Umesh Shukla

Thriller

4  

Umesh Shukla

Thriller

तनाव से मुक्ति...

तनाव से मुक्ति...

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हरियाणा का सबसे तेजी से बढ़ता शहर रोहतक। रोहतक से प्रकाशित होने वाला प्रदेश का एक नामवर हिंदी दैनिक। संपादकों की लंबी तगड़ी फौज पर सब अपनी अपनी ढपली और अपना अपना राग अलापने में मस्त। हर संपादक को अपने खास होने का अजब सा गुरूर। सहकर्मियों से भी खुद को खास महसूस कराने की श्लाघा। शायद ही उन कथित संपादकों ने कभी सहकर्मियों के साथ बैठकर उनकी आंतरिक पीड़ाओं को जानने की कोशिश की हो। यह बात करीब सन 2009 के आसपास की है। तब राष्ट्रीय राजनीतिक आकाश पर कांग्रेस छाई हुई थी। प्रदेश में भी कांग्रेस की सरकार थी। जोड़तोड़ में माहिर एक राजनेता इस अखबार के प्रधान संपादक थे। तब भाजपा आज जितनी विराट न थी। न ही हरियाणा में उसकी आज जैसी धमक थी। तब भाजपा राजनीतिक मंच पर कांग्रेस को सवालों में घेरकर आगे बढ़ने की खातिर राजनीतिक जोड़ तोड़ में लगी थी। जैसा आम तौर पर होता है किसी दल का कुनबा बढ़ाने के लिए तमाम नेता अपने प्यांदों को आगे बढ़ाने की कोशिश में लगे रहते हैं। वैसा ही अभ्यास भाजपा के हरियाणा के नेता कर रहे थे। अपनी लकीर बढ़ाने की फितरत में तब के भाजपा नेताओं ने इस अखबार के प्रधान संपादकजी को साथ जोड़ा। वे भी तब बड़े नेताओं संग कदमताल करने की कोशिश कर रहे थे। वे भाजपा में बड़े नेताओं की आवभगत कर अपनी आभा रेखाएं बड़ी करने की कोशिश में जुटे हुए थे। तत्कालीन परिवेश में अखबार की बदौलत राजनीति में जगह बनाना अन्य हिकमतों की तुलना में आसान था। फिर भाजपा ताकत जुटाने को बेचैन थी ऐसे में उससे जुड़कर आसानी से शीर्ष नेताओं की पंक्ति में स्थान बनाना प्रधान संपादक के लिए आसान था। ऊपर से वे हरियाणा के एक बड़े व्यावसायिक घराने के मुखिया होने का रूआब भी रखते थे। उन्हें अखबार निकालने से ज्यादा रुचि खुद को ऊंचे ओहदे पर स्थापित करने में ही थी। यूं तो वो कई संस्करणों वाला अखबार निकालते थे लेकिन उनका मुख्य मकसद अपने अन्य व्यावसायिक घरानों को सुरक्षा कवच देना ही था। इन्हीं प्राथमिकताओं के चलते अखबार के लिए बहुत अच्छे कार्मिकों को साथ जोड़ने में उनकी रुचि नगण्य ही रही। वे अखबार के लिए कार्मिक तो रखते हैं लेकिन उनकी पेशेवर क्षमता का सही आकलन करके नहीं वरन इस आधार पर कि किस जिले से कौन कितना अधिक विज्ञापन का व्यवसाय ला सकता है या कौन उनके व्यावसायिक संस्थाओं को आपदकाल में प्रशासन से कितनी मदद दिला सकता है। ऐसे में उस अखबार में कार्मिकों की फौज तो थी लेकिन ज्यादातर अप्रशिक्षित यानी कच्चे। अच्छा अखबार निकालना टीम वर्क के बेहतर संयोजन का ही परिणाम होता है. वह हंसी का खेल नहीं। इस बात से उस अखबार के संपादकों में से अधिकतर इत्तिफाक नहीं रखते थे।हां उनमें बड़ा नाम बनने की ललक भरपूर थी। ऐसे में उनके एक संपादक जो लिखने और पढ़ने में सबसे कुशल थे वे औरों को अपने समूह से जोड़ने के प्रयास में लगे रहते। पत्रकारिता क्षेत्र के तमाम लोग उन संपादक के विशेष प्रयास के चलते उस अखबार से जुड़े लेकिन वे लंबा सफर तय नहीं कर पाए। मुख्य वजह रही वहाँ अप्रशिक्षितों की भारी भरकम भीड़। बड़ा सवाल यही कि उसको कार्यकुशल बनाने का भगीरथ प्रयास कौन करे। कौन एबीसीडी से लेकर हिंदी व्याकरण की कक्षा रोज लगा सकता है वो भी कम पारिश्रमिक पर जीवन निर्वाह करते हुए। गलतियाँ कम हों तो उन्हें सुधारा जा सकता है लेकिन हर कदम पर गलत शब्द का प्रयोग हो तो उसे भला कौन तराश सकता है। यह ज्ञान अमूमन उस अखबार से जुड़ने वाले पत्रकारों को तब होता जब वे वहाँ न्यूज रूम का हिस्सा बन जाते। इस कहानी के अहम किरदार रमेश को भी असलियत का पता तब चला जब वह न्यूज रूम का हिस्सा बना। कहने को कस्बे से लेकर देश की राजधानी तक में उस अखबार के प्रतिनिधि मौजूद थे लेकिन ज्यादातर रिपोर्टर दूसरे अखबारों और न्यूज चैनलों की रिपोर्ट की भद्दी कापी लिखकर ही भेजते। हर बार तुर्रा यह कि उनकी खबर विशेष है। 90 फीसदी खबरें किसी अखबार या चैनल की कापी ही होती। नकल के लिए भी अक्ल की जरूरत होती है। इस पर विचार करने वाले वहाँ बिरले ही थे। कम पारिश्रमिक के कारण राजधानी ब्यूरो के प्रतिनिधि भी दूसरे अखबारों और चैनलों की नकल उतारकर खबरों को परोसते। सिर्फ शाब्दिक त्रुटियां हों तो उन्हें सुधारा जा सकता है लेकिन तथ्यात्मक गलतियां वो भी प्रचुर मात्रा में हों तो उसको पकड़ना लंबी अवधि में ही संभव है। उसके ज्यादातर प्रतिनिधि एकदम चिकने घड़े मानिंद थे। टोकने पर भी सुधार की कोशिश नहीं करते। अलबत्ता उन्हें इस बात का गुमान रहता कि फलां संपादक के खास हैं। उनका यही माइंडसेट सुधार की संभावनाएं न्यून करता रहा। संपादकों से करीबी रिश्ते का इजहार कर वे हर गलती से बच निकलते। कोई न कोई बहाना उनके पास हर गलती के लिए होता था। वहाँ के हालात सुधारने के लिए रमेश ने भरसक बहुत प्रयास किए। एक अच्छे अखबार को छोड़कर उसने रोहतक के उस अखबार को ज्वाइन किया था। उसे पहले वहाँ की स्थितियों का ठीक से ज्ञान न था। लेकिन समय और श्रम  लगातार बढ़ाने के बाद भी जब अखबार की गुणवत्ता में अपेक्षित सुधार न दिखा तो रमेश का मन अक्सर खिन्न रहने लगा। उसे हर दिन यही लगता कि उसकी कार्यक्षमता गैर पेशेवर लोगों की गलतियों की बलि चढ़ती जा रही है। गलतियां करने के बाद यदि संबंधित व्यक्ति उसे महसूस करे और सुधार का प्रयास करें तो शायद भविष्य में उनकी पुनरावृत्ति न हो लेकिन उस अखबार में एक से एक निराले जीव मिले। वे अपनी गलतियों से सबक नहीं लेते मगर दूसरों की कतर ब्योंत में हर क्षण लगे रहते। उनकी निगाह प्रबंधन की हां हुजूरी की ओर अधिक खुद में सुधार की ओर कम रहती। दूसरों के दोषों की ओर प्रबंधन का ध्यान खींचकर वे खुद बच निकलते। रोज रोज की कानाफूसी और कतर ब्योंत की कार्मिकों की करनी न्यूज रूम के माहौल से टीम वर्क का भाव निगल जाती है इस बारे में सोचने की जरूरत संपादकों को तनिक भी न थी। वे तो खुशामदियों पर भी मेहरबान दिखते। जब अन्य दिशाओं से प्रतिकूल हवा बह रही हो तो कार्यक्षेत्र की नौका खेना आसान नहीं होता है। अच्छों के दिमाग की नसें तनावग्रस्त हो जाती हैं। कुछ ऐसा ही रमेश के साथ होता रहा। जब उसे अपने कर्मक्षेत्र का माहौल घुटन भरा और इर्द गिर्द मौजूद लोगों का चरित्र दोहरा और कपट भरा दिखने लगा तो करीब 13 माह की अवधि की उपलब्धियों और नतीजों पर उसने एकदिन खुद बड़ी गहराई से चिंतन किया। वो तय कर चुका था कि तनाव से निजात पाना है। अपनी ऊर्जा का कहीं और प्रयोग करना है। इस बात का भान खुशामद पसंद संपादकों को बिल्कुल नहीं था। शायद इसी नाते एक संपादक एक शब्द के प्रयोग के औचित्य को लेकर ऊंची आवाज में कुछ बोल बैठे। फिर तो उस संपादक को रमेश के मन में लंबे समय से उमड़ घुमड़ रहे तल्ख शब्दों से दो चार होना पड़ा। ऐसे लगा जैसे किसी ने आग से दहकते कुंड में घी उड़ेल दिया हो। पहले से ही मन से रोज रोज के तनाव से मुक्ति का संकल्प ले चुके रमेश ने संपादक जी की टीम का कच्चा चिट्ठा उनके सामने रखा। तुरंत काम से किनारा करने का ऐलान कर दिया। संपादक को यह उम्मीद थी कि रमेश फिर लौटकर काम पर आएगा। खुशामदी करेगा नौकरी को जारी रखने के लिए। उसका मन टटोलने के लिए संपादक ने अपने कुछ खास दूत भी रमेश के घर तक भेजे। लेकिन रमेश को तो तनाव से मुक्ति पाने की अभिलाषा अपने पाश में लपेट चुकी थी। वह टस से मस नहीं हुआ। हालांकि पारिवारिक दायित्व का भी उसे वास्ता दिया गया लेकिन वह अपने फैसले पर डटा रहा। काम छोड़ने के बाद तीन महीने तक वह पूर्व में जमा धनराशि ही खर्च करता रहा लेकिन कहावत है ईश्वर एक विकल्प खत्म करता है तो दूसरे कई मुहैया करा देता है। वह सच्चे बंदों को सही राह पर चलाकर और अच्छे लोगों से मिला देता है। ऐसा ही रमेश के साथ हुआ। कभी वह केवल खुद नौकरी करता था लेकिन कालांतर में रमेश ही नहीं उसकी पत्नी भी नौकरी में आ गई। 

माता के आशीर्वाद और भगवत भक्ति ने उसके जीवन में आई तमाम बाधाओं को दूर कर दिया। रमेश की पत्नी ने खुद भी नौकरी करने का इरादा बना लिया। उसका परिणाम यह रहा कि कुछ ही दिनों में उसने प्राथमिक शिक्षा विभाग में नौकरी हासिल कर ली। रोहतक प्रवास की अवधि को रमेश और उसके परिवार के लोग गेमचेंजर और भगवतकृपा का परिणाम मानते हैं। ईश्वर ने जो दिया उसे कभी रमेश ने सपने में भी नहीं सोचा था।


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