बरसात
बरसात
इस मौसम–ए–बरसात से,
कुछ शिकायत भी मुझे है।
यह मुझे भारी कर जाता है, रंजीदा कर जाता है।
कई मामलों में, कई महीनों इंतजार के बाद आना इसका,
सुकून तो देकर जाता है,
कुछ भर कर भी जाता है।
जब इन काले बादलों को देखता हूं लटके हुए आसमान में,
कुछ अपनी जिंदगी भी झूलती नजर आती है, कहीं फंसकर।
जैसे निस्तोनाबुद होने से पहले का दर्द,
सारा समा नजर आता है आंखों के सामने,
कि जैसे धार बनकर गिरना है और बह जाना है चंद लम्हों में।
अफसोस इसका भी होता है,
कि ठहर न सके ये उसकी गोद में,
जिसके लिए अपना सब छोड़ पहुंचे थे जिसकी दर पर।
उस दर पर उन्हें अपनापन तो मिला,
किंतु अपनाने की बिना पर, बगैर बना दिया गया।
ठुकराया तो नहीं गया,
पर इतना मजबूर कि
खुद ही लज्जा से पिघलकर छोड़ देना पड़ा उस दर को।
इन पथराए हुए बर्फों की घर्षण से,
तड़पने लगता है ये दिल!
कि टूटने का दर्द मेहसूस कैसे होता है,
मेहसूस करने लगता है ये दिल!
शायद! इस तड़प से टूट जाना चाहिए था आसमान को!
परंतु टूटने के लिए आसमान के अंदर भी तो कुछ होना चाहिए!
जैसे बादलों में भरे हैं जज्बात, तड़प, और आंसू!
वैसा कुछ भी तो नहीं है आसमां के पास,
एक शून्य! जिसको कभी दर्द नहीं होता!
जिसका अपना कुछ नहीं होता!