिपु व्याकुल हो गया था। जिस विष्णु को मारने के लिये उसने सहस्रों वर्षो तक तपस्या करके वरदान प्राप्त किया, जिस विष्णु ने उसके सगे भाई को वाराहरूप धारण करके मार डाला, उसी विष्णु का स्मरण, उसी के नाम का जप, उसी की उपासना उसके ही राज्य में चल रही है। हिरण्यकशिपु के जीते जी उसके राज्य में ही नहीं, उसके राजसदन में और वह भी उसके सगे पुत्र के द्वारा। नन्हा सा बालक होने पर भी प्रह्लाद अद्भुत हठी है। वह अपना हठ किसी प्रकार छोड़ नहीं रहा है। सबसे अधिक चिन्ता की बात यह है कि जिस हिरण्यकशिपु की भौंहों पर बल पड़ते ही समस्त लोक और लोकपाल थर-थर काँपने लगते हैं, उसके क्रोध की प्रह्लाद राई-रत्ती भी चिन्ता नहीं करता।

हर प्रकार से समझा कर और भय दिखाकर भी भक्त प्रह्लाद जैसे भय जानता ही नहीं और अब तो हिरण्यकशिपु स्वयं अपने उस नन्हे पुत्र से चित्त में भय खाने लगा था। वह सोचता है,*"यह बालक क्या अमर होकर आया है? क्या इसे समस्त पदार्थों पर विजय प्राप्त है? कहीं इसके इस प्रकार विरोध से मेरी मृत्यु तो नहीं होगी?'

हिरण्यकशिपु की चिन्ता अकारण नहीं थी। उसने दैत्यों को आज्ञा दी थी प्रह्लाद को मार डालने के लिये; किंतु दैत्य भी क्या कर सकते थे, उनके शस्त्र प्रह्लाद का शरीर छूते ही ऐसे टूट जाते थे, जैसे हिम या चीनी के बने हों। उन्होंने पर्वतपर से फेंका प्रह्लाद को तो वह बालक ऐसे उठ खड़ा हुआ, जैसे पुष्पराशिपर गिरा हो। समुद्र में डुबाने का प्रयत्न भी असफल रहा। सर्प, सिंह, मतवाले हाथी- पता नहीं क्यों, सभी क्रूर जीव उसके पास जाकर ऐसे बन जाते हैं, मानों युगोंसे उसने उन्हें पाला हो। उसे उपवास कराया गया लम्बे अवधि तक, हालाहल विष दिया गया, सब तो हो गया। प्रह्लाद पर क्या किसी मारक क्रियाका प्रभाव पड़ेगा ही नहीं? कोई मारक पदार्थ क्यों उसे हानि नहीं पहुँचाता ?

एक आश्वासन मिला दैत्यराज को। उसकी बहिन होलिका को वरदान में एक वस्त्र मिला था किसी देव से, जिसे ओढ़कर वह अग्नि में बैठने पर भी जलती न थी। वह इस बार प्रह्लाद को पकड़कर अग्नि में बैठेगी। सूखी लकड़ियों का पूरा पर्वत खड़ा कर दिया दैत्योंने, उसमें अग्नि लगा दी।

होलिका अपना वरदानी वस्त्र ओढ़कर प्रह्लादको गोद में लेकर उस लकड़ियों के पर्वतपर पहले ही जा बैठी थी।

हिरण्यकशिपु स्वयं देखने आया था कि इस बार क्या होता है। अग्नि की लपटों में कुछ देर तो कुछ दिखायी नहीं पड़ा और जब कुछ दिखायी पड़ा, तब दैत्यों के साथ वह दैत्यराज भी अपने नेत्र फाड़कर देखता रह गया। होलिका का कहीं पता नहीं था। वह भस्म बन चुकी थी और प्रह्लाद अग्नि की लपटों में बैठा मन्द-मन्द मुस्करा रहा था। हिरण्यकशिपु ने उस से पूछा*" तुझे डर नहीं लगता?' भक्त प्रह्लाद बोले*"रामनाम जपतां कुतो भयं सर्वतापशमनैक भेषजम्।

पश्य तात मम गात्रसन्निधाँ पावकोऽपि सलिलायतेऽधुना ॥

समस्त सन्तापों को नष्ट करने वाली एकमात्र औषधरूप रामनाम का जप करने वाले को भय कहाँ? पिताजी ! देखिये न, इस समय मेरे शरीर से लगने वाली अग्नि की लपटें भी मेरे लिये जल के समान शीतल हो गयी हैं। हिरण्यकशिपु भला, क्या कहता। वह चुपचाप वहां से हट गया ।

और उसके बाद भक्त प्रह्लाद के समर्थक प्रसन्न होकर उसी होलिका की राख को लगाकर होली मनाने लगे , ।

[विष्णुपुराण]



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