Dinesh Dubey

Classics

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Dinesh Dubey

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संत जनाबाई

संत जनाबाई

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संत नामदेव के बारे में तो सभी जानते हैं, उनके यहां जनाबाई सेविका के रूप में कार्य करती थीं। और वह इसे अपना सौभाग्य मानती थी कि वह संत नामदेव के घर में परिचारिका का काम करती थीं। पानी भरना, झाड़ू लगाना, बर्तन मांजना, कपड़े धोना और चक्की पीसना उनका नित्यकार्य था।


संत नामदेव जी के घर में हमेशा भगवान का भजन कीर्तन होता था। भक्ति की अविरल सरिता बहती रहती थी। 

धीरे धीरे जनाबाई भी इस सरिता में स्नान करने की अभ्यस्त हो गईं। मन और प्राणों के द्वार खुल गए थे, संतो की संगत ही ऐसी थी।


भक्ति का प्रवाह अंदर तक होने लगा। अब तो जनाबाई के मुख ही नहीं प्राणों से भी पवित्र भगवन्नाम का का निरंतर उच्चारण होने लगा था, वह हर क्षण भगवद नाम जपा करती थीं। 


एक बार एकादशी के दिन संत नामदेव जी के यहां भक्तमंडली जमा हुई थी। पूरी रात भगवान विट्ठल का नाम कीर्तन चलता रहा। दिन भर व्रत के चलते जनाबाई ने अन्न भी ग्रहण नहीं किया था। भक्त जन कीर्तन करते रहे और एक कोने में बैठकर जनाबाई प्रेमाश्रु बहाती रहीं।


द्वादशी का पक्ष लगा और पारण उपरांत, जनाबाई घर लौट गईं। पूरी रात की थकान थी। अगले दिन उठने में देर हो गई। जब नींद खुली तो हड़बड़ाकर उठ बैठीं। शीघ्र नित्यकर्म से निवृत होकर भक्त शिरोमणि नामदेव के घर पहुंची। झाड़ू किया, बर्तन मांजे और कपड़े धोने के लिए नजदीक चंद्रभागा नदी के किनारे पहुंचीं।


कपड़े धोते धोते उसे ध्यान आया कि जिस कमरे में कीर्तन होता है उसे व्यवस्थित करना तो भूल ही गईं। कपड़े धोने के लिए डुबाए जा चुके थे। उसे छोड़कर जाना भी संभव नहीं था। 

पूर्व दिन के एकादशी व्रत, भजन, संतो के संग और रात्रि जागरण का आनन्द था कि जनाबाई का हृदय अपने आराध्य के लिए पूरी व्यवस्था नहीं कर पाने के बोझ से भर आया। और उस बात तय है की भक्त के मन की पीड़ा भगवान तक पहुंच जाती है। और वह तत्काल कोई न कोई उपाय करते हैं।


एक लीला हुई! जनाबाई चिंता में बैठी थीं कि तभी एक वृद्ध महिला उनके पास आ पहुंची और पूछा*" बेटी जना आखिर किस चिंता में डूबी हो! 

जनाबाई ने सारी परेशानी बता दी। उन्होंने कहा *" बेटी जाओ तुम ,कीर्तन का कमरा ठीक कर आओ तुम्हारे कपड़े मैं धो दूंगी। जनाबाई को तो जैसे संजीवनी मिल गई।

उन्होंने कहा,*" माता तुम कपड़े धोना मत। बस केवल इनकी देखभाल करती रहो, मैं तुरंत कमरा ठीक करके आती हूं। 

प्रभु की माया! जनाबाई को इतना भी अवकाश नहीं था, कि वह सोचतीं कि आखिर यह वृद्धा है कौन! और उसके मन की व्यथा उसने इतनी आसानी से कैसे जान ली! वो तुरंत भागीं और कमरे की पूरी व्यवस्था करके उल्टे पांव लौटीं।


तभी उन्होंने दूर से देखा की वो वृद्धा जा रही थीं और सारे कपड़े धुल कर सूख रहे थे। कपड़े धुल भी गए, सूख भी गए। यह सारा काम इतनी जल्दी कैसे हो गया! जनाबाई तुरंत उस वृद्धा के पीछे दौड़ीं और उन्हें रोकने की कोशिश की।


तभी उन्हें ठोकर लगी और गिर पड़ीं। थोड़ी देर के लिए दृष्टि ओझल हुई और वृद्धा नजरों के आगे से विलुप्त हो गईं।

लेकिन वहां गीली मिट्टी पर उनके पैरों के निशान बने हुए थे। जनाबाई तुरंत वहां से वापस लौटीं। भक्त नामदेव जी के यहां सभी भक्त गण जमा थे। उन्होंने यह घटना सभी को सुनाई।  

यह सुन सभी ने आकर पैरों के उस निशान के दर्शन किए। उस मंडली में बड़े बड़े संत और महात्मा थे, वे तुरंत पहचान गए कि ये तो साक्षात महामाया के पांव के निशान हैं।


नामदेव जी ने हाथ जोड़कर कहा*" जनाबाई तुम धन्य हो तुम्हारे लिए स्वयं महामाया ने आकर कपड़े धोए। 

जनाबाई को यह सुनकर घोर आश्चर्य होता है ।

इस घटना के बाद से जनाबाई की दशा ही विचित्र हो गई। वह भक्ति में इतनी लीन हो गईं, कि उनके रोम रोम से हर समय पवित्र भगवन्नाम निकलने लगा। फिर तो ये रोज की कहानी हो गई। घर के काम काज करते करते जनाबाई विह्वल हो जाया करती। नटखट नागर प्रभु विट्ठल ऐसे की समय की प्रतीक्षा में बैठे रहते थे।


जैसे ही जनाबाई भक्ति और प्रेम में अपनी सुधबुध खोती थीं, भगवान स्वयं आकर उनकी जगह काम करने लगते थे। कभी चक्की पीस देते, कभी कुछ दूसरा काम कर देते। जब जनाबाई का भावावेश खत्म होता था, तो उन्हें दिखता कि काम तो हो चुका है।

इस से ही यह पता चलता था की संतो के साथ रहकर एक साधारण स्त्री घर की साफ सफाई करने का कार्य करने वाली ईश्वर के इतनी भक्ति कर सकती थी की भगवान स्वयं उसका कार्य करने आ जाते थे,।

संत जनाबाई एक महान भक्ति काव्य धारा की कवयित्री थी । इस समृद्ध पृष्ठभूमि पर जनाबाई का नाम एक उपेक्षित किंतु बहुगुण संपन्न संत कवयित्री के रुप में लेना चाहिए। जनाबाई महाराष्ट्र की एकमात्र ऐसी संत कवयित्री हैं जिनकी बानी में स्त्री-मन की अभिव्यक्ति होती है।

वह गरीब और छोटी जाति के होने के उपरांत भी सभी के लिए पूज्यनीय बनी ।



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