हमहूँ खेलब
हमहूँ खेलब
जीवन में अक्सर अनेक घटनाएँ घटती रहती है। कुछ घटनाओं की स्मृतियाँ दिमाग में ज्यों की त्यों शेष रह जाती है। आज रहस्य विषय से सम्बंधित मेरे बचपन का एक संस्मरण आपके साथ साझा करने से मैं अपने आप को रोक नहीं पायी।
बचपन मतलब बहुत ही छोटी थी मैं, शायद पाँच साल की। हमने, मतलब मैं और मेरी छोटी बहन जो कि तीन- साढ़े तीन साल की थी, ने नया नया हमारे गाँव की कन्या पाठशाला में जाना प्रारंभ किया था । मैं बता दूँ हमारे गाँव की कन्या पाठशाला बहुत पुरानी है। इतनी पुरानी कि उसमें हमारी बुआ लोगों ने भी पढ़ाई की थी। अब आप बोलेगें तो इसमें क्या खास बात है ? अरे वह बुआ जिनके बच्चे भी मेरे पापा से बड़े थे । हाँ तो हमारी कन्या पाठशाला बहुत बड़ी थी । वह अंग्रेजी अक्षर एल की तरह थी । बाँयी तरफ के दो कमरे जो नए बने थे, वह भी शायद काफी पुराने होंगे। दाहिनी तरफ को पीछे की तरफ एक कुँआ था। जिससे मूला जिया (अजिया) पानी ला कर रखती थी स्कूल में हमारे पीने के लिए। वैसे उस कुएँ पर गाँव की अन्य महिलायें भी पानी भरने आती थी। पर शायद कुएँ के कारण हमें उस तरफ मतलब स्कूल के पीछे की तरफ जाने को मनाही थी ।
चूँकि मैं बहुत सालों बाद हुई थी, इसलिए घर भर की खास करके अपने भाइयों की लाडली थी। भाइयों के साथ बड़े होने के कारण डर तो मुझे छूकर भी नहीं गया था (आज भी) । यह मेरी जिन्दगी का पहला और अब तक का आखिरी प्रसंग है जब मैं नौ दो ग्यारह हुई थी।
वैसे भी बच्चे जो ना बोलो वह ही करते हैं। वैसे तो हमारे स्कूल के सामने स्कूल के बड़े से दो मैदान थे। हाँ पहला मैदान प्राथमिक कन्या पाठशाला के लिए और चार सीढ़ी उतर कर दूसरा मैदान बाए हाथ पर बनी माध्यमिक कन्या पाठशाला के लिए । मतलब हमारे लिए खेलने के लिए जगह की कमी नहीं थी । पर एक दिन खेलते खेलते हम एकदम किनारे पर वाली कक्षा में घुस गए । वह कक्षा इस्तेमाल नहीं की जाती थी। वहाँ सब पुराना सामान रखा हुआ था । टूटी कुर्सियां फटी हुई टाट पट्टियाँ, श्यामपट (ब्लैक बोर्ड) आदि। उस कमरे की पिछली दीवार में एक झरोखा था, खिड़की नहीं, खुला हुआ।
अब जो कि हमें पीछे जाने की मनाही थी तो हमारा मन किया झाँक कर देखे, पीछे क्या है ? तो बस टूटी कुर्सी लगाकर हम बारी-बारी से उसमें से झाँकने लगे । पीछे एक पेड़ था । तब नहीं मालूम था कि वह पीपल का पेड़ था । उस पर खूब धागे बँधे हुए थे । आसपास की जगह एकदम साफ थी और वहाँ से झाँकने पर जो नए कमरे बने थे उनमें से एक का झरोखा भी दिखाई दे रहा था। वह झरोखा थोड़ा नीचे और थोड़ा बड़ा था ।
बस मुझे खुराफात सूझी। अब जब भी हम आइस पाइस खेलते, मैं उस झरोखे से निकलकर पीछे कूद जाती और बाद में दूसरे वाले कमरे के झरोखे से अंदर आ जाती। अब क्यूँ भी कोई पूछने की बात है? अरे भाई सब देखते ना मैं छिपने के लिए इस कमरे में गयी हूँ। यहाँ से चढ़कर कूद सकते थे पर उस तरफ से चढ़ नहीं सकते थे। बहुत दिनों तक तो मुझे कोई नहीं पकड़ पाया कि मैं कहाँ छुपती हूँ। फिर धीरे-धीरे करके दोस्तों ने पकड़ लिया । जब सब को ही मालूम पड़ गया तो हम लोगों ने कार्यक्रम बनाया चलो एक दिन पीछे जाकर खेलेंगे ।
याद नहीं खेल का पीरियड था या खाने की छुट्टी का समय जो भी हो हम सब धीरे-धीरे उसी झरोखे से बाहर निकल गए। वहाँ पहुँचकर, मैंने नेता बनते हुए सबसे पूछा, "तो बताओ कौन सा खेल खेले"? वहाँ पीपल का पेड़ देखकर कुछ बच्चे डर रहे थे । शायद उनको मालूम होगा या उनकी मम्मी लोगों ने मना किया होगा । वह लोग वापस लौटने की जिद करने लगे ।
मैंने जोर से बोला, "जिस को वापस जाना हो जाए और जिसको खेलना हो बताएं । बताओ कौन कौन खेलेगा"।
दो तीन बच्चों ने बोला, "हम खेलेंगे, हम खेलेंगे"।
बाकी सब दूसरे कमरे वाले झरोखे से वापस जा रहे थे ।
मैंने कहा, "चलो जिसको जिसको खेलना है, आ जाओ, चलो खेलते हैं ।
तब से एक बहुत ही भारी अजीब सी आवाज आयी, "हमहूँ खेलब" ।
आवाज ऐसी थी कि जो बच्चे खेलने के लिए रुके थे, उनकी भी सिट्टी पिट्टी गुम हो गई। सब बच्चे, उनके साथ मैं, झरोखे से ऐसे नौ दो ग्यारह हुए कि वापस से जब तक स्कूल में पढ़े, हम कभी उन दोनों कमरों में नहीं गए।
भूत प्रेत को तो मैं तब भी नहीं मानती थी, आज भी नहीं मानती हूँ पर वह किस की आवाज थी? कभी पता नहीं चला। बाद में अभी कुछ सालों पहले गाँव जाने पर जब यूँ ही कन्या पाठशाला गयी तो देखा पूरे स्कूल की मरम्मत हुई थी पर पुराना ढाँचा वैसा ही था। मैं खास कर उस कोने वाली कक्षा में गयी। मैं वहाँ झरोखा ढूँढ रहीं थी तो सामने एक पंचकोण आकार का छोटा सा छेद था। मैं आश्चर्यचकित थी कि जिस छेद में मेरा सिर भी नहीं जा रहा है उससे कभी हम कैसे निकल जाते थे। और सामने ही थोड़ा बड़ा झरोखा था सोच पाना कठिन था कि कभी इससे हम दस बारह बच्चे मिनटों में नौ दो ग्यारह हुए थे।