क्या दुख को भी दुख होता है ?
क्या दुख को भी दुख होता है ?
सिहर जाता है मन मेरा किसी दुखी इंसान को देखकर,
निराश हो जाता हूँ उनकी दारूण दुरावस्था देखकर,
निराशा के क्षणों में ही मेरे ज़ेहन में एक ख्याल आया कि
क्या किसी दुखी इंसान को दुखी देखकर दुख को भी दुख होता होगा ?
क्या उसमें भी कोई संवेदना होती होगी ?
क्या कभी कलेजा नहीं फटता होगा उसका
जब कोई बच्चा भूख से छटपटाते हुए इस दुनिया को छोड़ देता होगा ?
जब कोई प्यासा बिन पानी तड़प-तड़पकर दम तोड़ देता होगा ।
क्या उस समय भी उसमें कोई आह की आवाज़ नहीं निकलती होगी
जब किसी अबला स्त्री को दरिंदे अपनी हवस का शिकार बना रहे होते हैं ?
आखिर कैसे ये सब दुख भी देख पाता होगा मूक दर्शक बनकर?
जब कोई लाचार को सताया जाता होगा ,
जब किसी से मतलब निकाला जा रहा होता है
और वह उसे समझ नहीं पाता होगा ,
जब किसी से नफरत की बीज बुआया जाता होगा
तो क्या उस समय भी दुख को दुख नहीं होता होगा ?
जब किसी बेकसूर को बेवजह ही सजा दी जाती है ,
तो क्यों उस अन्याय का दुख साक्षी बन जाती है ?
वो इसलिए कि उसमें संवेदनशीलता होती ही नहीं
उसे तो केवल किसी को तड़पते हुए देखने में ही सुख पहुँचता है ।
भला दुख को किस बात की दुख होगी !
चूंकि वो तो खुद ही दुख है ।