अविनाशिनी
अविनाशिनी
केवल तलवार नहीं होती,
कलम रिश्ते भी बुनती है ,
कभी कान, कभी आँख,
कभी दिमाग से सुनती है ।
अभी रात नहीं होने वाली ,
सूरज नहीं ढलने वाला,
वो आँख नहीं नम होगी ,
जो रोज़ शहादत सुनती है ।
लिखो जरा पत्थर फिर से ,
ये बादल क्यों इतराता है ?
पल जो काल का कतरा है ,
समय को खा ही जाता है ।
रख लो नाम पुनः कोई ,
चैतन्य नहीं आने वाला ,
वो रोज़ सिरहाना रखती है,
वो रोज़ कहानी चुनती है ।