जीवन धारा का खूबसूरत मोड़- भाग-1
जीवन धारा का खूबसूरत मोड़- भाग-1
हल्के स्लेटी रंग के सूट के ऊपर पीला दुप्पटा। दुप्पटे पर स्लेटी बूटियाँ बनी हुई। जय उसके मांसल बदन को आँखों ही आँखों में हज़म करने में लगा था। वो थी ही इतनी सुन्दर और सुडौल, हर किसी की नज़र उसी पर टिक जाती। फ़िलहाल उस कमरे में मांडवी और जय के अलावा कोई तीसरा नहीं था। मांडवी अपनी पटना की यात्रा के बारे में पूरे मनोयोग से जय को बता रही थी। उसकी आवाज़ दिलकश तो नहीं है, पर उसके पूरे व्यक्तित्व के साथ अच्छी लगती है।
जय से मांडवी को एक अलग जुड़ाव महसूस होता था, उनके रिश्ते को दोस्ती कह सकते हैं। मांडवी बोलती जा रही थी, जय की आँखें उसके वक्षों को घूरने लगी। मांडवी ने पीले रंग के दुप्पटे को अपनी छात्ती पर फैला लिया, और हल्की नाराज़गी भरी नज़रों से जय की तरफ़ देखा। जय झेंप गया। “ तो कानपुर से तुम ट्रेन से गई पटना ? जय ने झेंप मिटाने के लिए पूछा।
“ इसका मतलब इतनी देर से तुम कुछ भी नहीं सुन रहे थे, मैं बेकार में बकबक कर रही थी। मांडवी जानती थी जय उसे मन ही मन कितना चाहता है, परंतु सामाजिक वर्जनाओं के कारण उसने उसकी भावनाओं की अनदेखी की। मांडवी भी जय को पसंद करती थी। “ चलो जाओ अपना काम करो, जब तुम्हें सुनना ही नहीं।
“मैं सुन रहा हूँ ना, आगे बताओ ” जय ने मनुहार की।
तभी ऑफ़िस का दरवाज़ा खुला !!आलोक एक कुर्सी खींच बैठते हुए फ़रमाइशी तौर पर पूछा “ क्या मैं भी बैठ सकता हूँ ?
मांडवी और जय दोनों मन ही मन भुनभुना गए। “ अरे बैठो भई, कब आये ? जय ने ज़बरदस्ती मुस्कुराते हुए कहा।
मांडवी ने अपनी कुर्सी हल्की सी जय की तरफ़ मोड़ ली। उसके स्लेटी रंग के चमड़े के जूते की नोक ऐन जय की तरफ़ हो गई।
जय की नज़र उसके गोरे टखनों पर गड़ गई, स्लेटी जूतों के बाहर टखनों वाला का हिस्सा बहुत सुन्दर दिख रहा था। जय मंत्रमुग्ध देखता रह गया। मांडवी भी जान गई जय की नज़रों का प्यार, उसके होंठों पर एक बहुत प्यारी मुस्कान बिखर गई। वो प्यारी मुस्कान होंठों से उठ कर उसकी आँखों तक फैल गई। जय ने तभी नज़र उठाई, दोनों की नज़रें मिली और एक दूसरे को देखते रह गए। प्रेम की एक पवित्र धारा आँखों ही आँखों में दोनो के बीच बहने लगी। ऐसा लग रहा था, मानो संसार में बस प्यार ही प्यार बाक़ी रह गया। “ मैं चलता हूँ, एक ज़रूरी काम याद आ गया ” आलोक उठते हुए बोला।
“ ठीक है !! जय झेंप कर बोला, मैं भी चलता हूँ। जय भी उठा, बिना आवाज़ के आँखों ही आँखों में मांडवी और जय ने एक दूसरे को बाई / बाई कर लिया।
जय के जाते ही मांडवी ने प्रॉजेक्ट फ़ाइल में सिर गड़ा दिया। कितना काम बचा है ? कौशिक सर आते ही होंगे। पूरे मन से मांडवी कम्प्यूटर पर प्रॉजेक्ट पूरा करने में जुट गई। उसके समय से काम पूरा करने की आदत से कौशिक सर भी क़ायल थे।
मांडवी शर्मा पैंतीस पार की महिला, जिसका अपने पति से एक साल के भीतर ही डिवॉर्स हो गया पाँच साल पहले। पति को उसका नौकरी करना पसंद नहीं था, सास भी पति का साथ देती। रिश्तेदारों के बीच / बचाव के बाद भी दोनों का सम्बंध विच्छेद हो गया। मांडवी ने तभी निश्चय किया कि अब किसी भी मर्द से कोई भावनात्मक सम्बंध नहीं रखेगी। वो अपने प्रण पर इतने सालों तक अडिग रही थी। परंतु छः महीनों से जय की तरफ़ एक अज़ीब सा खिंचाव महसूस करने लगी थी।
घर आकर मांडवी फिर जय के बारे में सोचने लगी। क्या जय मुझे समझेगा ? शायद नहीं समझेगा ? शुरुआत में सब अच्छा लगता है, फिर वही लड़ाई / झगड़ा। पर जय तो ऐसा नहीं लगता ? क्या पता थोड़ी देर के साथ में क्या समझ आयेगा। पर जय के साथ इतना अच्छा क्यों लगता है ? सोचते / सोचते मांडवी की आँख लग गई।
(क्रमशः)——————————————-