Jhilmil Sitara

Romance

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Jhilmil Sitara

Romance

इक झलक

इक झलक

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"उर्वशी ओ उर्वशी... जाकर खटाल से दूध ले आ। आज तुम्हारे पिता देर से आएंगे और उनके आने तक अंधेरा हो जायेगा। इसलिए आज तुम ले आओ दूध और जल्दी लौटना रोड पर खड़े होकर गप्पे मत लगाते रहना वरना पापा देख लेंगे तो नाराज होंगे।" उर्वशी अभी ग्यारहवी की छात्रा है और अभी कोचिंग क्लास से वापस आयी है और आते ही माँ का हुकुम।


"मैं नहीं जाउंगी खटाल से बहुत गन्दी बू आती है और मैं थक गई हूँ आज ऑटो भी देर से मिला तो आधी दुरी पैदल चलना पड़ा। इक स्कूटी कब से बोल रही हूँ खरीदने के लिए वो तो खरीदते नहीं बस ये करो वो करो करते रहते हो आप और पापा।"


इस पर माँ ने तेज आवाज़ में कहा " ठीक है जबतक स्कूटी नहीं आएगी चाय मत मांगना मुझसे तुम। कर रहे हैं ना तुम्हारे पापा इंतजाम स्कूटी का तबतक चुप नहीं रह सकती क्या।"


"एक साल से यही सुन रही हूँ। कहते हुए उर्वशी दूध के खटाल की तरफ निकल पड़ती है। शामको अच्छी भींड होती है खटाल पर क्यूँकि, सुबह जिनकी चाय जल्दबाजी में छूट जाती है उनको घर लौटते ही चाय की तलब लगती है। उर्वशी को दूध के लिए यूँ देर तक इंतजार करना ज़रा भी पसंद नहीं था। वो बड़बड़ाते हुए इधर उधर देख कर बोल रही थी की, ये ग्वाला तो ऐसे व्यस्त रहता है जैसे दुनिया की सबसे बड़ी खटाल का मालिक है हम्म। घर नहीं पहुँचा सकता। "आखिर उसकी बारी आई और उर्वशी दूध लेकर वापस मुड़ी और लाइन में अपनी बारी का इंतजार करते हुए श्रवण से उसकी नज़र मिल गई और वो दोनों कुछ पल के लिए एक दूसरे को देखते रह गए।


  पुरे रास्ते उर्वशी उस चहरे को याद करती जा रही थी मानो पहली बार नहीं पहले से जान पहचान हो या जैसे इसी चेहरे और आँखों को देखने के लिए उसका दिल चाहता था। अचानक से सबकुछ बदल सा गया जैसे। अब उसे याद ही नहीं था की वो खटाल की बदबू से चिढ़ती है या स्कूटी आई या नहीं। बस उर्वशी कोचिंग से लौटकर खटाल की तरफ चल पड़ती थी। कभी कभी बिना बर्तन के तो कभी पिता के घर में होते हुए तो कभी माँ के मना करने के बावजूद।


उर्वशी पर मानो धुन सवार हो गयी थी एक नज़र उसे देखने की। उसकी झलक पाने की उर्वशी के दिल में तेज सी चाहत उठने लगी थी जिसे वो खुद ना समझ पर रही थी ना उनपर काबू कर पर रही थी। इसी तरह एक महीने गुजर गए। श्रवण से उर्वशी की अबतक कोई बात नहीं हुई थी ना ही दोनों एक दूसरे का नाम जानते थे लेकिन मन की दशा एक सी थी दोनों की ये दिखाई दे रहा था। श्रवण भी हर दिन उसका इंतजार करता हुआ दिख जाता था। पहले आकर भी श्रवण लाइन में उर्वशी के आने के बाद ही खड़ा होता था वो भी बिल्कुल पास नहीं एक दो लोगों के बाद। धीरे धीरे श्रवण ठीक उर्वशी के पीछे खड़ा हुआ। उस दिन दोनों की धड़कने बहार तक सुनाई दे रही थी। उर्वशी का दुपट्टा उसे छू कर और पास आने के लिए इशारे कर रहा था। उर्वशी हल्का सा पीछे मुड़ती और शर्माकर गर्दन झुका लेती। उर्वशी की काली लम्बी चोटी उसपर गुलाब लगाने का मन हो रहा था श्रवण को। उसकी शरारती मुस्कान की महक छू रही थी उर्वशी को जिससे वो और अधिक लाल हो रही थी। आज इतने दिनों बाद ऐसी इक्छा हो रही थी की ये सिलसिला खत्म ना हो ये नजदीकी यूँही बनी है ये सब ऐसे ही एक दूसरे की अहसास में गुजर जाये। लेकिन ऐसा मुमकिन नहीं होता।


   अगले कुछ दिन करीब महसूस करने का सिलसिला चलता रहा। कभी पीछे खड़े होकर श्रवण अपनी महबूबा की उड़ते दुपट्टे को अपनी चेहरे की पोंछता कभी उर्वशी की चोटी खोलने की शरारत करता तो कभी अपनी उँगलियों से उसकी उँगलियों को छू कर उर्वशी के पीछे मुड़ने का इंतजार करता। उर्वशी को श्रवण की हर बात पसंद थी उसके हर अंदाज़ पर वो मोहित थी फ़िदा थी। उसके लिए ये जज्बात बहुत कीमती थे जिसे वो पागलपन की हद तक जीना चाहती थी पाना चाहती थी हमेशा के लिए। श्रवण के बिना अब उसकी जिंदगी हो सकती है इसकी उसने कल्पना भी नहीं की थी। लेकिन इन सब का अंजाम या भविष्य क्या होगा ये ना उर्वशी जानती थी ना श्रवण जानता था।


 जैसा की जग जाहिर है ये बातें छुपती कभी नहीं हैं। लोगों की नज़रों में आ ही जाती हैं। जब उर्वशी के पिता तक ये बात पहुंची उनको बहुत धक्का लगा क्यूँकि अपनी हैसियत से बढ़कर वो उर्वशी के भविष्य के लिए मेहनत कर रहे थे। उर्वशी के पिता ने उर्वशी से सीधे बात ना करते हुए एक उपाय सोचा। अगले दिन जब उर्वशी कोचिंग से घर लौटी तो दरवाजे पर चमचमाती हुई उसके पसंदीदा रंग की स्कूटी खड़ी थी जिसे उर्वशी भूल चुकी थी श्रवण से मिलने के बाद। स्कूटी देखकर वो खुश तो थी मगर उसका पूरा ध्यान था की खटाल जाना है। वो एक भी दिन श्रवण को देखे बिना नहीं रह सकती थी इसका अंदाजा शायद उसे भी नहीं था।


स्कूटी की पूजा जल्दी से निपटा कर जैसे ही उर्वशी दूध लाने का बर्तन उठाती है उसे भरा हुआ पाती है। माँ बताती है की अभी मिठाई लाने गए थे तुम्हारे पापा बाहर तो साथ में दूध भी ले आये। तुम स्कूटी चलाकर देखो ठीक है या नहीं। बहुत महंगी तो नहीं है मगर तुम्हारी जिद्द पूरी हुई। मेरी सब सहेली के पास है स्कूटी बोलती रहती थी अब चुप क्यों हो आ तो गई स्कूटी तुम्हारी। लगता है साल भर देरी से मिला इसलिए ख़ुशी कम हो गई। माँ ये सब बोलते हुए रसोई में चली गई। बेटी के चेहरे को देख कर उसके पिता इतना समझ गए इन प्यार व्यार की बातों से दूर करना उर्वशी को आसान नहीं होगा।


   वो रात बिना श्रवण को देखे कैसे गुजारती उर्वशी नहीं जानती थी। लेकिन वो ये बात भूल गई थी की श्रवण भी उसे उतना ही चाहने लगा है। वो खुद उर्वशी को देखे बिना नहीं रह सकता था। निराश होकर जब उर्वशी छत पर गई उसे कुछ दुरी पर अपनी मोहल्ले के बच्चों के साथ खेलता हुआ वो चेहरा दिखा, उसकी झलक मिली जिसने उर्वशी के दिलोदीमाग पर अपना सामाराज्य कायम कर लिया था। उर्वशी के दीदार मिलते ही उसे ठीक देख कर सुकून भारी मुस्कान के साथ श्रवण लौट गया। फिर क्या था उर्वशी छत से खिलखिलाती हुई निचे लौटी और पिता से लिपट कर धन्यवाद जाहिर करने लगी और रसोई में जाकर माँ की मदद करने लगी जो बहुत कम ही होता था।


अब श्रवण दूध लेकर उर्वशी के मोहल्ले के बच्चों के साथ खेलने के बहाने अपनी दिलरुबा को देखने आता था। उर्वशी भी किसी ना किसी बहाने घर से निकल कर उसके पास जाती और छुप छुपाकर एक दूसरे को ख़त देने का सिलसिला सुरु हुआ। कभी ख़त कभी गुलाब कभी तोहफ़े दिए जाने लगे एक दूसरे को। मगर बातें रु ब रु अब भी बाकि थीं। उर्वशी ने कोचिंग ना जाकर आज श्रवण से मिलने का फैसला कर लिया था। वो जानती थी श्रवण का कॉलेज। वो ख़त में लिख चुकी थी आज उसके कॉलेज के बाहर उसका इंतजार करेगी। श्रवण आया और दोनों साथ साथ चलने लगे रोड के किनारे चुपचाप। उर्वशी ने पूछा आखिर हिम्मत जुटाकर " मैंने सही किया ना?

मुझे चुनकर या यहाँ आकर.. क्या जानना चाहती हो मेरी उर्वी। अपना नाम इतने प्यार से सुनकर उर्वशी अपनी ख़ुशी नहीं रोक पाई और रुक गई। उसका दिल कर रहा था श्रवण को गले लगाने का जिसे श्रवण पहले ही समझ चूका था। रुकी हुई उर्वशी का हाथ पकड़ अपनी तरफ खिंच कर गले लगा लिया। और दोनों के आंसू निकल पड़े इस गहरे अहसास को महसूस करके। फिर याद आया दोनों रास्ते पर खड़े हैं।


फिर दोनों चुपचाप चलने लगे। कुछ दुरी पर एक पार्क था दोनों वहाँ एक दूसरे का हाथ पकड़ कर बैठ गए। श्रवण ने कहा " मैंने मिलने की पहल इसलिए नहीं की क्यूँकि लड़कियों को लगता है की, लड़के बहुत बेशब्र होते हैं। मगर, उर्वी सच कहूं तो मुझे इस प्यार की अनुभूति बेहद दीवाना बनाती है। तुम्हारे आस पास होने का आभाष हर पल हर लम्हा होना कितना करीब ले आया हमदोनो को देखो। उर्वशी अपनी दिलबर की हर बात से सहमत थी।

अब आगे क्या, उर्वशी ने पूछा। श्रवण ने बताया, कॉलेज खत्म होते ही पापा का व्यवसाय संभालेगा और फिर उर्वशी के घर रिश्ता लेकर आएगा। उर्वशी ने बताया उसके पिता उसे डॉ बनाना चाहते हैं। श्रवण ने जवाब दिया "तुम उसकी अच्छे से तैयारी करो क्यूँकि हमारे खानदान में कोई डॉ साहिबा नहीं हैं तो हमारे घर वाले भी खुश हो जायेंगे।


 काश सबकुछ इतना आसान होता प्यार की राहों में चलकर मिलना। इस मुलाक़ात के कुछ दिनों बाद श्रवण अपनी बड़ी बहन के ससुराल गया जहां किसी खानदानी झगडे की वजह से उसकी बड़ी बहन, जीजाजी और श्रवण की भी बेरहमी से हत्या कर दी गई। इस जीवनभर के दर्द ने उर्वशी को झकझोर कर रख दिया। मगर गुनाहगरों को सजा मिली और परिवार की हालत कुछ हद तक श्रवण की सम्भली।


उर्वशी कभी श्रवण के प्यार को भुलाकर आगे नहीं बढ़ी ना ही किसी और से विवाह कर उसके प्यार को, उसकी यादों को, उसके अहसास को अपनी से दूर होने दिया। लेकिन, उर्वशी ने उसका सपना जरूर पूरा किया। वह डॉ बनी और आजीवन उसके परिवार की देखभाल पुरे मन से किया। अब भी श्रवण की वो पहली झलक उर्वी के जेहन में उतनी ही ताजी है जितनी पहली मुलाक़ात के बाद थी।


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